“सुनो, तुम हमेशा मेरी गोदी में सिर रखकर क्यूँ लेट जाते हो और फिर कुछ बोलते भी नहीं, बस आँखें मूँदे मुस्कुराते रहते हो।” , सिर में बालों में उंगलियां फिराते हुये उसने पूछा था।
“क्योंकि तुम्हारी गोद में सिर रखकर मैं अपने बचपन में लौट जाता हूँ और मुझे माँ की गोद का सा एहसास होता है”, आँखें खोले बिना उसने जवाब दिया।
“धत, आप भी ना, पूरे पागल हो। उम्र भले ही बढ़ गयी हो दिल और दिमाग से अभी भी बच्चे ही हो।”
“सच कहता हूँ, तुममें मैंने स्त्री के हर रूप को देखा और पाया है और कभी कभी तो जी करता है कि ……. ” वह कहते कहते रुक गया ।
“कि?” उसने पूछा ।
“..यही कि तुम्हारी इस गोद में सिर रखकर सोता रहूँ.. सोता रहूँ और बस हमेशा के लिये सो जाऊँ।”
बालों में घूमती उसकी उंगलियां एकदम रुक गयीं और उसे गोद में से धकेल दिया ।
“क्या हुआ?” उठ कर उसने पूछा।
“एक थप्पड़ लगाऊँगी, अगर फिर कभी ऐसी बात मुँह से निकाली तो ….. “,
इसके आगे वह कुछ बोल ना सकी। उसका गला भर आया, आँखें डबडबा आईं और वह उससे पागलों की तरह लिपट कर रो उठी थी।
वह रीझ उठा उसके प्यार पर, अपने सौभाग्य पर।
पर फिर अचानक….
अचानक न जाने कैसे और क्यूँ एक दिन उसी ने कहा, “तुम्हें पाने के लिये मुझे बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी और उसकी मुझमें हिम्मत नहीं।”
उसके ये शब्द आंधी की तरह उसके विश्वास को झकझोरते, उसके अस्तित्व को उखाड़ते चले गये और बस वह स्तब्ध उसे जाता हुआ देखता रहा और अब……
अब सब कुछ रीत बीत गया था ।
भावों की टकराहट से उसे झटका लगा और वह वर्तमान में लौट आया। उसका ध्यान बाहरी संसार की ओर गया और उसने खुद को उसी पार्क में पाया जहाँ उसकी सबसे मधुर स्मृतियाँ जुड़ीं हुईं थीं।
सड़क के किनारे वही हरसिंगार का पेड़ और उसके नीचे बैंच ….. सामने कदंब का पेड़ और उसके नीचे कृष्ण की वही मूर्ति …
“सब कुछ वैसा ही ..पर फिर भी कितना अनजाना सा ..”उसने गहरी सांस भरी।
वह बोझिल कदमों से चलकर हरसिंगार के पेड़ के नीचे बैंच पर बैठ गया। एकदम अकेला और थका हुआ।
सूनी – सूनी आँखों से सामने से गुजरते दुनियाँ के मेले को वह देख रहा था। इसी जगह पर … इसी हरसिंगार के पेड़ के नीचे …. जहां उसने कभी सुनहरे ख्वाब बुने थे ‘उसके’ साथ।
उसने एक लंबी साँस ली और क्षितिज में सूनी आँखों से देखा।
सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था और सन्नाटा सा छाने लगा। सूर्यास्त का नजारा उसे अपनी नियति सा प्रतीत हो रहा था और अपनी इस नियति पर उसे रोना आ रहा था। पर आँसू भी इंसानी रिश्तों की तरह जैसे उससे बेवफाई कर उठे थे। वे आँसू जो कभी ‘उसके’ बिछड़ने के खयाल भर से आँखों में उमड़ आते थे आज चाहकर भी आँखों में उतर नहीं रहे थे … असहनीय व्यथा से तडपकर उसने झुककर अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लिया।
हर पल जैसे एक युग बनकर गुजर रहा था।
फिर धीरे धीरे साँझ भी ढल आयी। उसने अपना झुका सिर बड़ी कोशिश से ऊपर उठाया और उसकी निगाह हमेशा की तरह सामने मूर्ति पर पड़ी।
कृष्ण की वही मूर्ति और उनकी वही चिरपरिचित मुस्कान ….. और उसे ‘वो मुस्कुराहट’ याद आ गयी जिसे वह अपलक देखकर भी थकता नहीं था।
‘सुर्ख होंठों पर फैली एक मोहिनी’
वह जब भी कृष्ण की इस मूर्ति और उनकी इस मुस्कान को देखता था उसे हमेशा ‘उसकी मुस्कुराहट’ याद आती थी, इसीलिये ध्यान करते समय ‘कृष्ण’ के चेहरे में कब ‘उसका’ प्यारा सा चेहरा घुल मिल जाता, उसे पता ही नहीं लगता था। उसके मन-संसार में शायद कृष्ण और ‘वो ‘ दो अलग नहीं बल्कि एक ही होने लगे थे।
उसने कृष्ण की ओर उलाहने भरी आहत नजरों से देखा, “क्या पाप किया था मैंने? ‘उसे’ एक बच्चे जैसी निष्कलुषता से चाहा। उसी में हर रिश्ते को देखा। यहां तक कि तुम्हारा भी रूप मुझे ‘उसमें ‘ नजर आता था, क्या यही मेरी गलती थी?”
