Home राजनीति माना कि धर्म अफीम है लेकिन यह पाखंडी मानदंड क्या है

माना कि धर्म अफीम है लेकिन यह पाखंडी मानदंड क्या है

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हिंदी के मार्क्सवादी लेखक और जे एन यू में प्रोफेसर रहे मैनेजर पांडेय के पूजा पाठ की एक फ़ोटो फ़ेसबुक पर विमर्श का बढ़िया माध्यम बनी थी। बहुत से मित्रों सहित मैंने भी अपनी वाल पर यह फ़ोटो शेयर की थी । इस बहाने अपनी वाल पर और अन्य मित्रों की वाल पर भी बहुत से मित्रों की टिप्पणियां पढ़ीं । कईयों के घायल , विकृत और जिद्दी चेहरे सामने आए , उन का अंतर्विरोध और उन के मन का दुचित्ता पाठ भी । पढ़ कर समझ में आ गया कि हिंदी साहित्य की इतनी दुर्दशा क्यों है । इतना अपठनीय क्यों है हिंदी साहित्य और पाठकों से कटा हुआ क्यों है । हिप्पोक्रेसी का मारा यह हिंदी लेखक जड़ों से इस तरह कट कर लिखेगा भी क्या । ऐसे तमाम लेखकों को जानता हूं जो दुनिया भर का सेक्यूलरिज्म और दलित फलित बघारते फिरते हैं । क्रांति और सामाजिक बदलाव की चिंगारी उगलते फिरते हैं । गोया ज्वालामुखी का ढेर हों । लेकिन जब बच्चों की शादी करनी होती है तो अपनी ही जाति खोजते हैं । सवर्ण ही खोजते हैं । दहेज भी खोजते हैं । अगर बच्चों की सुविधा से अंतरजातीय विवाह भी करते हैं बच्चों का तो अपने से अपर कास्ट में । अपने से छोटी जाति , दलित या मुस्लिम में नहीं । अंतर्विरोध बहुत है , हिप्पोक्रेसी बहुत है अपने लेखक समाज में भी ।
बताना चाहता हूं कि हिंदी में ही नहीं भारतीय भाषाओं के तमाम लेखक इसी हिप्पोक्रेसी के शिकार हैं । कहते कुछ हैं , लिखते कुछ हैं , करते कुछ हैं । मैं यहां विभिन्न भारतीय भाषाओं के कुछ लेखकों का ज़िक्र करना चाहता हूं । कन्नड़ भाषा के यू एस अनंतमूर्ति जो संस्कार उपन्यास के लिए जाने जाते हैं । संस्कार उपन्यास में उन्हों ने श्रेष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी वैदिक संस्कारों की जम कर धज्जियां उडाई हैं । लेकिन कितने लोग जानते हैं कि इस संस्कार उपन्यास के लोकप्रिय होने के बाद भी यही यू एस अनंतमूर्ति बिहार और झारखंड के बार्डर पर फाल्गु नदी के तट पर स्थित गया जा कर अपने पुरखों का पिंडदान भी करने गए थे । इसी तरह दुर्दांत मार्क्सवादी लेखक विशंभरनाथ उपाध्याय भी गया अपने पुरखों का पिंडदान करने गए थे ।
राजेंद्र यादव ने अपनी वसीयत में सब कुछ लिखा था लेकिन अपने अंतिम संस्कार के बाबत कुछ नहीं लिखा था । राजेंद्र यादव का अंतिम संस्कार वैदिक मंत्रों के साथ किया गया । नामवर सिंह ने भी अपनी पत्नी का अंतिम संस्कार न सिर्फ़ वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ किया बल्कि उन की अस्थियां भी वह काशी ले कर गए और मंत्रों के साथ ही प्रवाहित किया । ऐसे ही तमाम ख्यातिलब्ध लेखकों के तमाम किस्से हैं जो लोग जानते हैं । बहुत से कामरेड दोस्तों को मैं जानता हूं