Home लेखकBhagwan Singh पुराणों का सच – 7

पुराणों का सच – 7

by Bhagwan Singh
215 views
पुराणों में जातीय स्मृति हिमयुग की चरम सीमा 20,000 साल से पीछे (स्वर्लोक) तक जाती हैं। इसमें यवनों (ग्रीकों), हूणों, चीनों (तुषारों/तुखारियों ), दरदों (अफगानों). पल्लवों(पहलवियों), शकों के आक्रमणों का भी हवाला है, पर किसी ऐसे आक्रमण की सूचना नहीं है जिसे 600 ख्रिष्टाब्द पूर्व से पहले का सिद्ध किया जा सके।
वेदों में भी बाहर से किसी आक्रमण का प्रमाण नहीं। ‘राजाओं और श्रीमंतों के आपसी कलह के दो प्रसंग हैं, एक वरशिख के वंशधर वृचीवान का हरियूपीया के चायमान पर आक्रमण (वधीदिन्द्रो वरशिखस्य शेषो ऽभ्यावर्तिने चायमानाय शिक्षन् ।वृचीवतो यद्धरियूपीयायां हन् पूर्वे अर्धे भियसा अपरो दर्त ।। 6.27.5) जिसमें आक्रांता भारी क्षति उठाकर भाग खड़ा होता है और दूसरा सुदास पर दस ‘राजाओं’ का आक्रमण, जिसमें भी आक्रमणकारियों को भारी क्षति उठानी पड़ती है। दूसरे प्रसंग में भारतीय ‘राजाओं’ के अतिरिक्त पक्थ और भलान (पख्तून और बोलन क्षेत्र के कबीले?) भी शामिल थे। विजय सुदास की होती है। पश्चिमोत्तर की पहाड़ियों से यदा कदा दस्युओं के उपद्रव का प्रमाण पुरातत्व से भी मिलता है और ऋग्वेद से भी। इनमें दासों/दस्युओं को पर्वतीय क्षेत्रों का निवासी (पर्वतेषु क्षियन्तं) बताया गया है। प्रतिशोध में उनकी बस्तियां जलाने के पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं (ह्वीलर) और साहित्यिक प्रमाण भी। एक राजा का नाम ही त्रसदस्यु है। दूसरे का दुष्यंत।
छठी शताब्दी ई.पू. से पहले भारत से बहिर्गमन होता आया था। इसका कारण हिमयुग में भारत में शरण लेने वालों के कारण जनसंख्या का भारी दबाव था। राहत का दौर आने के बाद पहले के हिमाच्छादित भूभाग में हरियाली आने और जीविका संभव होने के बाद बहुत से जत्थे भारत से बाहर जाने लगे (त्रांबेत्ती)। यह बहिर्गमन भी जो दस बारह हजार साल पहले आरंभ हुआ और बाद में भी होता रहा, आक्रमण न था। पुरातत्व से इस बात का प्रमाण मिलता है लगभग 3-4 हजार ई.पूर्व भारतीय अश्व व्यापारी मध्य एशिया में अपना प्रभाव जमा चुके। अश्व व्यापार में सिंधियों की भूमिका प्रधान थी और मध्य एशिया के जिस क्षेत्र में उन्होंने अपना कारोबार फैलाया था, उसे सिंधियों का देश, शिंतास्ता, कहा जाता रहा। उनके पड़ोस में ही अंधक जनों ने, जो गुजरात के पशुपालक (अंधक वृष्णि =गोपालक अंधक) थे, अपना प्रभाव क्षेत्र कायम किया था जिसे आन्द्रोनोवो (अंधक जनों का नया प्रदेश) नाम से जाना जाता रहा। यदि मारिया जिम्बुतास(Marija Jimbutas) की मानें तो कुर्गान में इनकी गतिविधियां चौथी सहस्राब्दी ई.