वह जैसे अपनी पीड़ा में तड़प रहा था ।
“कितना विश्वास था कि कोई साथ दे ना दे पर तुम ‘उसके’ रूप में मेरे साथ हो, हर पल …. हर क्षण। पर जब उसने ही मुँह मोड़ लिया तो अब किसी और को क्या कहना क्या सुनना।”
कृष्ण की मूर्ति उसकी स्मृतियों को पूर्ण जीवंतता में जगा रही थी और साथ ही उसकी व्याकुलता भी बढती जा रही थी।
“अगर उसका-मेरा साथ इस जन्म में यहीं तक है तो अब मेरा यहां क्या काम ? एक वही तो थी जो मेरी ताकत थी और उसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। उसने तो मुझे छोड़ दिया पर तुम तो मुझे अकेला मत छोड़ो।”
“मैं अब थक चुका हूँ।”
“मुझे इस व्यथा से मुक्ति दो और अपनी शरण में ले लो।”
प्राणों की पूरी विकलता व व्यथा उसके चेहरे पर छलक उठी और उसका मन आर्त्त स्वर में ‘आखिरी सहारे’ को पुकार उठा।
और ……..तभी उसे अपने पीछे किसी के होने का आभास हुआ। उसने उदास भाव से पलट कर देखा तो चकित रह गया।
‘वो’ पीछे खड़ी थी।
उसे आश्चर्य तो हुआ पर उदासी और नैराश्य का भाव इतना गहरा था कि वो कुछ बोल ही नहीं सका और घूमकर पुनः सिर झुकाकर बैठ रहा।
वह चलकर आगे आई और चुपचाप उसके बगल में बैठ गयी और कुछ क्षण दोनों खामोश बैठे रहे ।
“बहुत नाराज हो?”, उसने मुस्कुराकर पूछा ।
वह पत्थर की तरह निश्चल बना रहा। कुछ पलों बाद उसने फिर पूछा, “मुझसे बात भी नहीं करोगे?”
वह फिर भी खामोश रहा तो उसने अपने हाथों से उसके चेहरे को अपनी ओर घुमाया।
……..वही सम्मोहक मुस्कान ….
वह अब खुद को और नहीं रोक सका। उसका मन भर आया और वह उसे बाँहों में भरकर निःशब्द रो पड़ा।
आंसुओं का रुका हुआ सैलाब बह निकला। हर बूँद में उसकी विछोह की पीड़ा छिपी थी।
जाने कितनी देर तक उसके आंसू बहते रहे। कुछ समय बाद उसके सिर को प्यार से हौले से झुकाकर उसने अपनी गोद में रख लिया और उसके माथे पर बालों में उंगलियां घुमाने लगी।
वही जादुई स्पर्श, पर आज उसे कुछ भिन्न सा लग रहा था। आज उसकी चेतना किसी और ही लोक में पहुंच रही थी। चारों ओर जैसे प्रकाश की उर्मियाँ उठ रहीं थी।
ये सब वास्तविकता है या उसकी चेतना पर हावी उसकी स्मृतियाँ, उसे समझ नहीं आ रहा था पर ऐसा अद्भुत अनुभव तो उसे पहले कभी नहीं हुआ था।
….हरे भरे खेत … और घास का अंतहीन मैदान ….. सुनहरे बादलों की ओट से निकलता सुबह का सूरज ….. चारों ओर भीनी सी सुगंध …… एक अद्भुत असीम आनंद ……. परम शांति का अहसास ……।
और फिर हवा में बांसुरी की मधुर धुन गूँज उठी …वह उस धुन में डूबने लगा, डूबता ही गया और उसकी चेतना जैसे बांसुरी की धुन का हिस्सा बन गयी।
“तुम मेरी मुक्ति का मार्ग हो।”, वह होंठों में बुदबुदाया।
कुछ पलों बाद सूर्यास्त हो गया और चाँद निकल आया।
हरसिंगार के नीचे एक जिस्म पड़ा था। श्वासविहीन, निस्पंद निष्प्राण शरीर पर हरसिंगार के फूल गिर रहे थे।
चांद की रोशनी में उसके गालों पर बहते आंसुओं के निशान चमक रहे थे और कदंब की ओर ताकतीं उसकी अधखुली आँखें कृष्ण के चेहरें पर टिकीं थीं….. किसी को खोजते हुए।
दूर कहीं बांसुरी की धुन गूँज रही थी और ….
…..और कृष्ण मुस्कुरा रहे थे ।

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