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ख़त्म हो अंको की अंधी दौड़

Pranay Kumar

by Pranjay Kumar
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नियति बलवान होती है। कभी-कभी कैसे-कैसे संदर्भों में कोई साधारण-सी बात महत्त्वपूर्ण हो जाया करती है।

अब इस लेख और उससे भी अधिक इस दिवस का मेरी स्मृतियों में विशेष स्थान है। घर पर ‘दैनिक जागरण’ आता था। पिता जी बड़े भाव एवं मान से मेरे लेख और फोटो मिलने-जुलने वालों को दिखाते थे। बड़े भाग्यशाली होते हैं वे लोग, जिन पर उनके माता-पिता को मान और गौरव होता है। पर दुःख है कि भौतिक रूप से उपस्थित रहकर उनकी सेवा नहीं कर सका।

29 जुलाई, 2022 – मेरी स्मृतियों में टंका-गुँथा एक विशेष दिवस।

यद्यपि कुछ बातें, कुछ स्मृतियाँ अमिट होती हैं, अनिवार्य होती हैं, अस्तित्व के प्रमाण होती हैं। फिर भी, कदाचित इस लेख के बहाने पिता जी और पिता जी के बहाने लेख की याद सदा बनी रहेगी।

विधाता ने यह अविस्मरणीय संयोग भी रच दिया। पिता जी की विदा की अंतिम वेला वाले दिन बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक इस लेख का प्रकाशित होना, दैव-योग ही है। ‘उसकी’ योजना, वही जाने।

नौकरी करने वालों को ‘अंतिम प्रणाम’ का भी अवसर बड़े भाग्य से मिलता है। इसी का सुख व संतोष है कि ‘अंतिम प्रणाम’ कर सका।

नितांत निजी प्रसंगों को सार्वजनिक करने की प्रवृत्ति समय के साथ जाती रही है। पर कई बार जब आप भावात्मक संवेगों को स्वयं तक रखने लगते हैं, तो आठों पहर भीतर एक हूक-सी उठी रहती है, भीतर ही भीतर पिराते रहना और असह्य होता है…

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