एक परिचित हैं up के उन चुनिंदा विधायकों में थे जो कहीं भी किसी भी पार्टी से जीत जाते थे. 2017 के चुनाव में ऐन मौक़े पर भाजपा में आए. भाजपा ने उनसे पार्टी फंड में दो करोड़ जमा करवाए और उन्हें ऐसी सीट दी जो पार्टी ज़िंदगी में कभी नहीं जीती थी, न उम्मीद थी. वह जीत कर आए यह बोनस रहा, हार भी जाते तो हार तो हम पहले ही रहे थे. भाजपा में प्रायः नेताओं को ऐन मौक़े पर join कराने का कराइटेरिया यही होता है.
बाक़ी ज़्यादातर तो ऐसे गठबंधन होते हैं जो मीडिया में बहुत अच्छे लगते हैं. राजभर हों या पटेल या फिर मौर्य या फिर बिहार वाले कुशवाहा अंकल – यह सभी नेता अपने दम पर एक सीट भी कभी न जीते. भाजपा से गठबंधन होता है, भाजपा शोर मचा देती है कि यह अपनी बिरादरी के बड़े नेता हैं, यह भी जीत जाते हैं भाजपा का भी फ़ायदा होता है. हक़ीक़त में यह खुद खड़े हों तो अपनी सीट न बचा पाएँ.
अब देखिए स्वामी प्रसाद मौर्य और भाजपा का गठबंधन टूटा. स्वामी जी इतने बड़े नेता बनते हैं और जिस बात पर ब्रेक अप हुआ कि उनके लड़के को भाजपा टिकट ना देगी – उनका लड़का प्रचंड भाजपा लहर में भी ऊँचाहार सीट हार गया था. सपा ने उन्हें ले तो लिया है पर सपा का फ़ायदा क्या? ऊँचाहार सीट प्रचंड भाजपा लहर में भी सपा के मनोज पांडे ने जीती थी. यदि स्वामी के बेटे को टिकट देते हैं ऊँचाहार से तो मनोज पांडे भाजपा में आ जाएँगे, भाजपा को अच्छा उम्मीदवार मिल गया. स्वामी का बेटा बग़ल में फ़ाफ़ा माऊ से खड़ा होता है तो भी फ़ायदा ही क्या रहा सपा में जाने का.
ओवरॉल यही है कि भाजपा प्रायः ऐसी सीटों पर समझौता करती है जहां जीत नहीं होते हैं या ऐसी जगह समझौता करती है जहां किसी भी छोटे दल को समझौता कर शोर मचा उसे उस जाती का नेता बना देती है. वहीं सपा अपनी जीती हुई सीटों पर समझौता कर रही है या फ़िर ऐसे समझौते कर रही है जो नेता सपा के छाते में काम करने की जगह अपना नाम बड़ा करने में यक़ीन करते हैं. भाजपा में स्वामी प्रसाद या राजभर आते भी हैं तो भी कोने में पड़े रहते हैं जय श्री राम बोलते हुवे॥ यह बहुत बड़ा अंतर है ऐन मौक़ों पर नेता join करवाने में. अभी देखिएगा दो सप्ताह बाद यह सब मुद्दे गौड़ हो जाएँगे. तब चुनाव केवल पार्टी के नाम पर होगा.