Home मधुलिका यादव शची शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता

शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता

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किसी भी जाति, समूह , लिंग को अत्यधिक चढ़ा बढ़ाकर पीड़ित दिखाना यह एक लेखक बनने का गुण हो गया है जिसके कारण शोषित कब प्रचंड शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता…..शोषक होने बाद भी वो शोषित का नेम प्लेट लगा कर घूमता है।
प्रयागराज मिर्जापुर रोड की बात है, यूँ कह सकते हैं कि सिटी से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर, एक महिला जो करीब 50 से अधिक उम्र की रही होगी एक लाठी लेकर अपने बच्चों के साथ खूब ललकार रही थी सड़क के दूसरे तरफ के लोगों को, दूसरी तरफ की महिलाएं भी ठीक यही कर रही थी। दोनों तरफ से भद्दी भद्दी गालियों की बौछार हो रही थी।ईंट पत्थर चल रहे थे,
एक पुरुष को महिलाएं पकड़ती हैं और उसपर बड़े बड़े पत्थरों से वार करने लगती हैं, मतलब यह भी नहीं सोच रही थी कि आदमी मर जायेगा तो क्या होगा….?
मुझे ही यह सब देखकर पुलिस को कॉल करना पड़ा ..!
अभी तक शहर गांव क्षेत्र की अधिकतर बुजुर्ग या 50 से पार कई महिलाओं को देखी हूँ जो पूरे घर पर अपना प्रभाव जमाये हुई हैं, पति को ससुर को, ज्येठ को कुछ भी कहने में समर्थ हैं….
फिर समझ नहीं आता कि पूरा स्त्री समुदाय पीड़ित कैसे हो गया..?
या फिर अधिकतर स्त्रियाँ अपनी ऊर्जा का प्रयोग सही दिशा में नहीं करती ..?
या फिर चंद पीड़ित महिलाओं की कहानियों के बल पर एक स्त्री समुदाय अपने सारे गुनाह छिपा लेना चाहता है…?
क्यों आज तक समाज की ठीक से समीक्षा नहीं हो पाई..!
माँ बहन की गाली देने पर हत्या तक करने को उठ जाने वाले समाज में अकेला पुरुष दोषी कैसे हो गया..?
कुछ विशेष परिवारों, कुछ विशेष क्षेत्रों की गाथाएं क्यों सब पर लाद दी गयी..?
शायद समाज की समीक्षा करने से न पैसे मिलते हैं और न साहित्य जगत में भाव इसीलिए सब ने बना लिया अपना अपना विज़न …!!!
आप स्त्री पीड़ा, दलित विमर्श पर जब तक चढ़ा बढ़ा कर नहीं लिखते तब तक न आप बुद्धिजीवी हो और न ही साहित्यकार,
सारा खेल वृद्ध साहित्यकारों के साथ मिलकर धन भकोसने के लिए है..!
समाज सड़ रहा है उससे कोई मतलब नहीं बस एजेंडा जिंदाबाद..!
एजेंडा जिंदाबाद..!
साहित्यकार जब एजेंडे से धन खाता है तो वह धन ठीक उसी प्रकार है जैसे वह भोजन की जगह अपनी संतान का माँस खा रहा हो..!
और ऐसे माँसाहारी साहित्यकार भरे हुए हैं।

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