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श्रीलंका की वर्तमान स्थिति के लिए मुफ्तखोरी ही नहीं जिम्मेदार

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श्रीलंका की वर्तमान स्थिति के लिए मुफ्तखोरी अवश्य जिम्मेदार है, लेकिन केवल उसी को सबसे बड़ा कारण मत मानिये। उसके अलावा भी कई सारे कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं। अपने लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि वे सब कारण भारत में भी मौजूद हैं और बीच-बीच में सिर उठाते रहते हैं।
भाषा, जाति, प्रांत या संप्रदाय के आधार पर भारत में होने वाले झगड़ों के समान ही श्रीलंका में तमिल और सिंहली भाषियों के बीच कई दशकों तक एक लंबा संघर्ष चला, जिसने देश को गृह-युद्ध के झोंक दिया। उस युद्ध में दोनों पक्षों ने आपस की लड़ाई को निपटाने के लिए दूसरे देशों की सहायता ली और अंततः अपनी ही तबाही को आमंत्रित किया। पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई, लाखों श्रीलंकाई नागरिक मरे और कई पीढ़ियाँ बर्बाद हुईं।
इस युद्ध के दौरान राजीव गांधी ने अपनी सेना भेजने की गलती की और तमिलों व सिंहलियों दोनों का विश्वास हमने गंवाया। उनकी आपसी लड़ाई में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक बेवजह मारे गए।
2009 में श्रीलंका सेना के हाथों अंततः एलटीटीई की हार हुई, जिसका श्रेय महिंदा राजपक्ष को मिला। लेकिन साथ ही अमरीका जैसे देशों ने श्रीलंका सरकार पर मानवाधिकार के उल्लंघन और युद्ध अपराध के आरोप लगाए, जिसने श्रीलंका को चीन की तरफ और अधिक झुकने पर मजबूर किया।
साथ ही, राजपक्ष का परिवारवाद, भ्रष्टाचार और गलत नीतियां भी देश पर भारी पड़ीं। महिंदा राजपक्ष के अलावा उनके भाई गोटबाया राजपक्ष और परिवार के कई अन्य सदस्य ही वहाँ के सांसद और मंत्री रहे हैं। अन्य कई पदों पर भी परिवार के लोग या उनके निकटवर्ती ही नियुक्त किये जाते रहे हैं। दोनों राजपक्ष भाई तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही पदों पर साथ-साथ रहे हैं। अभी पिछले चुनाव के बाद भी दोनों भाई ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बने थे।
चीन के आक्रामक दखल ने भी श्रीलंका को तबाह करने में बड़ी भूमिका निभाई है। महिंदा राजपक्ष ने अपने संसदीय क्षेत्र हम्बनटोटा में चीन की सहायता से एक बहुत बड़ा एयरपोर्ट बनवाया, जो आज तक विश्व का सबसे वीरान हवाई अड्डा बना हुआ है। कोलंबो में एक बहुत बड़ा बंदरगाह मौजूद होते हुए भी चीन से कर्ज लेकर हम्बनटोटा में एक और बड़ा बंदरगाह बनवाया, जो लगातार घाटे में ही है। उस बंदरगाह को बनवाने में इतना ज्यादा कर्जा हो गया कि श्रीलंका सरकार को उसका ब्याज तक चुका पाने में कठिनाई हो रही थी। मजबूरन वह पूरा बंदरगाह ही उन्हें 99 वर्ष की लीज पर चीन को मुफ्त में सौंपना पड़ा।
उधर कोलंबो के पास ही चीन के द्वारा एक पूरा नया शहर ही बसाया जा रहा है। उसके कारण भी देश पर कर्ज का बोझ और बढ़ा है। साथ ही, श्रीलंका की संप्रभुता में चीन के दखल के कारण इसका बड़ा विरोध भी हुआ है।
2018 में जब मैं श्रीलंका गया था, तब मैंने स्वयं भी श्रीलंका पर बढ़ते चीनी प्रभाव के कई स्पष्ट उदाहरण अपनी आंखों से देखे थे।
