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शेरदिल-द पीलीभीत सागा फिल्म समीक्षा

ओम लवानिया

by ओम लवानिया
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शेरदिल-द पीलीभीत सागा! अच्छे कंटेंट को बेहद सुस्त व धीमा स्क्रीन प्ले हाथ लगा है।

 

लेखक श्रीजीत मुखर्जी और सुदीप निगम ने 2017 की पीलीभीत टाइगर रिजर्व की असल घटना को उठाकर 70एमएम पर लाने की कोशिश की है। प्लॉट कागज पर काफ़ी सॉलिड है लेकिन स्क्रीन प्रिजेंटेशन में डब्बा गोल है।
कहानी झुन्डाव गाँव से होकर गुजरती है और सरपंच गंगा राम को साथ लेकर सरकारी दफ्तर पहुँचती है। जहाँ गाँव की शिकायतें बतलाई जाती है कि भूख से मौतें, जंगली जानवरों का फसलों पर हमला आदि। सरकारी ऑफिस से कोई ठोस जबाव न मिलता देख, सरपंच गंगा राम समस्या को सुझाने की रणनीति बनाते है….आगे क्या रणनीति है खुद देखिए।
स्क्रीन प्ले को डायलॉग भी सपाट या कहे नार्मल मिले है। सटायर अवश्य है लेकिन पैनापन मिस है। पंकज त्रिपाठी ने गंगा राम के साथ मिलकर पूरी फिल्म को संभाला है, डायलॉग में इम्प्रोवाइजेशन, हाव-भाव और कॉमिक टाइमिंग से कुछ हद तक डायलॉग की कमी को दूर करने की कोशिश करते दिखाई दिए है।
कोर्ट रूम डाइलॉग बाजी में पंकज ने पूरी क्षमता के साथ दर्शा दिया है कि वे किस लेवल के कलाकार है और उनकी यूएसपी क्या है। अपने स्क्रीन प्रिजेंस में अद्भुत है अद्भुत…बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ी है। क्योंकि जमीन से जुड़े कलाकार है तो गंगाराम को नॉर्मल ही पकड़ लिए है।
नीरज काबी कहानी में खुद को तलाशते नजर आए है। हालांकि ज्यादा स्क्रीन स्पेस न मिला। सयानी गुप्ता को कुछ हाथ न लगा है। स्क्रीन पर अवश्य है लेकिन ख़ास न रही।
बाक़ी अन्य कलाकारों ने ठीक कर लिया है। सरकारी दफ्तर में थोड़ा कॉमिक रहा, लेकिन वहाँ भी पंकज रहे।
शांतनु मोइत्रा ने कहानी के अनुरूप अच्छा स्कोर व संगीत तैयार किया है। अक्सर ऐसी कहानियों में बीजीएम का महत्वपूर्ण रोल होता है दर्शक इसके सहारे ही भावों से कनेक्ट होते है। संगीत भी बढ़िया है। केके का गीत पानी धूप बहने दे सुनाई दिया।
तियांश सेन की सिनेमेटोग्राफी उम्दा है। प्रकृति की खूबसूरती को काफ़ी अच्छे से कैद करके दर्शकों के सामने छोड़ा है। जंगल के सीक्वेंस मोह लेते है।
लगता है प्रोनोय दासगुप्ता बाघ के डर से कैंची का उपयोग करना भूल बैठे। दर्शकों का मन ही मन पूछ रहे कहाँ है बाघ….120 मिनट को बेहतर किया जा सकता था। कहते है अच्छी एडिटिंग कंटेंट को कुछ एज अवश्य दे जाती है। यक़ीनन स्क्रीन प्ले कमज़ोर कड़ी है लेकिन कैंची कुछ तो सहयोग करती।
पंकज त्रिपाठी के लिए देखे, उनकी फिल्म है और उन्होंने कतई निराश न किया है बल्कि बढ़कर करके निकले है। मुझे नीरज काबी से ज्यादा उम्मीदें थी। लेकिन वे खुद कहानी में खुद को खोज रहे थे।

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