पूर्व में ही शुरू हो चुकी थीं। वहां के स्थानीय जन जंगली घोड़ों, तारपान- tarpan- का शिकार उदर पूर्ति के लिए करते थे। सिंधी अश्व व्यापारियों ने तारपान के बछड़ों के बदले गोरू देकर उनको विनिमय तंत्र से जोड़ा। ध्यान रहे कि भारत में एक घोड़े का मोल सौ गोरू था। यदि एक तारपान के बदले दो ना या तीन गोरू मिल जाएं तो उनकी तो चांदी ही चांदी थी। यद्यपि विनिमय में तारपान के बछड़ों को लेने के बाद उन्हें अच्छी खूराक दे कर पालना, पोसना और साधना (प्रशिक्षित करना) भी होता था, इसलिए हम यह तय नहीं कर सकते कि उनको इस व्यापार से कितने गुना लाभ होता था, फिर भी लाभ अपार होता था, यह तो मानना ही पड़ेगा। ऋग्वेद में सैकड़ों और हजारों की संख्या में किसी गंतव्य की ओर सुरक्षित मार्गों से जाते हुए गोधन के जो वर्णन मिलते हैं, वे इस व्यापार से ही संबंधित लगते हैं। लघुएशिया में भी भारतीय जनों का प्रवेश व्यापारी के रूप में ही हुआ था और प्रतिस्पर्धा में असीरियनों से आगे बढ़कर उन्होंने पहले तुर्की में अपना दबदबा कायम किया था और फिर धीरे-धीरे सत्ता पर अधिकार किया था और इसके बाद भारतीय मूल के कसों (कस्साइट) और मैत्रेयों (मितन्नी) ने अपनी राज्य सत्ता स्थापित की थी और उसके बाद ईराक सहित पूरे पश्चिमी एशिया पर हावी रहे।
हम पीछे देख आए हैं कि खैबर दर्रे से जिस आक्रमण की कहानियों को इतिहास का सच बनाया गया, वह आक्रमण हर दृष्टि से असंभव था। इसे जानते हुए भी यूरोपीय इतिहासकार अपनी जरूरत से आक्रमण की कहानियां गढ़ते रहे। इन कहानियों में आक्रमणकारियों द्वारा पहले के निवासी उत्पीड़ित, प्रताड़ित हो कर पलायन के लिए बाध्य हुए और शेष गुलाम बनाए या सेवा के लिए बाध्य किए गए। वे इस तरह के सुझावों से भारतीय समाज मेंं वैमनष्य और विघटन के बीज बो कर इसकी प्रतिरोध-क्षमता को नष्ट करते रहे, यह सामरिक दृष्टि से गलत न था। परंतु भारतीय विद्वान उनसे भी अधिक उत्साह से इसे अकाट्य सत्य बनाने को कृतसंकल्प रहे, इसके कई कारण थे। पहला तो यह कि इन प्रस्तावों का उत्साह से समर्थन ब्रितानी शासन मेंं ऊपर उठने और ख्याति पाने का सबसे आसान रास्ता था। दूसरा, भारतीय सामाजिक स्तरभेद की उत्पत्ति और प्रकृति का कोई अन्य संतोषजनक समाधान किसी को दिखाई नहीं देता था। क्योंकि वे यह सारा विकास आर्य आक्रमण की संकुचित काल सीमा में रख कर हल निकालना। तीसरा यह कि आसन्न इतिहास में भारत के निवासियों का भी एक तबका आक्रमण की कहानियों को और भारत में सभ्यता का प्रवेश पश्चिम से दिखाने को अपने वर्चस्व के लिए सत्य मानता था/सिद्ध करना चाहता था। अंग्रेज धार्मिक भेद को नफरत में बदलने और अपने को मुसलमानें का एकमात्र हितैषी सिद्ध करने के लिए तरह तरह के प्रयोग कर रहे थे और इस तरह स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर कर रहे थे, इसलिए कांग्रेस के हिंदू नेता भी उन्हें अंग्रेजों के चंगुल से बाहर लाने के लिए, उसकी मनुहार करते हुए, उसकी हर बात मानते हुए, उसको अपने साथ रखने को प्रयत्नशील थे। इस मनुहार के अनुपात में ही रूठते और दूरी बनाते हुए नई शर्तें लादते रहना, उसकी आदत बन गई। इसी मनुहार का परिणाम था कि स्वतंत्रता के बाद औपनिवेशिक इतिहास को गलत मानते हुए नया इतिहास लिखने की कवायद करने वालों ने औपनिवेशिक स्थापनाओं को ही दुहराया, और मार्क्सवादी इतिहास के नाम जो इतिहास लिखवाया गया उसमें मध्यकाल को मुस्लिम काल बनाया और महिमामंडित किया गया और इसी तरह प्राचीन भारत को हिंदूकाल, सच कहें तो ब्राह्मण काल बनाते हुए इसे पहले से अधिक गर्हित रूप में पेश किया गया और अन्य सभी औपनिवेशिक मान्यताओं को प्रामाणिक बनाने का प्रयत्न किया गया।
