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मेरी लघु फेसबुकिया आत्मकथा

Awanish P. N. Sharma

by Awanish P. N. Sharma
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आज फेसबुक पर विचारधारा, राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय प्रकरणों, धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान आदि आदि असंख्य विषयों पर लिखने वाली तमाम राष्ट्रवादी कलमें हैं और बेहतर बहुत बेहतर लिख भी रही हैं। लेकिन एक बात सभी को माननी ही चाहिए कि फेसबुक जैसे लोकतांत्रिक जन अभिव्यक्ति के मंच पर कभी अंग्रेजियत का माहौल ज्यादा चलन में था और हिंदी पट्टी के लेखन में वामपंथियों का कब्जा था। हम जैसे तमाम राष्ट्रवादी फेसबुकिये अपनी वाल पर दो चार लोगों के आने और पोस्ट की बोहनी हो जाने को तरसते थे। वामपंथी और क्षद्म सेक्युलर मुहल्लों में जाकर कमेंट्स में अपनी बातें लिखते थे, अपना राष्ट्रवादी एजेंडा घुसेड़ते थे और प्रतिउत्तर में एक होकर हम पर टूट पड़ने वाले तमाम वामपंथियों, कांग्रेसियों, जातिखोरों, कथित सेक्युलरों आदि आदि की वर्चुअल लाठियाँ खा कर आभाषी लहूलुहान होकर अपनी प्रोफाइलों पर वापस आ जाया करते थे आह-आह करते हुए। फिर अगले दिन की शुरुआत उसी उत्साह से होती थी, हाल भले ही वही पिछले दिन वाला हुआ करता था। उन्हीं वैचारिक संघर्ष के दिनों में गिरोहों की पोस्टों पर पिटते-पिटाते और अपने वाला देख- समझ कर एक दूसरे बचाते, समर्थन करते हुए शुरुआती दौर के अनेक मित्रों से परिचय हुआ, परिचय आगे बढ़ता गया और आभासी से असल जीवन की मित्रताओं में बदला। अंग्रेजियत से लड़ने का तो ये उत्साह था कि हमने अंग्रेजी के वाक्यों को भी देवनागरी में लिखने की जिद ठाना जो आज भी कायम है।

एक बात साफ थी कि राष्ट्रवादी लेखन के उन शुरुआती दिनों, सालों में न कहीं धर्म-इतिहास चर्चा दिखती थी, न ही आह कविता-वाह कविता का कोई अस्तित्व था, न ही ले किताब-दे किताब के जलसे थे, न ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय इतिहास-भूगोल के परचम लहराते थे, न ही राष्ट्रवादी उंगलियां लहरा-लहरा कर गाँव-गिरांव घूमती तमाम सुकोमल कलमें थीं जो क्या लिख दिया-क्या लिख दिया के कीर्तनों से गुंजायमान थीं।

ऐसा नहीं था कि राष्ट्रवादी भाव से लिखने, सोचने, समझने वाली कलमें थीं नहीं लेकिन वे सब भी जरा संभल के लिखा करती थीं क्योंकि माहौल बिल्कुल भी सकारात्मक तो क्या दो लाइन लिख देने पर खारिज हो जाने वह खतरा था जिसे कोई भी रचनात्मक व्यक्तित्व सह नहीं सकता था, सह पाना आसान भी नहीं था।

फिर क्या था जिसने जन अभिव्यक्ति के इस मंच को राष्ट्रवादी बहुलता में बदला?

तब था केवल और केवल राष्ट्रवादी राजनैतिक-वैचारिक लेखन जो 2012-13 और उससे भी पहले के दौर में देश में हो रहे राजनैतिक परिवर्तन की संभावनाओं के समर्थन में गिरते-पड़ते, तमाम उपहासों, तिरस्कारों को सहते-सहाते आगे बढ़ता रहा और 2013-14 आते आते सोशलमीडिया खास तौर पर फेसबुक की अंग्रेजियत पर हिन्दी की बढ़त हुई, तिस पर हिंदी पट्टी के फेसबुकिया लेखन पर वामपंथियों के कब्जे का दमन कर राष्ट्रवादी कब्जा बहाल हुआ। इसमें साथ मिला असंख्य अनाम राष्ट्रवादियों का जो लगातार हौसला बढ़ाते रहे। समर्थन में दो शब्दों की टिप्पणी ही सही, दो-चार दस लाइक वगैरा जैसे आभाषी पीठ ठोंकना ही सही वो किया। हम जैसों के लिए गर्व का विषय है कि हमने इस स्नेह-समर्थन को महज आभाषी ही नहीं रहने दिया बल्कि जमीन पर उतरे और फेसबुकिया मित्रों से रूबरू संपर्क का चलन शुरू किया जो आज बहुत ही सुन्दर ढंग से आगे.. लगातार आगे बढ़ता दिखाई देता है जिसे देखना सुखद है। आज इस मंच पर राष्ट्रवादी भाव से लिखने वाली हर अच्छी कलम को जो भारी पाठक सँख्या का प्यार, स्नेह और सम्मान मिला है… मिल रहा है और मिलता रहेगा वह सारी सँख्या इन्हीं राजनीतिक लेखन और नारों के खाद-पानी से तैयार हुआ है। जिस रचनात्मक लहलहाती फसल को सुन्दरता से काटा जा रहा है उसकी जमीन में 2014 से भारत में बदली राजनैतिक सत्ता और उसके पीछे जमीन से लेकर इस आभाषी दुनियां तक बहे राष्ट्र प्रथम भाव की वो असँख्य पसीनों की बूँदें ही हैं जिन्होंने इस कठोर मिट्टी को नम किया है।

