Home विषयजाति धर्म मैं किसी बन्धन को नहीं जानता | प्रारब्ध

मैं किसी बन्धन को नहीं जानता | प्रारब्ध

लेखक - त्रिलोचन नाथ तिवारी

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न मे बन्धो न मे मुक्तिर्न मे शास्त्रं न मे गुरुः।
मायामात्रविकासत्वान्मायातीतोऽहमद्वयः।।
न मैं किसी बन्धन को जानता हूँ, न ही मुझे किसी मुक्ति का लोभ है, न ही मुझे कोई शास्त्र ज्ञात हैं और न ही मेरा कोई गुरु है। ये सभी तो माया के विकास मात्र हैं किन्तु मैं इस माया से परे अद्वैतरूप हूँ।
सत्य है कि आत्मबोधोपनिषद् का यह श्लोक मुझ जैसे माया-जल में तैरते लघु – मत्स्य हेतु नहीं है जो माया में ही जीता है और माया में ही ऊभ-चूभ होता हुआ उसी माया रस का निरन्तर पान करता है। यह श्लोक तो किसी मायामुक्त परमहंस हेतु ही सत्य है जो माया को जीत चुका हो।
किन्तु यह श्लोक माया के अखाड़े में खड़े होकर माया को ही नित्य चुनौती देने वाले के लिये सम्बल अवश्य है।
मेरा भी अद्वैत तो है! किन्तु माया से परे नहीं, माया के ही साथ!
इसी माया-उदधि के मध्य जीते और इसी माया-वारि को छक कर पीते मुझे सदा यह प्रतीत होता है कि स्नेह ही मेरा बन्धन है, स्नेह ही मेरी मुक्ति, स्नेह ही मेरा शास्त्र, स्नेह ही मेरा गुरु, और इस स्नेह की माया से मैं इतना घुल-मिल गया हूँ कि इस स्नेह-माया से ही मेरा अद्वैत है। और तब, मैं इस माया के अखाड़े में खड़ा, इसी माया को, इसी के स्नेह के बल पर चुनौतियाँ देने लगता हूँ।
यह माया का स्नेहिल स्पर्श ही मुझे वह सब स्पर्श करने का दुस्साहस करने को विवश करता है जिसे स्पर्श करना तो क्या, जिसके सम्बंध में सोचने का भी मैं अधिकारी नहीं हूँ।
आज पृथ्वी दिवस है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त के पारायण का दिन।
शिला भूमिरश्मा॑ पांसु: सा भूमि: संधृ॑ता धृता। तस्यै हिर॑ण्यवक्षसे पृथिव्या अ॑करं नम॑:॥
जो पृथ्वी शिला, भूमि, पाषाण तथा धूलिकणों को धारण करती है उस हिरण्यवक्षा पृथ्वी को मैं प्रणाम करता हूँ।
(अथर्ववेद, काण्ड १२, अध्याय १, पृथ्वी सूक्त मंत्र/ऋचा २६)
किन्तु माया तो कुछ और सोच कर बैठी है।
अनन्त काल के क्रोड़ में खेलते ग्रहों, नक्षत्रों, ताराओं, नीहारिकाओं, धूमकेतुओं के साथ खेलती, नाचती, झूमती और सूर्य से नेह-सूत्र में बँधी घूमती, भूत और भविष्य के सभी जीवों की पालनकर्त्री हमारी पृथ्वी, हमारी धरती माता, काल के कारण-रूप पिता सूर्य के साथ काल की क्रीड़ाओं में नित्य सहभागी है। अव्यक्त महाकाल की अधिष्ठात्री महाकाली का एक प्रतिरूप हमारी यह पृथ्वी भी है जो उस अव्यक्त महाकाल को अपनी भंगिमाओं द्वारा व्यक्त करती है।
तांत्रिकों की भाषा रहस्यवादियों एवं तत्त्वदर्शियों की भाषा से भिन्न होती है, योगियों की भाषा इन तीनों से भिन्न होती है, गणितज्ञों एवं वैज्ञानिकों की भाषा इन पूर्व चारो से भिन्न होती है किन्तु साहित्य की भाषा तो इन सभी से भिन्न होते हुए भी इन सबका समन्वय होती है।
साधना के क्षेत्र में बीजमंत्रों का अपना विशिष्ट महत्व है और बीजमंत्रों में प्रमुख आदि बीज हैं – ऐं, ह्रीं, श्रीं और क्लीं। ऐं अग्नितत्व वाला बीज है। यह वाक् या वाणी का प्रतिनिधि बीज है। इस बीज से सरस्वती की, वाणी की सिद्धि होती है। यह महासरस्वती के प्रीत्यर्थ प्रयुक्त होता है। अग्नि से, तेज से वाक् की और वाक् से ज्ञान की उपलब्धि होती है।
ह्रीं और श्रीं दोनों बीज व्योमतत्व वाले हैं। ह्रीं भुवनेश्वरी के और श्रीं महालक्ष्मी के प्रीत्यर्थ प्रयुक्त होता है। ह्रीं मायाबीज है और श्रीं ऐश्वर्य बीज!
