(भारत विभाजन के लिए कांग्रेस अधिवेशन में मतदान)

 

15 जून 1947 को दिल्ली में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें भारत के विभाजन का प्रस्ताव रखा गया और काँग्रेस के सदस्यों ने देश के टुकड़े करने का वह प्रस्ताव पारित कर दिया। इसके बाद तय हो गया कि भारत का बँटवारा होगा और नेहरू जी स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे।

 

वास्तव में यह बहुत बड़ा विरोधाभास था। एक तरफ गांधी जी कह रहे थे कि मैं किसी कीमत पर भारत के टुकड़े नहीं होने दूँगा। भारत का विभाजन मेरी लाश पर ही होगा। लेकिन दूसरी तरफ नेहरू जी और कांग्रेस के लगभग सारे नेताओं ने स्वयं ही विभाजन की माँग के आगे घुटने टेक दिए और अपनी पार्टी का अधिवेशन बुलाकर विभाजन का प्रस्ताव भी पारित कर लिया। केवल महात्मा गांधी अकेले थे, जो इस विभाजन का विरोध करते रहे।

डॉ. राम मनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘द गिल्टी मेन ऑफ पार्टीशन’ (विभाजन के गुनहगार) में लिखा है कि महात्मा गांधी के अलावा कांग्रेस के सारे नेता लंबे संघर्ष के बाद थक चुके थे और अपने जीवनकाल में ही भारत को स्वतंत्र देखना चाहते थे।’

स्वयं नेहरू जी ने भी 1960 में ब्रिटिश पत्रकार लियोनार्ड मोस्ली को दिए इंटरव्यू में कहा था कि ‘इतने वर्षों के संघर्ष के बाद हम सब लोग थक चुके थे। अगर हम भारत को एकजुट बनाए रखने की माँग करते, तो अंग्रेज फिर एक बार हमें जेलों में ठूंस देते। लेकिन हम में से कोई भी फिर से जेल नहीं जाना चाहता था, इसलिए हमने विभाजन को स्वीकार कर लिया।’

जिन्ना की मुस्लिम लीग ने विभाजन की माँग इस आधार पर की थी कि अंग्रेज़ों के जाने पर भारत की सत्ता हिन्दुओं के हाथों में चली जाएगी और मुसलमान सुरक्षित नहीं रह पाएँगे। उनका यह भी कहना था कि हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं, बल्कि वास्तव में ये दोनों दो अलग राष्ट्र हैं और ये कभी एक साथ नहीं रह सकते। इसलिए भारत का विभाजन किया जाए और जिन प्रान्तों में मुस्लिम जनसंख्या बहुमत में है, उन्हें भारत से अलग करके पाकिस्तान के नाम से मुसलमानों के लिए एक नया देश बनाया जाए।

विभाजन की माँग मनवाने का दबाव बढ़ाने के लिए 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने बंगाल में डायरेक्ट एक्शन डे की अपील की थी। इसके बाद बंगाल में भीषण दंगा हुआ और हजारों लोगों की जान गई। उसमें भी नोआखाली की घटनाएँ इतनी भीषण और क्रूरतापूर्ण हैं कि उसके बारे में शायद अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है। अक्टूबर-नवंबर 1946 में गांधीजी स्वयं भी इन दंगों को रोकने के प्रयास में नोआखाली गए थे और कई दिनों तक वहाँ रुके थे।

इस उथल-पुथल के बीच सितंबर 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और नेहरूजी इसके प्रधानमंत्री बने। गांधीजी वास्तव में विभाजन की बात से बहुत पीड़ित थे। विभाजन को रोकने के अंतिम प्रयास के रूप में उन्होंने वायसरॉय को यह प्रस्ताव भी दिया था कि नेहरू की बजाय जिन्ना को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बना दिया जाए, लेकिन काँग्रेस के नेता इस बात से राजी नहीं हुए। धीरे-धीरे यह लगभग स्पष्ट होने लगा था कि भारत के विभाजन को अब कोई नहीं टाल सकता।

आज इतने दशकों बाद यह निष्कर्ष निकाल लेना सरल है कि उस समय के किन-किन नेताओं को भारत-विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाए। लेकिन उस समय के हिसाब से सोचें, तो उनके कुछ निर्णय भले ही गलत हुए हों, लेकिन मुझे नहीं लगता कि उनमें से किसी की भी नीयत गलत रही होगी।

 

