आज फेसबुक पर विचारधारा, राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय प्रकरणों, धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान आदि आदि असंख्य विषयों पर लिखने वाली तमाम राष्ट्रवादी कलमें हैं और बेहतर बहुत बेहतर लिख भी रही हैं। लेकिन एक बात सभी को माननी ही चाहिए कि फेसबुक जैसे लोकतांत्रिक जन अभिव्यक्ति के मंच पर कभी अंग्रेजियत का माहौल ज्यादा चलन में था और हिंदी पट्टी के लेखन में वामपंथियों का कब्जा था। हम जैसे तमाम राष्ट्रवादी फेसबुकिये अपनी वाल पर दो चार लोगों के आने और पोस्ट की बोहनी हो जाने को तरसते थे। वामपंथी और क्षद्म सेक्युलर मुहल्लों में जाकर कमेंट्स में अपनी बातें लिखते थे, अपना राष्ट्रवादी एजेंडा घुसेड़ते थे और प्रतिउत्तर में एक होकर हम पर टूट पड़ने वाले तमाम वामपंथियों, कांग्रेसियों, जातिखोरों, कथित सेक्युलरों आदि आदि की वर्चुअल लाठियाँ खा कर आभाषी लहूलुहान होकर अपनी प्रोफाइलों पर वापस आ जाया करते थे आह-आह करते हुए। फिर अगले दिन की शुरुआत उसी उत्साह से होती थी, हाल भले ही वही पिछले दिन वाला हुआ करता था। उन्हीं वैचारिक संघर्ष के दिनों में गिरोहों की पोस्टों पर पिटते-पिटाते और अपने वाला देख- समझ कर एक दूसरे बचाते, समर्थन करते हुए शुरुआती दौर के अनेक मित्रों से परिचय हुआ, परिचय आगे बढ़ता गया और आभासी से असल जीवन की मित्रताओं में बदला। अंग्रेजियत से लड़ने का तो ये उत्साह था कि हमने अंग्रेजी के वाक्यों को भी देवनागरी में लिखने की जिद ठाना जो आज भी कायम है।
एक बात साफ थी कि राष्ट्रवादी लेखन के उन शुरुआती दिनों, सालों में न कहीं धर्म-इतिहास चर्चा दिखती थी, न ही आह कविता-वाह कविता का कोई अस्तित्व था, न ही ले किताब-दे किताब के जलसे थे, न ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय इतिहास-भूगोल के परचम लहराते थे, न ही राष्ट्रवादी उंगलियां लहरा-लहरा कर गाँव-गिरांव घूमती तमाम सुकोमल कलमें थीं जो क्या लिख दिया-क्या लिख दिया के कीर्तनों से गुंजायमान थीं।
ऐसा नहीं था कि राष्ट्रवादी भाव से लिखने, सोचने, समझने वाली कलमें थीं नहीं लेकिन वे सब भी जरा संभल के लिखा करती थीं क्योंकि माहौल बिल्कुल भी सकारात्मक तो क्या दो लाइन लिख देने पर खारिज हो जाने वह खतरा था जिसे कोई भी रचनात्मक व्यक्तित्व सह नहीं सकता था, सह पाना आसान भी नहीं था।
तब था केवल और केवल राष्ट्रवादी राजनैतिक-वैचारिक लेखन जो 2012-13 और उससे भी पहले के दौर में देश में हो रहे राजनैतिक परिवर्तन की संभावनाओं के समर्थन में गिरते-पड़ते, तमाम उपहासों, तिरस्कारों को सहते-सहाते आगे बढ़ता रहा और 2013-14 आते आते सोशलमीडिया खास तौर पर फेसबुक की अंग्रेजियत पर हिन्दी की बढ़त हुई, तिस पर हिंदी पट्टी के फेसबुकिया लेखन पर वामपंथियों के कब्जे का दमन कर राष्ट्रवादी कब्जा बहाल हुआ। इसमें साथ मिला असंख्य अनाम राष्ट्रवादियों का जो लगातार हौसला बढ़ाते रहे। समर्थन में दो शब्दों की टिप्पणी ही सही, दो-चार दस लाइक वगैरा जैसे आभाषी पीठ ठोंकना ही सही वो किया। हम जैसों के लिए गर्व का विषय है कि हमने इस स्नेह-समर्थन को महज आभाषी ही नहीं रहने दिया बल्कि जमीन पर उतरे और फेसबुकिया मित्रों से रूबरू संपर्क का चलन शुरू किया जो आज बहुत ही सुन्दर ढंग से आगे.. लगातार आगे बढ़ता दिखाई देता है जिसे देखना सुखद है। आज इस मंच पर राष्ट्रवादी भाव से लिखने वाली हर अच्छी कलम को जो भारी पाठक सँख्या का प्यार, स्नेह और सम्मान मिला है… मिल रहा है और मिलता रहेगा वह सारी सँख्या इन्हीं राजनीतिक लेखन और नारों के खाद-पानी से तैयार हुआ है। जिस रचनात्मक लहलहाती फसल को सुन्दरता से काटा जा रहा है उसकी जमीन में 2014 से भारत में बदली राजनैतिक सत्ता और उसके पीछे जमीन से लेकर इस आभाषी दुनियां तक बहे राष्ट्र प्रथम भाव की वो असँख्य पसीनों की बूँदें ही हैं जिन्होंने इस कठोर मिट्टी को नम किया है।