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आजादी और बँटवारे के साथ शरणार्थियों की समस्या भी आई।

पश्चिमी पंजाब से आए हिन्दू और सिक्ख शरणार्थियों के लिए भारत सरकार ने कुरुक्षेत्र में एक अस्थायी शरणार्थी शिविर बनाया। एक तरह से यह तंबुओं का एक अस्थायी शहर ही था। इसे एक लाख लोगों के लिए बनाया गया था, लेकिन यहाँ लगभग 3 लाख शरणार्थियों को रखा गया। सेना तेज़ी-से नए तंबू लगाती जा रही थी और शिविर में आने वाले शरणार्थियों की संख्या भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ती जा रही थी।

इतने लोगों के भोजन के लिए हर दिन लगभग सौ टन आटा और बड़ी मात्रा में चावल, डाल, चीनी, नमक और केरोसीन आदि की आवश्यकता पड़ती थी। यह कल्पना भी कठिन लगती है कि भारत सरकार ने इन सब चीजों को मुफ्त उपलब्ध करवाने की व्यवस्था कैसे की होगी। कुछ सामाजिक संस्थाएं भी इसमें सहयोग कर रही थीं।

कुछ ही माह में ठण्ड का मौसम आने वाला था, इसलिए शरणार्थियों के रहने-खाने के अलावा उनके लिए गर्म कपड़ों की व्यवस्था भी जरूरी थी। दुःख और त्रासदी के माहौल से लोगों को बाहर निकालने के लिए उनके मनोरंजन के लिए भी कुछ सोचा गया। इसके लिए दिल्ली से कई सारे प्रोजेक्टर मंगवाकर उन्हें पूरे कुरुक्षेत्र में कई जगह लगवा दिया गया। कपड़े के बड़े-बड़े पर्दों पर रोज फ़िल्में दिखाई जाती थीं और एक साथ दस-पंद्रह हजार लोग उन्हें देख पाते थे। मिकी माउस, डोनाल्ड डक और ऐसी अन्य हास्य-व्यंग्य वाली फिल्में उनके तनाव को भूलने में मदद करती थी, चाहे कुछ समय के लिए ही सही।

ये शरणार्थी शिविर तो अस्थायी विकल्प थे। सरकार को उनके स्थायी निवास और रोजगार की व्यवस्था भी करनी थी। कई महीनों तक बिना कामकाज बैठने से लोग भी ऊब गए थे। शरणार्थियों में जो किसान थे, उन्होंने माँग की कि सरकार उन्हें देश में कहीं भी जमीन आवंटित कर दे, ताकि वे फिर से खेती कर सकें।

पहले सरकार की योजना यह थी कि जो लोग भारत से पाकिस्तान चले गए हैं, उनकी खाली जमीनें अब पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों में बांट दी जाएँ। लेकिन यह काम इतना सरल नहीं था। पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थी कुल 27 लाख हेक्टेयर जमीन वहाँ छोड़कर आए थे, जबकि यहाँ से जाने वाले केवल 19 लाख हेक्टेयर भूमि ही छोड़कर गए थे। इसलिए सरकार ने पहले यह तय किया कि हर शरणार्थी परिवार को अस्थायी रूप से 4 हेक्टेयर भूमि दी जाएगी, चाहे पाकिस्तान में उसके पास कितनी ही ज़मीन रही हो। बीज और कृषि उपकरण खरीदने के लिए उन्हें सरकारी कर्ज भी दिया गया।

इसके बाद स्थायी आवंटन के लिए लोगों से आवेदन मांगे गए। हर परिवार को यह सबूत देना था कि पाकिस्तान में उसके पास कितनी ज़मीन थी। मार्च 1948 में यह काम शुरू हुआ और एक माह में ही पाँच लाख से अधिक आवेदन आए। फिर उनका सत्यापन शुरू हुआ। कई लोगों ने बढ़ा-चढ़ाकर दावे किए थे। उन्हें दण्डित किया गया और कुछ को जेल भी भेजा गया। इन सब आवेदनों और जाँच-पड़ताल की व्यवस्था के लिए जालंधर में एक पुनर्वास सचिवालय बना, जिसमें लगभग 7000 कर्मचारी काम करते थे। यह भी अस्थायी गाँव ही था। सारे कर्मचारी तंबुओं में रहते थे। नवंबर 1949 तक लगभग ढाई लाख लोगों को जमीनें आवंटित करने का काम हो गया। फिर उन सबको पंजाब के कई जिलों में बसाया गया। यह कोशिश की गई थी कि रिश्तेदारों और पुराने पड़ोसियों को एक साथ बसाया जाए, हालांकि ऐसा हमेशा संभव नहीं था। लगभग एक लाख लोगों ने आवंटन पर आपत्ति लगाई और फिर से समीक्षा के लिए आवेदन किया। इनमें से लगभग पैंतीस हजार आवेदनों पर फिर से विचार हुआ और 80 हजार हेक्टेयर जमीन के आवंटन बदले गए।