हम इस लंबी चर्चा में इसलिए उलझ गए कि इतिहास को और उसी तरह सामाजिक संरचना को अपने हितों के अनुसार कहानियां गढ़ने और प्रचारित करने की कला बनाया जाता रहा। वैज्ञानिक इतिहास लिखना सदा से एक बड़ी चुनौती रहा है पर वर्चस्व की कामना के चलते ब्राह्मणों ने, अंग्रेजों ने और वामपंथियों ने इसे अपने अनुसार नष्ट किया। यही काम आज तक जारी किसी इरादे से लिखा या लिखवाया गया इतिहास वैज्ञानिक इतिहास नहीं हो सकता। ऐसे इतिहास की ‘जानकारी’ जितनी भी बढ़ाई जाए, इससे शिक्षा नहीं ली जा सकती, इससे सामाजिक चेतना का विकास नहीं हो सकता, कल्पित कहानियों को हथियार बना कर प्रहार अवश्य किया जाता है।
अब यह निर्विवाद सत्य बन गया है कि भारत पर पूरे इतिहास में ऐसा कोई आक्रमण नहीं हुआ जिसमें लोगों को विशेष वर्गों, वर्णों या जातियों में जाने को बाध्य किया गया हो। यह हीन कर्मों में संभव था, जो स्लेवरी मे देखने मे आता है, पर उच्च कौशलों और दक्षताओं के मामले में नहीं, जिसमें वैदिक कवि भी स्पर्धा में अपने समय की शिल्पीओं की समक्षमता में आने की डींग भरते थे, ये योग्यताएं पैदा करना असंभव था। जब शूद्रों की दशा का कारुणिक चित्रण किया जाता है तब यह भुला दिया जाता है कि भारत का समूचा उद्योग और कलाएं उनके पास रही हैं। आर्थिक दृष्टि से उनकी दशा ब्राह्मणों से अधिक अच्छी थी। उनके बिना समाज का काम नहीं चल सकता था। ब्राम्हण के बिना चल सकता था। भीख मांगने का विकल्प ब्राह्मण के पास था, शूद्र के पास नहीं। आर्थिक विपन्नता के होते हुए भी ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व पर जितना गर्व करता था, उससे कम गर्व कुम्हार, थवई (स्थपति/ वास्तुकार), बढ़ई (तक्षक). लोहार, सोनार (धातुविद ) मनिहार(मणिकार) और शिल्पी, नर्तक, नट (नाट्यकर्मी), संगीतकार, क्या बलप्रयोग से बनाए जा सकते थे? यदि नहीं, तो इतनी मोटी समझ का भी इतना अभाव क्यों रहा कि हम सामाजिक स्तरभेद के लिए ब्राह्मणों को अपराधी मानते रहे जब कि ब्राह्मण, और आज के संदर्भ में सभी बुद्धिजीवी, उसी आर्थिक अवज्ञा के शिकार हैं। अंगिरा और आंगिरसों को ऋग्वेद में ऋषियों की समकक्षता में रखा गया है, पर न अंगिरस ब्राह्मण हैं न दूसरे ऋषि। जमदग्नि एक दूसरे असुर परंपरा के ऋषि है जो ब्राह्मणवाद के अधिष्ठाता वसिष्ठ की बराबरी में रखे गए :
भद्रं इत् भद्रा कृणवत् सरस्वति अकवारी चेतति वाजिनीवती ।
गृणाना जमदग्निवत् स्तुवाना च वसिष्ठवत् ।। 7.96.3
सबसे विचित्र है राजा भरत का आंगिरस कुल के भरद्वाज को अपना दत्तक पुत्र बनाना। भरत क्षत्रिय हैं, उनका दत्तक पुत्र बन जाने के बाद वह ब्राह्मण नहीं रह सकते। दत्तक पुत्र की आवश्यकता निःसंतान होने पर वंश चलाने के लिए होती है। अतः भारद्वाजों को क्षत्रिय होना भरतवंंशी क्षत्रिय होना चाहिए पर वे ब्राह्मण है, क्षत्रियत्व का दावा तक नहीं करते। अतः भरद्वाज को भरत का दत्तक पुत्र बनाने का रहस्य यह है भरद्वाज नाम में ही भरत समाहित (भरत्-वाज) है।