हम शुरुआती राजनीतिक-वैचारिक कलमों को वामपंथियों की पोस्टों पर तमाम तानों, उपहासों में जो सबसे ज्यादा सुनने को मिला करता था वो था- है कोई महिला लिखने वाली तुम्हारे यहाँ, तुम संघियों.. दिमाग से पैदलों को महिलाओं को केवल पैरों के नीचे दबा कर रखना आता है। और फिर गिरोह के तमाम कारिंदों की हा हा हा हा और हम जैसे लोगों का आँखें नीची कर वापस लौट आना। आज खुल के कहूँगा तब मैंने इस तिरस्कार और अपमान का बदला लेने की मुहिम शुरू की। जो भी महिला प्रोफ़ाइल मुझे राष्ट्रवादी विचार की दिखती मैं शुरुआती दिनों में उनके इनबॉक्स में जाता और उनसे आग्रह करता, उन्हें प्रेरित करता कि वे पोस्टों पर किये अपने कमेन्ट की जगह उन्हीं टिप्पणियों को पोस्ट के रूप में लिखें। कई बार तो इनबॉक्स में उनके लिखे को जरा जोड़-घटा के वापस भेज कर पोस्ट डालने का आग्रह करता। जिस दौर में राष्ट्र प्रथम भाव की महिला प्रोफाइलों के लिए अभिव्यक्ति की सार्वजनिक टिप्पणी करना मुहाल था वहाँ हम जैसों की फेसबुक वॉल पर टिप्पणी कर देना और सम्मान बने रहने का भरोसा कायम हुआ इसका गर्व है। गर्व इस बात का भी है कि आज तमाम महिला प्रोफाइलें हैं जिन्होंने विचारधारा के उन संघर्ष के दिनों से शुरू कर आज भी इस मंच पर सक्रिय हैं। यह सिलसिला लगातार बढ़ता रहा और ईश्वर करे बढ़ता रहेगा।

यह सब लिखते हुए याद आता है मेरी एक अभिभावक व्यक्तित्व आभाषी या असल जीवन की चर्चाओं में चुहल करते हुए कहा करती थीं… फेसबुक पर सक्रिय किसी राष्ट्रवादी महिला प्रोफ़ाइल के बारे में जानना हो तो अवनीश से पूछिए आपको जानकारी मिल जाएगी। मैं गर्व से कहा करता था हाँ बिल्कुल। एक बात और जो अपने फेसबुकिया व्यवहार के बारे में कहूँगा- मैने कभी भी फेसबुक के लाइक आदि को पसन्द-नापसन्द की तरह कभी नहीं लिया बल्कि हमेशा उसे सीन यानी देख लिया के तौर पर इस्तेमाल किया है। सहमति-असहमति को जरूरत पड़ने पर टिप्पणी में लिख कर अभिव्यक्त करता आया हूँ। आज पोस्टों पर देने को कई भाव मौजूद हैं.. जब केवल एक लाइक का भाव था तब भी और आज भी मेरा यही फेसबुकिया व्यवहार रहा। हर पोस्ट हमेशा पब्लिक रही, क्या मित्र क्या अमित्र सभी की टिप्पणी के लिए खुली रही। मैं अपनी निजी बात करूँ तो कुल मिलाकर इस मंच पर मेरी दो फेसबुक प्रोफाइल रही पहली जो 2009-10 में बनायी और तकनीकी दिक्कतों, पासवर्ड आदि भूल जाने से 2011-12 तक फेसबुक ने बन्द कर दी और दूसरी ये जो पहली के बाद एक मात्र बनी और कायम है।

आज इन तमाम सालों में बहुत अच्छा लगता है जब इस लोक अभिव्यक्ति के इस मंच पर राष्ट्रवादी भाव का प्रचण्ड कब्जा है और इस कब्जे को न सिर्फ बरकरार रखने बल्कि आगे बढ़ाते, मजबूत करते हुए तमाम विषयों पर लेखन की मजबूत धाराएँ हैं। कभी इनबॉक्स में कामरेड और साथी का अर्थ पूछने वाले वामपंथ पर पूरे तर्क और कुशलता से गंभीर लेखन करते हैं।