किन्तु क्लीं पृथ्वीतत्व का बीजमंत्र है। शक्ति-उपासना में यही बीज काली – तत्व का भी प्रतिनिधि है और यही काम – तत्व का भी।
रहस्यदर्शियों ने क्लीं बीज को पृथ्वी तत्व और काली तत्व से अनायास ही नहीं जोड़ा है। हमारी पृथ्वी एक प्रकार से काली-तत्व की भी प्रतिनिधि है (और एक अन्य प्रकार से काम तत्व की भी)। काली है काल की अधिष्ठात्री, पृथ्वी है काल के कलन का माध्यम। क्लीं बीज ‘क’कार, ‘ल’कार और बिन्दु रूप ‘म’कार के संयोग का फलन है।
क्लीं का ‘क’ वर्ण है काम, जल, प्राण और मुख का द्योतक। जल से प्राण है, जिसका स्थूल रूप वायु है क्योंकि वायु नहीं तो जल नहीं, जल नहीं तो वायु नहीं, और वायु या जल न हों तो प्राण ही नहीं।
क्लीं का ‘ल’ वर्ण साक्षात पृथ्वी का ही द्योतक है। पृथ्वी देती है अन्न और अन्न से ही बनता है मन।
और क्लीं में बिन्दु रूप ‘म’कार इन दोनों जल तत्व और धरा तत्व का वेधन करके दोनों को संयुक्त करता है और तब मन तथा प्राण का विकास होता है। अतः हमारी यह धरा, यह धरित्री, यह धात्री भी क्लीं द्वारा व्यक्त होने वाली है, काली है, महाकाली है।
और प्रणव है महाकाल का बीजमंत्र! चतुर्मात्रात्मक ॐ कार महाकाल का प्रतिनिधि है, ब्रह्म का स्वरूप है। यही सवितृ बीज भी है। गायत्री मंत्र वास्तव में सवितृ बीज ॐ का ही विस्तार है। अतः सविता या सूर्य ही प्रकारांतर से महाकाल की भूमिका का निर्वाह करता है। त्रिलोचन महाकाल के तीन नेत्र सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि ही कल्पित किये गये हैं।
बहुधा यह उपदेश दिया-लिया जाता है कि अहं निकृष्ट है, त्याज्य है किन्तु शब्द अहं प्रत्यक्ष शिवतत्त्व है जो विश्वाकार हो कर विश्व का कर्ता, भर्ता और हर्ता होता है। उस अकृत्रिम अहं भाव की स्फुरणा में किसी अन्य भाव या भिन्न वस्तु का बोध सम्भव नहीं, सिवा इदं भाव के। अहं अर्थात् मैं, और इदं अर्थात् यह, दोनों ही युगपद हैं। अहं वह निकृष्ट है जिसमें इदं न हो, और अकृत्रिम अहं, इदं से विच्छिन्न होता ही नहीं। अहं से तात्पर्य अ हं से भी है। जो बिना हं का हो वही अहं है। किन्तु बिना हं के तो विशुद्ध शिव तत्व भी शव बन जाता है, निष्क्रिय, निश्चेष्ट! इस शव को क्रियमाण करती है शक्ति और विशुद्ध शक्ति तत्व है सः! और हं तथा सः के योगनद्ध होने से बनता है हंसः! यह एक पूर्ण बीज है जिसे प्रेत बीज कहते हैं। प्रेत – प्र इत – प्रकर्ष रूप से घटित हुआ! यह शिव-शक्ति की महा-सुषुप्ति का द्योतक है। सुषुप्ति का विलोम है जागरण अतः हंसः का विलोम है सोऽहं!