कि मंच पर अपने भाषणों में वैदिक संस्कारों में , धर्म में , पूजा-पाठ में आग लगा देते हैं लेकिन अपने घर में पूजा-पाठ , घंटी बजा-बजा कर आरती-भजन भी रोज करते हैं । लखनऊ में एक दलित अध्यापक कालीचरण स्नेही हैं , वह आग नहीं लगाते बम फोड़ते हैं मंचों पर धर्म को ले कर । इतना कि कई बार पिटते-पिटते बचते हैं । लेकिन मौका मिलते ही मंदिरों में लाइन लगा कर , मत्था टेक कर दर्शन करते हैं । पुरी के मंदिर का इन का एक किस्सा बहुत मशहूर है । उर्दू के तमाम लेखकों और शायरों को मैं जानता हूं जो कम्युनिस्ट हैं और हज भी बहुत अरमान और शान से गए हैं । अपनी हज यात्रा की फोटुवें भी खूब खिंचवाई हैं । उन के यहां तो कोई बखेड़ा नहीं होता कभी । लेकिन मैनेजर पांडेय पर बखेड़ा हो गया है । रमजान उन के यहां पवित्र है , लेकिन नवरात्र आदि यहां पाखंड है । यह कौन सा पाखंडी मानदंड है दोस्तों । माना कि धर्म अफीम है लेकिन यह पाखंडी मानदंड क्या है । फिर तो अगर यह कुतर्क इसी तरह परवान चढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं कि लोग अपने पिता से अपना डी एन ए मैच करते फिरेंगे । अपने बच्चों का भी ।
मैं उन दिनों दिल्ली में नया-नया था । 1981 की बात है । फ़िराक साहब एम्स में भर्ती थे । अंतिम समय में थे । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी के साथ उन्हें देखने मैं भी एक बार गया था । सर्वेश्वर जी का हाथ पकड़ कर फ़िराक साहब अचानक कहने लगे , सर्वेश्वर देखना मैं हिंदू हूं , कहीं लोग मुझे मुसलमान समझ कर दफना न दें ! और सर्वेश्वर जी बहुत भावुक हो कर उन्हें यकीन दिला रहे थे कि चिंता मत करें , आप को दफनाया नहीं जाएगा । सोचिए कि फ़िराक जैसे कालजयी शायर की आखिरी चिंता अपने हिंदू होने की थी । और अपना लेखक समाज अपने हिंदू होने को अब गाली होने की तरह पेश करने लगा है । यह नई सनक और नया फैशन है । जो ऐसा नहीं करता , वह सांप्रदायिक है , संघी है । यह और ऐसे बेशुमार किस्से हैं। यह ठीक है कि आप धर्म और कर्मकांड को मत मानिए , हिंदू भी मत रहिए , काट डालिए अपनी जड़ और अपनी पहचान । यह आप का व्यक्तिगत है लेकिन किसी और की आस्था पर चोट नहीं कीजिए । कुलबर्गी की तरह मूर्तियों पर पेशाब कर उस पेशाब का बखान भी लिख कर मत कीजिए । यह क्या कि सार्वजनिक जीवन में कुछ , व्यावहारिक जीवन में कुछ । अगर घर में पूजा करते हैं तो मंच पर इस पूजा – पाठ को ले कर गाली गलौज कैसे कर लेते हैं आप । आप निजी जीवन में , परिवार में , परिवार के दबाव में जो चाहे कीजिए , न कीजिए यह आप का अपना फ़ैसला है । पर अपने शौक और सनक के लिए समाज में जहर तो मत घोलिए । मेरा कहना सिर्फ़ इतना है कि पाखंड का विरोध ज़रुरी है , चौतरफा विरोध कीजिए लेकिन इस पाखंड विरोध के नाम पर नया पाखंड करने से , हिप्पोक्रेसी से बचिए । ज़रूर बचिए ।

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