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भारत की नौकरशाही नीतियां

Vivek Umarao

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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भारत की नौकरशाही (नीतियां बनाने वाले) के लिए मुख्यतः दो देश आदर्श हैं। चकाचौंध की बात हो तो अमेरिका की नकल उतारना चाहते हैं (कितनी उतार पाते हैं, कैसी उतार पाते हैं या अलग मुद्दा है), देश के लोगों से जुड़ी नीतियों की बात हो तो मुख्यतः चीन की नकल उतारी जाती है, चीन का अनुसरण किया जाता है। मैं समय-समय पर चीन की शिक्षा स्वास्थ्य व अन्य नागरिक व्यवस्थाओं इत्यादि

 

भारत में शिक्षा नीतियां लगातार तेजी से जिस ओर बढ़ रही हैं, वहां देश के लाखों गांवों के करोड़ों छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण उच्चशिक्षा एक कपोल-कल्पना बनती जा रही है। सरकारी संस्थानों को भी इतना अधिक महंगा कर दिया गया है कि वे सामान्य आर्थिक स्थिति के परिवारों के लिए असंभव सा होता जा रहा है।

सरकारी विद्यालयों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता बड़े शहरों के महंगे विद्यालयों की तुलना में बहुत-बहुत अधिक खराब है। 12वीं के बाद जब प्रतिस्पर्धा की बात आती है तब अधिकतर बच्चे मेधावी होते हुए भी कम्पटीटिव परीक्षाओं में मात खा जाते हैं। उनका एक्सपोजर नहीं होता है, उनकी कम्पटीशन के संदर्भ में समझ नहीं होती है, उनका प्रस्तुतीकरण नहीं हो पाता है।
लगातार ऐसी नीतियां बन रही हैं कि गुणवत्तापूर्ण उच्चशिक्षा ग्रामीण क्षेत्रों के सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि के परिवारों के बच्चों की पहुंच से लगभग पूरी तरह से बाहर होती जा रही है। चीन में ऐसा पहले से है, भारत भी अब इस मामले में भी चीन का अनुसरण कर रहा है। भारत व चीन की शिक्षा व्यवस्था के चरित्र में कुछ खास अंतर नहीं है।
अब आते हैं चीन पर।
कायदे से लगभग 73 वर्ष तक निरंकुश साम्यवादी शासन हो चुकने के बाद, चीन यदि वास्तव में फर्जी साम्यवादी देश न होकर वास्तविक साम्यवादी देश है तो हर व्यक्ति के पास समान स्तर की न्यूनतम नागरिक सुविधाएं तो पहुंच ही जानी चाहिए थीं, यही तो साम्यवाद की ओर बढ़ने का प्रथम चरण है। 73 वर्षों के निरंकुश तानाशाही शासन करने के बावजूद चीन की अधिसंख्य जनसंख्या समान स्तर की नागरिक सुविधाओं से वंचित हैं जबकि कुछ प्रतिशत लोग ऐश्वर्य का भोग करते हैं (इतना अधिक डिस्क्रिमिनेशन तो पूंजीपति व साम्राज्यवादी राक्षसों के रूप में प्रायोजित योरप के देशों व अमेरिका में भी नहीं है, बहुत कम है, अमेरिका में तो है भी, योरप में तो बहुत बहुत बहुत कम है)। तथाकथित साम्यवाद शब्द का प्रयोग क्या केवल निरंकुश सत्ता भोगते रहने के लिए ब्रेनवाश का औजार है। क्योंकि वास्तविक चरित्र तो पूंजीवाद व साम्राज्यवाद का ही है। खैर इस बात को यहीं छोड़ते हैं।
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चीन में लगभग डेढ़-दो दशक पहले 9वीं कक्षा तक पढ़ाई कम्पलसरी कर दी गई, सरकारी स्कूलों में मुफ्त भी (फीस नहीं लेकिन कुछ थोड़ा बहुत देना पड़ भी जाता है)। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों की शिक्षा गुणवत्ता बहुत खराब है। इसलिए बहुत बच्चे यह सोचकर कि हम आगे पढ़कर कुछ खास कर ही नहीं पाएंगे, इसलिए 9वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं।
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10वीं से 12वीं तक सीनियर सेकेंडरी की तीन साल की स्कूलिंग मुफ्त नहीं है। उच्चशिक्षा छोड़िए, बहुत बच्चों के परिवारों की इतनी आय तक नहीं होती कि सीनियर सेकेंडरी स्कूलिंग का भी खर्च उठा सकें, इसलिए भी बहुत बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं।
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शिक्षा की गुणवत्ता खराब होने के कारण, जो बच्चे सीनियर सेकेंडरी की स्कूलिंग कर भी लेते हैं, उनमें से अधिकतर बच्चों का वह स्तर ही नहीं हो पाता है कि वे चीन के अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रवेश करने की परीक्षाओं में स्थान पा सकें। अच्छे विश्वविद्यालयों की बात तो बहुत दूर, स्थानीय शहरों के विश्वविद्यालयों तक में नहीं हो पाता है।
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चीन के शहरी क्षेत्रों व ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत भारी भेदभाव रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइमरी के पहले प्रि-प्राइमरी की हालत तो बहुत ही अधिक दयनीय रहती है, जबकि शहरों में अच्छी है। ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में शिक्षक व छात्र का अनुपात खराब है, जबकि शहरों में ठीक रहता है।
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चीन में भी भारत के जैसे ही अनगिनत कोचिंग्स की दुकानें होती हैं। जिनमें लड़कों को अच्छे संस्थानों में प्रवेश के सपने दिखाने के नाम पर भारी भरकम फीस वसूली जाती है। चीन के जो सर्वोच्च संस्थान हैं उनमें अधिकतर छात्र चीन के कुछ चुनिंदा शहरी इलाकों से ही आते हैं।
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चीन में प्राइवेट यूनिवर्सिटियों की संख्या सैकड़ों में है। भारत में प्राइवेट यूनिवर्सिटियों की शुरुआत चीन में प्राइवेट यूनिवर्सिटियों की शुरुआत के बाद हुई। भारत को अमेरिका व चीन जैसे पूंजीवादी व साम्राज्यवादी देशों का अंधा अनुसरण नहीं करना चाहिए। भारत में उच्चशिक्षा को मुफ्त जैसा होना चाहिए, जैसे कि योरप के विकसित देशों में व्यवस्था है। हर एक जिले में बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले IIT, IIM, JNU, AIIMS होने चाहिए (केवल नाम के नहीं, गुणवत्ता वाले)।

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