Home आर ऐ -ऍम यादव ( राज्याध्यक्ष) हमें इस सत्य को समझने की आवश्यकता है
लगता है हमें इस सत्य को समझने की आवश्यकता है। मेरी नजर में भाजपा के मतदाताओं का इन चार केटेगरीज में स्पष्ट विभाजन होता दिखाई देता है।
१ भक्त – सब से कम संख्या भक्तों की है। क्योंकि भक्त वो होता है जो अपनी भक्ति में व्यक्तिगत हित या अहित आड़े नहीं आने देता। आज कुछ लोग खुद को पूर्व भक्त कहते हैं वे इस निकष पर भक्त कहने के लायक कभी थे ही नहीं। दो मिनट की चर्चा कीजिए उनसे, बात साफ हो जाएगी। वैसे, भक्त होना अच्छा या बुरा इसपर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा क्योंकि मैं भी भाजपा या मोदी जी का भक्त न था न हूँ। और हाँ, कोर वोटर में भी ये चारों भेद मिलेंगे और लगभग इसी अनुपात में मिलेंगे। कोर वोटर का अर्थ ऑटोमैटिक भक्त नहीं होता। भक्तों की संख्या में निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता नहीं होती। कम से कम असलीवाले भक्तों की उतनी संख्या नहीं है भाजपा के पास।
२ फॉलोवर – ये अनुयायी होते हैं। भक्त नही होते कि जिसे माने उसके लिए लड़ पड़ें, लेकिन नेतृत्व के निर्देशों का पालन करते हैं। भक्तों से निष्ठा कम होती है। भक्तों के अनुपात में इनकी संख्या अधिक होती है, लेकिन इतनी भी नहीं है कि निर्णय को प्रभावित कर सके।
३ सपोर्टर – इनकी संख्या भक्त और फॉलोवर से अधिक होती है । ये अपना फायदा देखकर समर्थन देते हैं। निष्ठा नहीं के बराबर होती है और संख्या, निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखती है।
४ कस्टमर – ये ग्राहक होता है और ग्राहक की निष्ठा केवल उसके लाभ से होती है। वैसे यह बात सर्वविदित है कि तात्कालिक लाभ @ लालच के लिए पहलेवाला ब्रांड या बरसों से जहां से खरीद कर रहे हैं वो दुकान को छोडकर अन्यत्र खरीदारी की जाती है। इससे पहले की दुकान बंद हो जाती है और दूसरे की एकमात्र दुकान रह गई तो वो मनमानी भाव लगाकर जैसे चाहे लूटे और वहाँ किसी को आने भी न दें तो भी रोनेवाला वर्ग यही कस्टमर क्लास ही होता है। आज के समय इस वर्ग के भाजपा वोटर की संख्या सर्वाधिक है और सपोर्टर से भी अधिक यही वर्ग, निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
असल में, लोकतंत्र की राजनीति में मतदाता को ग्राहक बनाना या उसका कंज़्यूमराइज़ेशन यह वामपंथ की सब से बड़ी सफलता रही है क्योंकि हर बार, हर पक्ष को कस्टमर केटेगरी के मतदाता को लुभाने के लिए नए नए प्रलोभन देने पड़ते हैं। अक्सर यह भी होता है कि जिस वामपंथी धारा के पक्ष को जीतना नहीं होता और न ही देश हित के लिए सरकार चलाने की इच्छा या मंशा हो, वो पक्ष जोर शोर से प्रलोभनों की बौछार कर देता है। उसे कोई नहीं पूछता कि इसके लिए पैसे कहाँ से आएंगे। और पूछे तो वो सीधा कह देता है कि वो सम्पन्न वर्ग को लूटेगा। लेकिन जिस पक्ष को अपनी सत्ता बचानी है उसकी जीत उतनी महंगी हो जाति है, और वो भी देश की कीमत पर।
वामपंथ की दूसरी सफलता यह है कि जनता में और आत्मसम्मान का लोप, एवं दूसरे की कमाई पर अपना हक मानना। भले ही यह पता है कि उसने आप को लूटकर वह संपत्ति नहीं कमाई, फिर भी वो मेरे से सम्पन्न है यही कारण पर्याप्त है लूटेरी भीड़ का हिस्सा बनने को। कल आप की भी बारी आएगी यह सोचने की क्षमता खत्म।