अंतरिम सरकार का गठन होने के बाद नवंबर 1946 में भारत की संविधान सभा का गठन हुआ। इसके प्रतिनिधि भारत के सभी प्रांतों से और अनेक रियासतों से चुने गए थे। इनकी कुल संख्या 389 थी, जिसमें सर्वाधिक 69% सदस्य (389 में से 208) काँग्रेस के थे। मुसलमानों के लिए आरक्षित लगभग सभी सीटों पर मुस्लिम लीग के सदस्यों की जीत हुई थी। उनकी कुल संख्या 73 थी। इसके अलावा शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ऑफ इण्डिया, कम्युनिस्ट पार्टी, यूनियनिस्ट पार्टी जैसे छोटे दलों को मिलाकर लगभग 15 सदस्य थे और रियासतों के 93 प्रतिनिधि थे।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गए। भारतीय संविधान बनाने के लिए इस संविधान सभा ने अलग-अलग विषयों पर केन्द्रित 22 समितियों का गठन किया, जिनमें से 9 मुख्य थीं। इनमें से अधिकांश के सभापति जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल या डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे। संविधान का मसौदा तय करने के लिए एक ड्राफ्टिंग कमिटी बनाई गई थी, जिसके चेयरमैन डॉ. आंबेडकर थे।

संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी। लेकिन जब 14 अगस्त 1947 को इसकी अगली बैठक हुई, तब तक बहुत-कुछ बदल चुका था।

3 जून 1947 को वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत-विभाजन की अपनी योजना प्रस्तुत कर दी थी। उसी दिन पाकिस्तान के लिए एक अलग संविधान सभा का भी गठन हुआ। पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में फिर से चुनाव हुआ और पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य उसमें चुने गए। अब भारत की संविधान सभा के सदस्यों की संख्या घटकर 299 हो गई। इसमें मुस्लिम लीग के 28 सदस्य बचे।

18 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित हुआ और यह घोषणा हो गई कि 15 अगस्त को भारत का विभाजन और सत्ता हस्तांतरण हो जाएगा। विभाजन रेखा तय करने के लिए ब्रिटिश जज सिरिल रेडक्लिफ को लन्दन से दिल्ली भेजा गया। रेडक्लिफ ने उससे पहले कभी भारत नहीं देखा था और न उन्हें यहाँ की समस्याओं या चुनौतियों के बारे में कुछ मालूम था।

पंजाब और बंगाल के बंटवारे के लिए दो समितियों का गठन हुआ। दोनों के चेयरमैन रेडक्लिफ ही थे। इन समितियों का कामकाज बहुत गोपनीय रखा गया था इसलिए अंतिम समय तक लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि उनका गाँव, शहर या इलाका भारत में रहेगा या पाकिस्तान में जाएगा।

सीमा रेखा इतनी हड़बड़ी में तय की गई थी कि रेडक्लिफ के पास किसी इलाके का दौरा करने, लोगों से बात करने, कोई सर्वेक्षण करवाने या विशेषज्ञों की सहायता लेने के लिए बिल्कुल भी समय नहीं था। केवल कुछ ही हफ़्तों में उन्हें अपना काम पूरा करना था। युद्ध के कर्ज में दबी ब्रिटिश सरकार भी यथाशीघ्र इसे पूरा करना चाहती थी क्योंकि उसके पास अब विश्व भर में अपने साम्राज्य को संभालने की शक्ति या धन दोनों ही नहीं बचे थे। विश्व युद्ध के दौरान अमरीका ने भी इसी शर्त पर ब्रिटेन की मदद की थी कि युद्ध के बाद गुलाम देशों को स्वतंत्र कर दिया जाएगा और उन्हें स्वशासन का अधिकार मिलेगा। इसी कारण विश्व-युद्ध के बाद अगले एक-दो दशकों में ही लगभग 65 देश ब्रिटेन के चंगुल से आजाद हो गए, जिनमें भारत भी एक था।

रेडक्लिफ ने अपनी रिपोर्ट अगस्त में माउंटबेटन को सौंप दी और 15 अगस्त को ही वह लन्दन वापस लौट गए। 16 अगस्त को शाम 5 बजे भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों को बुलाकर वायसरॉय ने नए नक़्शे दिखाए और उन्हें अपनी आपत्तियाँ बताने के लिए केवल दो घंटे का समय दिया गया। 17 अगस्त को यह जानकारी सार्वजनिक कर दी गई और उसके बाद ही लोगों को पता चला कि भारत और पाकिस्तान की नई सरहद कौन-सी है। यह भी विभाजन के बाद मची अफरातफरी का एक बड़ा कारण था।

 

भारत विभाजन विश्व के इतिहास की सबसे दुःखद और भीषण त्रासदियों में से एक है। लगभग दो करोड़ लोग इसमें विस्थापित हुए और बीस लाख से भी ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई। गांधीजी ने कहा था कि मैं अपने जीते-जी भारत के टुकड़े नहीं होने दूँगा, विभाजन अगर होगा तो मेरी लाश पर ही होगा; लेकिन वास्तव में भारत का विभाजन इन लाखों बेगुनाहों की लाश पर हुआ।