पश्चिमी पंजाब से आए शरणार्थियों में अधिकतर किसान थे, लेकिन कई कारोबारी और मजदूर भी थे। उन सबके पुनर्वास के लिए सरकार ने कई नए शहर बसाए। इनमें सबसे पहला प्रोजेक्ट दिल्ली के पास फरीदाबाद था। शरणार्थियों के आवास बनाने का काम सरकार के “लोक निर्माण विभाग” को करना था। लेकिन लगभग हर सरकारी विभाग के सामान ही यह भी अपने भ्रष्टाचार और सुस्ती के लिए बदनाम था। यह “लोक लूट विभाग” कहलाता था। विभाग की सुस्ती और भ्रष्टाचार से नाराज लोगों ने एक दिन दिल्ली में नेहरू जी के आवास को घेर लिया। उनकी नारेबाजी और शिकायतों से नेहरू जी बहुत नाराज हुए। लेकिन अंततः यह समझौता हो गया कि लोगों को 40 प्रतिशत मकान स्वयं बनाने की अनुमति दी जाएगी और शेष पीडब्ल्यूडी विभाग बनाएगा।

कुछ सहकारी समितियां और स्वयंसेवी समूह बनाकर यह काम शुरू किया गया। दुकानें और छोटे-छोटे कारखाने बनाए गए। विश्व-युद्ध के हर्जाने के रूप में जर्मनी से एक मशीन कलकत्ता आई थी, जिसका वहाँ कोई उपयोग नहीं हो रहा था। उसे फरीदाबाद लाया गया। जर्मनी में जिस इंजीनियर ने उस प्लांट में काम किया था, उसे भी खोजकर फरीदाबाद बुलवाया गया। सबकी मेहनत से लगभग दस माह में यह बिजलीघर तैयार हो गया।

बँटवारे के बाद लगभग दिल्ली में भी पाँच लाख शरणार्थी बसने आए थे। शुरू में ये लोग रेलवे प्लेटफ़ॉर्म, मंदिर, गुरूद्वारे,  धर्मशालाएं, फुटपाथ आदि जहां जगह मिली, वहाँ किसी तरह रहने लगे। फिर सरकार ने उनके लिए जमीनें आवंटित कीं और राजेन्द्र नगर, पटेल नगर, लाजपत नगर जैसी कई नई कालोनियां दिल्ली में बनीं। एक रिफ्यूजी कॉलोनी थी, जिसका नामकरण कुछ सालों बाद पंजाबी बाग कर दिया गया।

जुलाई 1948 तक सिंध, पंजाब और पाकिस्तानी सीमा-प्रांत से लगभग पाँच लाख शरणार्थी मुंबई भी आए थे। मुंबई में झुग्गियों और फुटपाथों पर रहने वालों की संख्या पहले भी कम नहीं थी। अब फुटपाथ पर रहने वालों की संख्या ही लगभग दस लाख हो गई। मुंबई में पाँच शरणार्थी शिविर लगाए गए थे, लेकिन उनमें न बिजली थी, न डॉक्टर और न कोई अन्य व्यवस्था। दस हजार लोगों के शिविर में केवल बारह पानी के नल थे और हर परिवार को रहने के लिए केवल 36 वर्ग फीट की जगह मिली थी। उसका भी उनसे किराया वसूला जाता था। सरकार की ओर से उन्हें कोई सहयोग नहीं मिल रहा था। आवाज उठाने पर पुलिस बुला ली जाती थी। एक बार दंगा भी हुआ और एक व्यक्ति की जान चली गई।

दिल्ली और पंजाब आने वालों को कम से कम थोड़ी-बहुत जमीनें या रहने को घर मिल गए थे। लेकिन मुंबई आए सिंधियों के पास लगभग कुछ भी नहीं था। फिर भी उनके पास हिम्मत थी। छोटे-छोटे सिन्धी बच्चे भी मुंबई के बाजारों और लोकल ट्रेनों में घूम-घूमकर सामान बेचने लगे। सिंध के शरणार्थी धीरे-धीरे पूरे मुंबई शहर में बस गए। बड़ी संख्या में लोग पुणे, अहमदाबाद और पश्चिम भारत के अन्य नगरों में भी गए। अपनी मेहनत और जीवटता से फिर एक बार सिन्धी समाज ने इन अजनबी शहरों में भी अपनी नई पहचान बना ली।

 

पश्चिमी पाकिस्तान के समान ही पूर्वी पाकिस्तान से भी बड़ी संख्या में हिन्दुओं को पलायन करना पड़ा। 1949 तक लगभग चार लाख शरणार्थी बंगाल आए थे, लेकिन 1950 में बड़ी संख्या में पूर्वी बंगाल में दंगे हुए, जिसके बाद लगभग 17 लाख हिन्दू अपनी जान बचाने के लिए भारत आ गए।