हाँ… दो और भावों की चर्चा न करूँ तो बात अधूरी रह जायेगी, पहला है राष्ट्रवादी खेमों में अन्तर्कलह या आपसी वैचारिक विरोध आदि की बातें तो यहाँ कहूँगा मेरी नजर में यह किसी भी विचारधारा या भाव के परिपक्व होने कि निशानी होती है और मैं इसे कभी नकारात्मक तौर पर नहीं लेता। जैसे जैसे कोई विचारधारा या भाव परिपक्व होता जाता है उसमें अन्तर्धारायें उपजती जाती हैं और यह एक सहज प्रक्रिया है, होते रहना चाहिए भी क्योंकि अंततः यह धारा को मजबूत ही करती है। दूसरी बात… जो है एक ऐसी पीढ़ी का इस मंच पर आना जो फेसबुक की ही कलमों, व्यक्तित्वों को अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाता है सकारात्मक या नकारात्मक दोनों भाव से। यह अपनी-अपनी रुचि का विषय है और ऐसे चलन पर न कोई आदेश देना बनता है किसी का न ही आग्रह ही करना क्योंकि यह पसन्द की स्वतंत्रता है। रही बात जाति जिसके भाव को मैं हमेशा जातिखोरी कह के संबोधित करता हूँ, भाषा, क्षेत्रीयता आदि के संकीर्ण भाव से उपजे नकारात्मक गिरोहबंदी आदि कि तो यह समाज का चरित्र है और वह होता रहेगा, होता रहता है यहां और साफ-साफ दिखता भी है। ऐसे सस्तेपन और संकीर्णताओं को धीरे धीरे ही खुद मिटना होगा… मिटेगा भी ऐसा मेरा विश्वास है। आगे अगर अगर कहूँ तो सन्तोष के भाव से कहूँगा कि इन तमाम सालों में मैंने सोशलमीडिया के किसी व्यक्ति, व्यक्तित्व, उसकी लेखनी, उसके विचार को न अपने लेखन का विषय बनाया, न ही अपनी फेसबुक वॉल पर कोई स्थान दिया। हाँ किसी के रचनात्मक काम यानी पुस्तक लेखन, कोई रचनात्मक आयोजन, उपलब्धि, सेवा आदि को जरूर स्थान दिया व्यक्ति के बजाय। जो कुछ समर्थन-विरोध करना हुआ टिप्पणी में दर्ज कराते गए सालों साल। इसे लेकर कई बार लोगों के गुस्से का शिकार भी हुआ लेकिन मेरा मानना रहा और आज भी है कि फेसबुकिया लेखन के लिए हमारे पास विषयों, मुद्दों की कोई कमी है क्या जो हम मेरी-तेरी-उसकी बातें करते रहें! विचारधारा की यह लड़ाई इतनी बड़ी और लंबी है कि इन जैसी संकीर्णताओं में उलझने का समय ही कहाँ है!

आज बहुत अच्छा लगता है जब पाताल से लेकर सूर्य-मंगल जैसे विषयों, भावों पर लिखने वाली सुन्दर, मनमोहक, ज्ञानवान, विदुषी और विदूषक असंख्य कलमें इस मंच पर राष्ट्रवादी लेखन की शोभा बढ़ा रही हैं तो उन सभी को हम जैसे तमाम सस्ते शुरुआती राजनैतिक लेखन, नारेबाजों को मन ही मन धन्यवाद जरूर देना चाहिए कि आज जिस मैदान पर आप तमाम सुन्दर खेल.. खेल रहे हैं उसे समतल करने में एक टोकरी मिट्टी और एक चोट फावड़े की हम जैसे तमाम नामधारी, अनाम वैचारिक मजदूरों का जरूर रहा है।

चलते चलते- क्या समझते हो मेरे प्यारों! हम ‘पीपल के पात झरे.. झरे रे झरे रे झरे रे वाली कविताएँ, अँधेरी रातों में सुनसान राहों पर आह करती वेदना.. उफ्फ करती संवेदना जैसे लेखन की कलम नहीं लहरा सकते? लहरा सकते हैं लेकिन हम जैसों को ही सब कुछ नहीं करना और भला करना भी क्यों चाहिए जब इतना कौशल आज हमारी राष्ट्रवादी जमीन पर पुष्पित-पल्लवित हो रहा है।

और अंत में- इसी मंच पर लिखना सिखाने वाले अग्रज मिले, अभिभावक मिले। यहीं वरिष्ठजनों का सानिध्य पाया उनके अनुभवी जीवनदर्शन को देखने समझने का अवसर मिला। यहीं तमाम हम उम्र मिले, पुराने साथियों-सहपाठियों से पुनर्मिलन हुआ। यहीं तमाम स्नेही अनुज मिले। ईश्वर करे ये आगे बढ़े और बढ़ता ही रहे… इसलिए हम जैसे तमाम शुरुआती राजनीतिक-वैचारिक नारेबाजों के प्रति धन्यवाद भाव रखा करो बे मेरे प्यारे-प्यारिओं।
आप सबका
मैं

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