14 अगस्त 1947 को रात 11 बजे भारतीय संविधान सभा की अगली बैठक हुई और उसी में भारत का सत्ता हस्तांतरण हुआ। वहीं नेहरू जी अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया था कि आज आधी रात में जब पूरा विश्व सो रहा है, तब भारत में एक नए युग की शुरुआत हो रही है।

सत्ता हस्तांतरण के साथ ही संविधान सभा भारत की सर्वोच्च विधायिका बन गई और भारत से ब्रिटिश संसद का अधिकार समाप्त हो गया। लेकिन भारत उसी दिन एक स्वतंत्र गणराज्य नहीं बना था, बल्कि वह ब्रिटेन का अधिराज्य (डोमिनियन) बना, अर्थात ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत एक स्वायत्त इकाई।

अब ब्रिटेन के सम्राट ने भारत के सम्राट की पदवी छोड़ दी और उन्हें भारत का राष्ट्राध्यक्ष घोषित किया गया। लेकिन उनके प्रतिनिधि के रूप में अभी भी गवर्नर जनरल ने भारत का राजकाज देखना जारी रखा। इसी कारण माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल बने रहे। हालांकि वे भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के गवर्नर जनरल बनना चाहते थे, लेकिन जिन्ना ने इससे इनकार कर दिया। बहुत प्रयास करने के बावजूद भी माउंटबेटन जिन्ना को मनाने में विफल रहे और इस तरह जिन्ना ही पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने।

15 अगस्त को नेहरू जी ने अपने नए मंत्रिमंडल की सूची गवर्नर जनरल माउंटबेटन को सौंपी। एच वी हडसन ने अपनी पुस्तक “द ग्रेट डिवाइड” में दावा किया है कि इसमें सरदार पटेल का नाम शामिल नहीं था क्योंकि नेहरू जी सरकार का नियंत्रण पूरी तरह अपने हाथों में रखना चाहते थे। उन्हें यह भी आशंका थी कि उनकी समाजवादी आर्थिक नीतियों से पटेल सहमत नहीं होंगे और अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार दिए जाने के नेहरू जी के विचारों का भी वे विरोध करेंगे।

लेकिन वीपी मेनन ने तर्क दिया कि यदि पटेल को बाहर किया गया, तो काँग्रेस कार्यसमिति भी खुलकर दो गुटों में बंट जाएगी और इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसी स्थिति में अधिकांश नेता पटेल का ही समर्थन करेंगे। अंततः अपनी हार की संभावना देखकर नेहरू जी ने पटेल का नाम मंत्रिमंडल की सूची में शामिल कर लिया।

भारत के इस नए मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अलावा तेरह और मंत्री थे। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें काँग्रेस के अलावा कुछ अन्य पार्टियों के लोगों को भी शामिल किया गया था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गाँधीजी ने नेहरूजी को याद दिलाया था कि ‘स्वतंत्रता भारत को मिल रही है, काँग्रेस को नहीं। इसलिए मंत्रिमंडल में सबसे योग्य लोगों को जगह मिलनी चाहिए, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों।’

नए मंत्रिमंडल में कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जगजीवन राम, रफ़ी अहमद किदवई और राजकुमारी अमृत कौर आदि के अलावा डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के डॉ. आंबेडकर भी शामिल थे। 15 अगस्त को सुबह साढ़े आठ बजे नए गवर्नर जनरल और मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण समारोह हुआ।

14 और 15 अगस्त को दिल्ली में यह सारे समारोह चल रहे थे, लेकिन गांधीजी इन आयोजनों में शामिल नहीं थे। वे उस दिन कलकत्ता में थे और भारत विभाजन को न रोक पाने की अपनी विफलता से खिन्न थे। 14 अगस्त की शाम को बंगाल के मुख्यमंत्री उनसे यह पूछने आए थे कि अगले दिन का स्वतंत्रता समारोह किस तरह मनाया जाए। गांधीजी ने उन्हें धिक्कारा कि चारों ओर लोग भूख और विनाश से मर रहे हैं, फिर ऐसे विनाश का समारोह कैसे मनाया जाए?

बीबीसी का संवाददाता भी भारत की आजादी के उपलक्ष्य में विश्व के लिए गांधीजी का सन्देश माँगने उनके पास पहुँचा था। गांधीजी ने उसे भी यह कहकर खाली हाथ लौटा दिया कि वह जाकर नेहरू से ही बात करे।

15 अगस्त का दिन गांधीजी ने विभाजन के शोक में चौबीस घंटे का उपवास रखकर बिताया। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वायसरॉय के आधिकारिक प्रीतिभोज में व्यस्त थे।

इसके आगे की बात अगले भाग में…

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