नए खुले लूलू हाइपर मार्ट में बहुत सारे ऐसे आइटम हैं जिन पर मुझे बिग क्वेस्चन मार्क था कि ये भारत में कहाँ चलेंगे. सबसे मेन ये कि उनका बक लावा का लाइव काउंटर है. मुझे सदैव यही लगता है कि लखनऊ जहां सबेरे गर्मा गर्म जलेबी हों शाम को इमरती हो, रात को रबड़ी हो, मंगल को बेसन लड्डू हो, छेना हो, बर्फ़ी हो, रसगुल्ला हो, सब कुछ इतना लाइव कि कड़ाही से निकलता मिलता है, वहाँ काउंटर पर सजी विदेशी मिठाइयाँ कौन ख़रीदेगा?
कल देखा कि बकलावा काउंटर पर सबसे ज़्यादा भीड़. दो बिल्कुल गाँव से घूमने आए सज्जन आपस में बात कर रहे थे, किसी रिश्तेदार के घर जाना था, कह रहे थे बाहर से घी के लड्डू भी लेंगे छः सौ रुपए के पड़ेंगे, इधर से ढाई सौ रुपए में डब्बा भर विदेशी मिठाई. इमप्रेसन अलग पड़ेगा. दो मुल्ला जी खड़े थे वह शायद मिडिल ईस्ट में रहे हैं. बकलावा के गुणगान कर रहे थे. भरपूर प्रोटीन वाली मिठाई है, केवल और केवल प्रोटीन. भारतीय मिठाइयों में सिर्फ़ शक्कर होती है, टर्किश मिठाइयों में प्रोटीन होता है.
तीन चार जोमेटो डिलीवरी boy थे. उनका अपना लाजिक था. दस बारह पीस ख़रीद रहे थे. डेढ़ सौ रुपए टोटल में चार लोगों के लिए दिन भर कुछ न कुछ खाने का और एनर्जेटिक रहने का सस्ता इंतज़ाम है. दो बातें स्पष्ट दिखीं. एक कि भारत में व्यापार करने के लिए सस्ता होना बहुत ज़रूरी है. माल भले ही कुछ भी हो, हम तारीफ़ अपने आप निकाल लेंगे. जो रिटेलर इस ऐंगल से कार्य करेंगे वही सफल होंगे बाक़ी बंद हो जाएँगे. दूसरा यह कि विदेशी चीज़ सस्ते दाम पर हो तो हम उसमें सौ खूबियाँ अलग निकाल देंगे.
नोट: विदेशी आइटम को हम देसी कैसे बना देते हैं, सबसे बड़ा उदाहरण समोसा है. देखिएगा बस दस साल में नुक्कड़ की हलवाई की दुकान में फ़्रेश कड़ाही से निकला बकलावा पाँच रुपया पीस मिलेगा