संपन्नता एक कला होती है, सम्पन्न होना सब को नहीं आता । और न ही कोई व्यक्ति अकेले सम्पन्न बन सकता है, उसके लिए उसे कई लोगों को रोजगार देना पड़ता है जिसका अंतिम परिणाम उसके सम्पन्न होने में होता है।
अस्तु, यहाँ बात इकोनॉमिक्स में चली जाएगी जिसे डॉ राजीव मिश्रा एवं मेरे अन्य एक आदरणीय मित्र जिनकी पोस्ट्स मैं केवल ‘कॉपीड’ कहकर चेपता रहता हूँ, मेरे से बेहतर पद्धति से बताते हैं ।
यहाँ केवल इतना कहना चाहता हूँ कि हमारे सब से बड़े शत्रु की सफलता का रहस्य इन्हीं चार केटेगरीज में संख्या का बिल्कुल उल्टा अनुपात होना है, जिससे वे सातत्य से हम से अधिक लाभान्वित होते रहे हैं।
ON WAR यह युद्धविषयक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखनेवाले Carl von Clausewitz के नाम का स्पेलिंग भी जिन्हें लिखने नहीं आता हो वे सभी अनपढ़ और कमपढ़ फच्चरुद्दीन इसी Clausewitz के सूत्र War is politics by other means को दो दो डिग्रीधारी हिंदुओं से बेहतर समझते हैं। वे इसी सूत्र को रिवर्स कर के भी समझते हैं कि Politics is also war by other means, और हर पाँच वर्ष अधिकाधिक विजय पाने का अवसर होता है, हमारा अधिकाधिक नुकसान करने का, जमीनें और व्यवसाय छीनने का मौका होता है, जब कि हम सोचते हैं कि इस बार की गलती अगले पाँच साल बाद आनेवाले अवसर में सुधरेंगे। पाँचवा साल आता है तब समझ आता है कि पाँच साल में जितने नुकसान किए गए हैं उन्हें रिवर्स करने में बीस साल जाएंगे। शत्रु तब और बलशाली भी हुआ होता है जिस संभावना पर हम सोचते भी नहीं है।
क्योंकि ऊपर के परिच्छेद को हम समझते ही नहीं। अगर हमें कोई कहता है कि शत्रु में तो हम से आधी भेदाभेद हैं तो हम खुश हो जाते हैं। हम यह नहीं समझते कि वे अपनी आपसी लड़ाइयाँ हमें खत्म करने के बाद लड़ेंगे। शिया सुन्नी भले ही एक दूसरे के खून के प्यासे हों; बाबरी शिया की बनाई मस्जिद थी लेकिन उसके लिए लड़े थे वे सुन्नी थे।
पक्ष, नेता आदि के प्रति निष्ठा रखने के बजाय लक्ष्यपर निष्ठा रखना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। उस लक्ष्य में सहायक जो पक्ष होगा उसको सत्ता में लाना चाहिए क्योंकि हम पॉलिटिक्स में नहीं आते। किसी भी पक्ष को यही पता चलना चाहिए कि हमारा लक्ष्य क्या है, तब उनको भी अपनी राजनीति बदलनी पड़ेगी। धैर्य से काम लेना होगा और लक्ष्य से समर्पित मतदान करना होगा। हो सकता है अपनी ज़िंदगी में नहीं होगा। हमारे शत्रु १९४६ से एक ही लक्ष्य के लिए आज तक वोटिंग करते आए हैं। उस वोट से पाकिस्तान बनाया गया, बाकी परिस्थिति को बदलने के लिए वे नहीं गए, यही रहे। आज वे तो हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी कमरतोड़ पलंगतोड़ मेहनत के फल आज भी वही लगन से उतनी ही मेहनत कर रहे हैं, और हम उनका काम अधिकाधिक आसान किए जा रहे हैं।
मराठी में कस्टमर को ग्राहक कहते हैं, लेकिन ग्राहक का एक अपभ्रंश भी चलन में है – गिऱ्हाईक; जिसके दो अर्थ होते है। एक मूल अर्थ तो ग्राहक ही है, लेकिन दूसरा अर्थ होता है मूर्ख बनाना।
तय कीजिए आपको क्या बनना है। और हाँ, यह आलेख और चित्र दोनों, अवश्य औरों तक आगे बढ़ाइए।

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