हमने अपनी एक पुरानी पोस्ट में यह विस्तार से बताया है कि अंगिरा अग्नि के पुत्र है, अग्नि स्वरूप हैं, धातुविद्या के आविष्कारक और प्रवर्तक हैं और यही दावा आगरिया जनों का है जो अपने को असुर कहते हैं। इस उपलक्ष्य में एक घटना प्रसंग का उल्लेख जरूरी प्रतीत होता है। आज से 30-35 साल पहले ( उस दौर में जब मनीष जोशी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक थे) पुरातत्व प्रशिक्षण संस्थान में बिहार के एक विद्वान का भाषण हुआ था जिसमें उन्होंने हड़प्पा लिपि के बहुत सारे चिन्हों का प्रयोग आगरिया (असुर) समुदाय के विवाह आदि के विशेष अवसरों पर लिखने और उसे किसी भी दूसरे को प्रकट न करने की हवाला देते हुए, उनके बीच प्रचलित इस धारणा का भी उल्लेख किया था कि वे पहले पश्चिम की दिशा में बहुत संपन्नता की स्थिति में थे और वहां भयानक मारकाट के कारण उनको पलायन करना पड़ा। जोशी जी ने उन से अनुरोध किया था यदि वह इनका एक वीडियो तैयार कर सकें तो उसका पूरा खर्च भारतीय पुरातत्व देगा। परंतु वर्मा ने जितनी कठिनाई और छल छद्म से उन चिन्हों को देखा और नितांत गोपन रखने की शर्त पर यह सूचनाएं प्राप्त की थीं, उनमें दृश्यचित्र बनाना तो संभव ही न था, इसका प्रस्ताव रखने वाले की जान पर बन आ सकती थी।
यदि यह सूचना किसी ऐसे व्यक्ति को मिले जो आक्रमण में विश्वास करता हो तो इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकालेगा कि लो, आज तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला था, पर आज मिल गया। हड़प्पा सभ्यता का निर्माण मुंडारी जनों ने किया था, और उनकी नगर सभ्यता पर आर्यों का आक्रमण हुआ, इसके साथ भारी रक्तपात हुआ उस दशा में आत्मरक्षा के लिए उन्हें पूर्व की ओर भागना पड़ा।
इस त्रासदी का एक पूरक पक्ष पौराणिक व्याख्या से मिलता है। कोसंबी आर्यों के कल्पित आक्रमण को क्षत्रियों का आक्रमण मानते हैं और ब्राह्मणों को हड़प्पा सभ्यता के व्यापारियों का नहीं अपितु मातृसत्ताक भारतीय हैवानों का पुरोहित बताते हैं और इस तरह प्राचीनभारतीय इतिहास को क्षत्रियों और ब्राह्मणों के द्वन्द्व के रूप में प्रस्तुत कर चुके थे। संभव है यह सूझ उनमें पार्जिटर को पढ़ने के बाद आई हो क्योंकि पार्जिटर का अपना मानना भी यही है:
ब्राह्मणवाद तब मूल रूप से कोई ऐला या आर्य संस्था नहीं थी। प्रारंभिक ब्राह्मण गैर-आर्य लोगों से जुड़े हुए थे और ऐला के प्रवेश करने पर उनके बीच स्थापित हो गए थे। यह उनके और वंशावली के संस्करणों के बीच मौजूद घनिष्ठ संबंध से पुष्ट होता है, जिसका एक ऐतिहासिक चरित्र भी है। शाही वंशावली में निश्चित रूप से ऐतिहासिक अर्थ की कमी नहीं है, और वे क्षत्रिय कथाएं और गाथागीत आम तौर पर उनकी ऐतिहासिक परिस्थितियों, दैत्य, दानव और असुरों के अनुरूप हैं।
हमने इस समस्या पर अपने विचार यथाप्रसंग प्रकट किए हैं। यहां उनको दुहराना अवांछित है।

Related Articles

Leave a Comment