Home नया सुबह का दफ्तर और यह लखनऊ का मौसम

सुबह का दफ्तर और यह लखनऊ का मौसम

by Swami Vyalok
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आजकल दफ्तर सुबह 6 बजे से होता है। मतलब, 5 बजे उठकर 5.30 में पूरी तरह तैयार होकर निकल लेना। सनातनी हूं, उसमें भी कर्मकांडी तो पांच से दस मिनट उस परमसत्ता को ठगता हूं। यानी, ठेलमठेल मची रहती है, समय की।
लखनपुरी में मौसम का मिजाज उखड़ा हुआ है। 20-30 साल पहले बसंतपंचमी माने, सिल्क का कुर्ता, माने पीले कपड़े, माने जाड़े के कपड़ों की विदाई, माने सब कुछ धुल-पुंछ कर नया हो जाना। माने, अपनी प्रेमिका से कह देना कि आपको रात भर नींद नहीं आती, माने सरसों के खेत में खड़े होकर याशिका से फोटू खिंचवाना, माने रात भर जागकर बुनिया छनवाना, सुबह –वीणा पुस्तक रंजित हस्ते, भगवती भारति देवि नमस्ते-का नारा लगाते हुए सरस्वती पूजा करना, माने निराला को याद करना–(वर दे, वीणा-वादिनि वर दे…) माने, जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ सुनना…माने गालिब को गुनना, माने सब कुछ सभ्य-शुभ्र-स्वच्छ..।
यह समय चला गया। सुबह चला तो ऊंगलियां गल रही थीं, ओस गिर नहीं, बरस रहा था, दफ्तर पहुंचने तक सब कुछ ठस्स हो चुका था। ऐसा मौसम कभी याद नहीं रहा। दुर्गापूजा में हम हाफ-स्वेटर पहनना शुरू करते थे (क्योंकि 9 से 12 वाला शो पंडाल घूमने के बहाने देखते थे), छठ में नहाने के लिए माताजी न जाने कितना कोयला हवन करती थीं और मकर-संक्रांति को दही-चूड़ा और खिचड़ी खाकर हम ठंड से मुक्त हो जाते थे। बसंत पंचमी हमारे सिल्क पहनने और उन्मुक्त होने की घोषणा थी।
सब चला गया, सब खत्म हो गया। कुछ बुचिया स्वीडन में पोस्टर लगाती हैं, तमाशा पूरी दुनिया में होता है, पर हम तो देख रहे हैं। पूरा मौसम उलट-पुलट हो गया है। दशहरा गर्मी में है और मकर-संक्रांति से ठंड शुरू होती है। ग्लोबल वॉर्मिंग को हमसे बेहतर कोई क्या ही समझेगा…
इस बीच लता दी चली गयीं हैं। आज सरस्वती के विसर्जन का दिन है, शायद वाग्देवी ने ही चुन लिया था यह दिन!
अस्तु……
ये भी सही, वो भी सही।

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