इनमें से अधिकांश को रेलवे-स्टेशन और फुटपाथ को ही अपना आवास बनाना पड़ा। पंजाब में लगभग दोनों तरफ से पलायन हुआ था, इसलिए जो लोग भारत से पाकिस्तान चले गए थे, उनके खाली मकान और जमीन उधर से आए शरणार्थियों को दी जा सकती थी। लेकिन बंगाल में पलायन लगभग एकतरफा था। पूर्वी बंगाल से लाखों शरणार्थी भारत आए थे, लेकिन इधर से जाने वालों की संख्या नगण्य थी। बंगाल की सरकार भी उनके लिए कुछ करने की बजाय यह सोचकर हाथ पर हाथ धरे बैठी रही कि शायद कुछ समय बाद वे लोग वापस लौट जाएँगे।

सरकार की निष्क्रियता से निराश होकर लोगों ने खुद ही अपनी सहायता के प्रयास शुरू किए। सितंबर 1948 में ऑल बंगाल रिफ्यूजी काउंसिल ऑफ एक्शन नाम से एक संगठन बनाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसे संगठन भी शरणार्थियों की मदद के लिए आगे आए।

कलकत्ता की खाली जमीनों पर शरणार्थियों ने स्वयं ही अपने लिए झुग्गियां बना लीं और लगभग 2 लाख लोग ऐसी अनियमित कालोनियों में रहने लगे। उन्होंने अपनी समितियां बनाकर इन कालोनियों के संचालन के लिए नियम तय कर लिए और अपने लिए सड़कें, ट्यूबवेल, स्कूल आदि भी स्वयं ही बनाए।

कुछ लोगों को दिल्ली और पंजाब की पुनर्वास कॉलोनियों को देखने का अवसर मिला था। उनसे दूसरों को यह पता चला कि वहाँ के शरणार्थियों को सरकार ने स्वयं जमीनें और मकान दिए हैं, जबकि कलकत्ता में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इससे असंतोष और बढ़ा। वामपंथियों ने भी शरणार्थियों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए इस असंतोष का पूरा लाभ उठाया और शरणार्थियों को संगठित करके सरकार के खिलाफ उनके आक्रोश को हवा दी।

विभाजन के समय कष्ट तो दोनों ही तरफ के लाखों लोगों को सहने पड़े, लेकिन उस आपदा में महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ा, उसे शब्दों में बताना असंभव है। दंगों के समय तो उन्हें भीषण यातनाएं सहनी ही पड़ीं थीं, लेकिन उसके बाद कई महिलाओं को उनके परिवारजनों ने ही त्याग दिया। इससे बुरा क्या होगा कि अपने ऊपर हुए अन्याय की सज़ा भी खुद उन्हें ही भुगतनी पड़ी!

विभाजन का उन्माद थोड़ा कम हो जाने पर दोनों देशों की सरकारों में इस बात पर सहमति बनी थी कि ऐसी अपहृत महिलाओं को खोजकर उनके परिवारों के पास वापस भेज दिया जाए। मई 1948 तक ऐसी लगभग साढ़े 12 हजार महिलाओं को ढूंढकर उनके परिवारों के पास वापस पहुंचाया गया। यह बहुत दुःखद था कि उनमें से कई स्त्रियाँ वापस नहीं जाना चाहती थीं क्योंकि उन्हें डर था कि उनका पुराना परिवार उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। उससे भी दुःखद यह था कि ऐसे मामलों में पुलिस जबरन उन्हें वापस भेजती थी।

दोनों सरकारों के बीच कैदियों की अदला-बदली का एक समझौता भी हुआ। पाकिस्तान के जो हिन्दू कैदी भारत आना चाहते थे और भारत की जेलों में बंद जो मुस्लिम कैदी पाकिस्तान जाना चाहते थे, उनकी अदला-बदली हुई। राजनैतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया और आपराधिक मामलों वाले कैदियों ने अपनी सजा की शेष अवधि नई जेल में पूरी की।

विभाजन के बाद लगभग 80 लाख शरणार्थी भारत आए।  उनमें से लगभग किसी को भी यह पता नहीं था कि वे अब कहाँ जाएँगे और आगे क्या करेंगे। उन्हें अकल्पनीय कष्ट झेलने पड़े और उनके पुनर्वास के लिए भारत सरकार को भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद भी भारत सरकार और भारत के लोगों ने मिलकर बहुत थोड़े समय में ही यह काम पूरा कर लिया गया। सबसे बड़ी बात यह थी कि यह पूरा काम भारतीयों ने स्वयं किया था। जिन अंग्रेज़ों को यह भ्रम था कि उनके जाते ही भारत पूरी तरह बिखर जाएगा, केवल दो वर्ष में ही भारतीयों ने सैकड़ों रियासतों का एकीकरण और लाखों शरणार्थियों का पुनर्वास करके उनका यह घमंड पूरी तरह तोड़ दिया।

इन्हीं सब चुनौतियों के बीच भारतीयों ने अपने लिए एक नया संविधान भी तैयार कर लिया।

उसकी बात अगले भाग में…

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