सोऽहं! सो अहं! और सोऽहं अर्थात् वही हूँ मैं! दैट्स एम आई! इस सोऽहं से यदि स और ह को अलग कर दें तो बचता है ॐ! है न अहं रोचक? श्लाघ्य? वरणीय? कैसे छोड़ दूँ भाई? इस माया-महोदधि में यदि इस अहं का साथ छूटा तो मेरा मैं मुझे फिर खोजे नहीं मिलेगा। यह अहं है, तो सोऽहं की सम्भावना है। अहं के जाते ही सोऽहं की सम्भावना चली जायेगी। और संभावनाओं को सहेजना पड़ता है, संजोना पड़ता है, जोगाना पड़ता है, उन्हें त्यागा नहीं जाता। मैं सोऽहं हो सकने की सम्भावना को नहीं त्याग सकता अतः मैं अपने अहं को नहीं त्याग सकता।
अरे! आज तो बैशाखी अमावस्या भी है। चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य के स्थिति-विशेष का नाम है अमावस्या। चन्द्रमा मनसो जातः। पृथ्वी से अन्न, अन्न से मन और मन से चन्द्रमा। जिस शिव पर महाकाल का आरोप किया गया है उस शिव-महाकाल के भाल पर बालरूप मयंक की कल्पना भी कोई ऐसे ही नहीं है। काल के भाल पर तिथियों का चन्दन यह चन्द्र ही तो चर्चित करता है!
साधारण वार्ता में साहित्य की और साहित्य में रहस्यवाद की या विज्ञान की या तत्वदर्शन की भाषा? कर रहा हूँ न दुस्साहस?
क्या करूँ? यह क्लीं बीज है ही दुस्साहसी बनाने वाला। काली के चरणों में एक बार सर्वात्मना शिशु भाव से शीश नवा देने वाला, धरित्री की धूलि में एक बार शिशु रूप में छैला कर लोट जाने वाला सबसे बड़ा दुस्साहसी होता है क्योंकि तब उसके भीतर न कुछ पा लेने की आकाङ्क्षा ही रह जाती है, न कुछ खो देने का भय ही रह जाता है।
मघा के सौजन्य से मेरे ऐसे ही एक दुस्साहस का साक्ष्य, काल-तत्व सूर्य और काली-तत्व पृथ्वी के स्नेह-बन्धन के कुछेक आयामों के स्पर्श की लोलुपता भरे दुस्साहस का साक्ष्य है यह लेख, कलन और ललन का घमन्जा, इस भावना के साथ कि – इदं लोकाय, इदन्न मम। और आप सभी से इस प्रार्थना के साथ कि – क्षमहु नाथ सब अवगुन मोरे!
लेख के उत्प्रेरक थे मेरे परम सुहृद मित्र श्री सनातन कालयात्री जी और मित्र शब्द सूर्य का ही पर्याय है। द्वादश आदित्यों में कनिष्ठ, सूर्य या विवस्वान का ही एक नाम है मित्र! वही सूर्य विष्णु भी हैं, पृथ्वी के पति, पृथ्वी के आकर्षण का केंद्र! यही कारण है कि पृथ्वी का भार हरण करने श्री विष्णु को बारम्बार पृथ्वी पर आना होगा! आना ही होगा!
लेख को विविध चित्रों से सज्जित करने का श्रेय मघा के सम्पादक मण्डल को जाता है जिस हेतु मैं हृदय से आभारी हूँ।
[
22 अप्रैल 2020 को मघा में प्रकाशित आलेख, और तद् दिन लिखित यह भूमिका, जिस दिन संयोगात् बैशाखी अमावस्या भी थी।
अनन्त की यात्रा को प्रस्थान कर चुके उस सनातन कालयात्री की सनातन यात्रा कहीं न कहीं चल ही रही होगी। किन्तु मेरी यात्रा अब थम चुकी है।
मेरे पास तो शेष हैं मात्र उस यात्री के साथ कुछ दिनों तक की गयी यात्राओं की सुधियाँ एवं उनके आग्रह पर मेरे द्वारा ललित शैली में लिखे कतिपय निबन्ध और उनकी भूमिका में लिखी कुछ पंक्तियाँ।
सुभ सीतल मंद सुगंध समीर
कछू छल छंद सो छ् वै गये हैं।
पदमाकर चांदनी चंदहु के
कछु औरहिं द्वारन च्वै गये हैं।
मनमोहन सौं बिछुरे इतही
बनि के न अबै दिन द्वै गये हैं।
सखि वे हम वे तुम वेई बने,
पै कछू के कछू मन ह्वै गये हैं।।
]
यथा योग्यं, तथा कुरु!

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