श्रीलंका में सबसे बड़ा संघर्ष भले ही तमिलों और सिंहलियों के बीच है, लेकिन केवल वही एकमात्र संघर्ष नहीं है। हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई समुदायों के बीच भी आपस में संघर्ष चलता रहता है। अप्रैल 2019 में ईस्टर के दिन श्रीलंका के तीन बड़े गिरिजाघरों और तीन बड़े पांच सितारा होटलों में आत्मघाती आतंकियों ने बम विस्फोट किये थे, जिनमें लगभग 270 लोग मारे गए। वह श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के लिए भी बहुत बड़ा झटका था।
पर्यटन श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का बहुत-बड़ा हिस्सा है। लेकिन इसके अलावा कपड़ा उद्योग, चाय उद्योग, आईटी, बंदरगाह आदि भी इसकी अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्र हैं।
चीन के भारी कर्ज के बोझ से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था 2019 से पहले ही डगमगाने लगी थी। उसके बाद ईस्टर बम विस्फोट की घटनाओं ने उसे और कमजोर किया। फिर 2020 में कोविड के कारण पूरी दुनिया ठप्प हो गई, तो पर्यटन, व्यापार, आयात-निर्यात सब-कुछ प्रभावित हुआ और श्रीलंका की अर्थव्यवस्था अंततः पूरी तरह बर्बाद हो गई।
चीन और भारत की आपसी लड़ाई ने भी नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, भूटान जैसे कई देशों को प्रभावित किया है।
श्रीलंका में दोनों राजपक्ष भाई चीन के समर्थक हैं,जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी रानिल विक्रमसिंघे भारत के समर्थक हैं। पिछले चुनाव में विक्रमसिंघे की हार हुई थी और महिंदा राजपक्ष को सत्ता वापस मिली थी। तब दोनों राजपक्ष भाइयों में से ही एक प्रधानमंत्री और दूसरा राष्ट्रपति बना था। लेकिन जब अर्थव्यवस्था पूरी तरह उनके हाथों से निकल गई, तो अंततः इस वर्ष मई में महिंदा राजपक्ष ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया और स्थिति को संभालने के लिए रानिल विक्रमसिंघे को ही वापस बुलाया गया। हालांकि मेरा अनुमान है कि संभवतः भारत ने ही आर्थिक सहायता देने के बदले चीन-समर्थक राजपक्ष पर पद छोड़ने का दबाव बनाया होगा और उसमें सफलता भी पाई।
आज समाचार आया है कि अब राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष ने भी पद छोड़ने की सूचना प्रधानमंत्री को दे दी है। इसे मैं श्रीलंका में चीन की पराजय और भारत की विजय के रूप में देख रहा हूँ। चीन का इरादा हमेशा ही दूसरे देश को कर्ज और भ्रष्टाचार में उलझाकर उसे आर्थिक और सामरिक गुलाम बनाने का रहता है, जबकि भारत की ऐसी नीयत कभी नहीं रही। इसलिए अब राजपक्ष भाइयों के हटने से मुझे आशा दिख रही है कि भारत की मदद से अब श्रीलंका इस आर्थिक संकट से उबर जाएगा। भले ही इसमें समय तो अवश्य लगेगा, लेकिन चीन के शिकंजे से छूटना श्रीलंका के लिए तस्सल्ली की सबसे बड़ी बात है।
मेरे लिए तसल्ली की बात यह है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय भारत ने श्रीलंका में जो गलती की थी, वह अंततः तीन दशकों के बाद अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समय ठीक कर ली गई है।
ऐसी ही एक बड़ी गलती राजीव गांधी ने नेपाल में भी की थी। अब मैं आशा कर रहा हूँ कि इस वर्ष नेपाल के चुनाव के बाद भारत सरकार वह गलती सुधारने में भी सफल हो जाए। सादर!

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