भारत में एक बच्चे के जन्म के समय औसत जीवन प्रत्याशा जो 1961 में लगभग 42 वर्ष हुआ करती थी; 1981 में लगभग 48; 1991 में 58.5; 2001 में लगभग 62; 2011 में 67; तथा 2021 में 71 वर्ष हो गयी है। यही जीवन प्रत्याशा एक वर्ष के बच्चे की दो वर्ष बढ़ जाती है; कारण यह है कि अभी भी भारत में एक वर्ष से पूर्व कई बच्चो की असामयिक मृत्यु हो जाती है। दूसरे शब्दों में, एक वर्ष की आयु वाले बच्चे की जीवन प्रत्याशा 73 वर्ष होगी।
भारत में 1961 में लगभग 2.5 करोड़ लोग 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के थे जो उस समय की जनसंख्या का 5.6 प्रतिशत था। आज लगभग 13.8 करोड़ लोग 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के है जो जनसंख्या का 10 प्रतिशत से अधिक है। अगले दस वर्षो में ऐसे लोगो की संख्या लगभग 20 करोड़ पहुँच जायेगी जो जनसँख्या का 13 प्रतिशत होगा।
1961 में 14 वर्ष तक की आयु वाले बच्चे जनसँख्या का 41 प्रतिशत थे; 2031 में केवल 21 प्रतिशत रह जाएंगे।
जन की संख्या को मेंटेन करने के लिए भारत में प्रति महिला (total fertility rate – TFR) के 2.2 बच्चे होना चाहिए। अब यह दर 2 रह गयी है और आगे भी तेजी से घटने की आशा है। अर्थात अब भारत की जनसंख्या घटेगी; यानी कि बच्चे एवं युवा कम, बुजुर्ग अधिक होते जाएंगे।
अब आते है सरकारी नौकरी की पेंशन पर।
पुरानी व्यवस्था में रिटायरमेंट के बाद पेंशन का अमाउंट पूर्व निर्धारित एवं सुनिश्चित (Defined-Benefit Plan) रहता है। लेकिन इस पेंशन का मुख्य भार एम्प्लायर उठाता है जो आने वाली पीढ़ी – बच्चे एवं युवा – से टैक्स लेकर पेंशन पे करता है। इस पेंशन कॉन्ट्रिब्यूशन (योगदान) पर बाजार से कही बहुत अधिक ब्याज दर दी जाती थी जो एक तरह की सब्सिडी है। कारण यह है कि कर्मचारियों एवं सरकार का पेंशन कंट्रीब्यूशन इतना नहीं होता था कि रिटायरमेंट के 25-30 वर्ष बाद भी पूर्व निर्धारित पेंशन दी जा सके।
वर्ष 2000 में किसी व्यक्ति के रिटायर होने के बाद (अर्थात वह 1940 के आस-पास पैदा हुआ था) औसतन पांच वर्ष जीवित रहने की आशा थी; तब पुरानी पेंशन व्यवस्था चल सकती थी। लेकिन अब यह पेंशन अगले 20-25 वर्ष तक देनी पड़ेगी।
नयी सरकारी व्यवस्था में अब पेंशन का भार कर्मचारियों पर डाल दिया गया है; सरकार अब भी पेंशन के लिए एक सीमा तक योगदान देगी। लेकिन पेंशन की राशि पूर्व निर्धारित एवं सुनिश्चित नहीं होगी। आप पेंशन के लिए जितना योगदान करेंगे (Defined-Contribution Plan), उसी के अनुसार पेंशन मिलेगी।
विश्व के लगभग सभी राष्ट्रों एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में अब पेंशन को Defined-Contribution Plan में डाल दिया गया है। कर्मचारियों को शुरू में ही बतला दिया जाता है कि अगर आप नियमानुसार न्यूनतम योगदान देंगे, तो आजीवन “इतनी” पेंशन मिलेगी। अगर “इतना” बढ़ाएंगे, तो “उतना” मिलेगा। आप की इस पेंशन को शेयर, बांड एवं अन्य वित्तीय संसाधनों में निवेश किया जाता है; बतलाया जाता है कि प्रति तिमाही एवं प्रति वर्ष आपका व्यक्तिगत पेंशन कॉन्ट्रिब्यूशन इतने हज़ार/लाख रुपये/डॉलर/यूरो पहुंच गया तथा रिटायरमेंट के बाद प्रति माह “इतनी” राशि मिलने की आशा है। निजी क्षेत्र में कई वर्षों से यह व्यवस्था लागू है।
अंत में सरकार पर वेतन एवं पेंशन का कितना भार पड़ रहा है?
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2010-11 में राज्य सरकार की राजस्व प्राप्तियों (111183.76 करोड़) का लगभग 64.24 प्रतिशत वेतन (40159.52 करोड़), ब्याज भुगतान (14215.57 करोड़), पेंशन (12617.84 करोड़) और सब्सिडी (4436.97 करोड़) पर खर्च किया गया था, जब अखिलेश सरकार ने नयी पेंशन व्यवस्था को अपना लिया था।
2020-21 में उत्तर प्रदेश द्वारा वेतन, पेंशन, और ब्याज भुगतान पर 2,00,758 करोड़ रुपये का एक्चुअल व्यय हुआ है, जो कि राजस्व प्राप्तियों का 54% है। इस मद पर वर्ष 2021-22 में 61 प्रतिशत व्यय अनुमानित है।
केरल में यह व्यय कुल राजस्व का 70% है।
अतः अगर सरकार को विकास के कार्य करना है; इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना है; शिक्षा एवं स्वास्थ्य में निवेश करना है; कानून-व्यवस्था बनाये रखना है; MSP पर अन्न खरीदना है (MSP खरीद के ऊपर लगभग 40 प्रतिशत अतिरिक्त सरकारी व्यय जुड़ जाता है); खाद पर सब्सिडी देनी है; तो यह स्पष्ट है कि सरकारी सैलरी-पेंशन के बिल में कमी लानी होगी।
नहीं तो हम इनका भार आने वाली पीढ़ी पर ट्रांसफर कर रहे है।

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