मुझे कई साल पहले ब्रह्मज्ञान हो गया था |
ईस्वी सन मत पूछिएगा। बहुत पुरानी बात है। तब ही मैंने घोषणा की थी कि पत्रकारिता नाम के संस्थान की मौत हो चुकी है और अब इन इमारतों में दो ही किस्म के लोग काम करते हैं। कौन सी किस्में मत पूछिएगा, बात इधर-उधर चली जाएगी।
अस्तु, विषय पर लौटते हैं। उसी समय से मैंने पत्रकारिता पर आह-कराह भरनी छोड़ दी, पत्रकारिता का पतनकाल-स्वर्णिम काल सरीखे सेमिनार सरीखे विषयों में भी हिस्सेदारी बंद कर दी। अभी हालांकि, कुछ सूचनाएं मिलीं तो सोचा साझा कर दूं।
बहार प्रदेश, जिसके मालिक तुगलक कुमार हैं, का हाल गजब है। यहां अखबारों में यह तक लिखना मना हो गया है कि ‘सीएम का पुतला फूंका’…(चचा तुगलक के नाम का उल्लेख तो खैर बड़ी बात हो गयी)। मने ऐसी खबर भी मांसाहारी हो गयी है। वह भी बदलकर “सरकार का पुतला फूंका” बन जाती है। हमारे वामपंथी मित्र मोदीजीवा को ‘मेगालोमैनिएक’ कहते हैं। तुगलक कुमार किस खाते में आएंगे?
संकट खैर अंतरराष्ट्रीय लेवल का है। पता चला है कि आजकल अखबार ग्राहकों को बांटने के बदले सीधे कबाड़ीवाले को दे दिए जा रहे हैं। मने, प्रेस से आए..सीधे कबाड़खाने। इसमें ज्यादा फायदा हो रहा है। अब ये पहले से हो रहा हो तो मुझे नहीं पता। मुझे तो अभी ही इसकी जानकारी मिली है। तो, हो ये रहा है कि बंडल के बंडल अखबार सीधे कबाड़ी के पास जाते हैं। अखबार का प्रबंधन भी इस बात को जान रहा है, लेकिन वह न तो संख्या कम कर रहा है, न ही उस व्यक्ति पर नकेल डाल रहा है। वजह, उसे पटना में विज्ञापन लेने के लिए अपनी संख्या बढ़ाकर जो दिखाना है, फिर सालाना अपने नंबर वन होने का ढिंढोरा भी पीटना है।
इतना ही नहीं, अभी तो नेपाल से सटे इलाकों में सीधा ट्रक के ट्रक अखबार नेपाल भी जा रहे हैं। वहां जारी आर्थिक संकट के बीच अखबार छपने (कई) बंद या कम हो गए हैं। ऊपर से अभी आम का सीजन भी आ रहा है। तो, भाई लोग सीधा चोखा पैसा कमा रहे हैं।
तो साधो, कहना यही था।
कलेश न करो।
काहे का अखबार, काहे की पत्रकारिता, काहे का मिशन और काहे का सरोकार।
आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक के सोइए।
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।
(मैं केवल ये सोचता हूं कि जब अखबार की ऐसी दुर्दशा है, तो एंटरटेनमेंट चैनल्स और डिजिटल माध्यम का क्या होगा, हवाल?)