Home राजनीति महात्मा गाँधी के विचार
[गांधी जी के ये जो विचार मैं यहाँ दे रहा हूँ, सभी प्रार्थना सभाओं में व्यक्त किए गए उनके विचारों के संकलन प्रार्थना प्रवचन खंड 1 से लिए गए हैं। उन दिनों कारक (ने, से, को आदि) संज्ञा से जोड़कर लिखे जाते थे, जैसे कि अभी भी सर्वनाम से जोड़कर लिखे जाते हैं। किताब में कई जगह आनुनासिक की जगह अनुस्वार लगे हैं। मैंने उन्हें सुधारने की बिलकुल कोशिश नहीं की है। बात और प्रस्तुति की मौलिकता बनी रहे, इस उद्देश्य से जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ।]
पंजाब में जो लोग मर गए उनमें से एक भी वापस आने वाला नही है। अंत में तो हम सबको भी वहीं पर जाना है। यह ठीक है कि उनको कत्ल किया गया और वे मर गए; पर दूसरा कोई है जेसे मर जाता है या और किसी तरह से मरता है। जो पैदा होगा वह मरेगा ही। पैदा होने में तो किसी अंश में मनृष्य का हाथ है भी; पर मरने में सिवाय ईश्वरके किसी का हाथ नहीं होता। मौत किसी भी तरह टाली नहीं जा सकती। वह तो हमारी साथी है, हमारी मित्र हे। अगर मरने वाले बहादुरी से मरे हैं तो उन्होंने कुछ खोया नहीं, कमाया है। लेकिन जिन लोगों ने हत्या की उनका क्या करना चाहिए, यह बड़ा सवाल है। बात ठीक हैं कि आदमी से भूल हो जाती है। इंसान तो भूलों की पोटली है; लेकिन हमें उन भूलों को धोना चाहिए। खुदा हमारे काम को नहीं भूलेगा। जब हम उसके यहां जायेंगे, वह हमारा हृदय देखेगा। वह हमारे हृदय को जानता है। अगर हमारा हृदय बदल गया तो वह सब भूलों को माफ कर देगा।
पंजाब में बहुत से मित्र हैं, जो अपने को मेरे भक्त भी बताते हैं। पर मैं कौन हूं कि वे मेंरे भक्त कहलाएं! उन सब मित्रों का आग्रह है कि जब मैं दिल्ली तक आ गया हूं तो कम-से-कम एक रात को पंजाब भी जाऊं, जिससे वहां लोगों को कुछ तसल्ली मिले। हवाई जहाज से जाने-में तो कुछ ही घंटे लगेंगे। लेकिन में किसी के कहने पर कैसे जाऊं? में तो ईश्वरके कहने पर, ईश्वर नहीं तो अपने हृदयके कहने पर ही वहां जाऊंगा। नो आखाली में किसी के बुलाने पर नहीं गया था। मेंने यहां से जाते समय ही कहा था कि मेरा हृदय मुझे वहां जाने को कह रहा है। बिहार में भी बहुत समय तक लोग मुझे बुलाते रहे; पर मैं किसी के बुलाने- पर वहां नहीं गया। जब डाक्टर महमूद साहब ने लिखा कि तुम आ जाओ तभी हमारा दिल साफ हो सकेगा तो मैं बिहार चला गया।
1 अप्रैल 1947, प्रार्थना-प्रवचन पहला खंड, 1948, सस्ता साहित्य-मंडल, नई दिल्ली; पृष्ठ 4
वाइसराय ने मुझे शुक्र तक बांध रखा है। जवाहर भी मुझे कैदी बनाना चाहते हें। तीन दिन बाद में सब बातें बता दूंगा। छिपाना कछ नहीं है; पर होना क्या है! मेरे कहने के मुताबिक तो कुछ होगा नहीं। होगा वही जो कांग्रेस करेगी। मेरी आज चलती कहां है? मेरी चलती तो पंजाब न हुआ होता,न बिहार होता,न नोआखाली। आज कोई मेरी मानता नहीं। मैं बहुत छोटा आदमी हूं। हां, एक दिन मैं हिंदुस्तान में बड़ा आदमी था। तब सब मेरी मानते थे,आज तो न कांग्रेस मेरी मानती है, न हिंदू और न मुसलमान। कांग्रेस आज है कहां? वह तो तितर-बितर हो गई है। मेरा तो अरण्य-रोदन चल रहा है। आज सब मुझे छोड़ सकते हैं। ईश्वर मुझे नहीं छोड़ेगा। वह अपने भक्तकी परख कर लेता है। अंग्रेजी में कहा है कि वह ‘हाउंड ऑव दी हेवन’ है, वह धर्मका कुत्ता है, यानी धर्म को ढूंढ़ लेता है। वही मेरी बात सुनेगा तो काफी है। वह ईश्वर जब आपके हृदय में आ जाएगा तो आप वही करेंगे जो वह कराएगा। इसलिए हमें विचारशील प्राणी रहना चाहिए। थोड़ी-सी बात पर बकवास शुरू नहीं कर देनी चाहिए।
1 अप्रैल 1947, प्रार्थना-प्रवचन पहला खंड, 1948, सस्ता साहित्य-मंडल, नई दिल्ली; पृष्ठ 7

आप इसे बुजदिली न समझें। जब आप बड़ी तादाद में होते और सब कहते कि प्रार्थना मत करो तो मैं जरूर करता। तब मैं कहता कि आप मेरा गला काटिए, मैं प्रार्थना करता हूं, पर यहां आप सब के बीच में दो-पांच आदमी मुझे रोकना चाहते हैं। आप उन्हें दबा लें और मुझसे कहें कि प्रार्थना करो तो वह शैतानी होगी। और शैतान के साथ मेरी निभती नहीं। जो खुदा का यानी ईश्वर का दुश्मन है वह राक्षस है। उस राक्षस के साथ मेरी बन नहीं सकती। मेरा लड़ने का तरीका तो राम-जैसा है। राम-रावण-युद्ध जब चल रहा था तब विभीषण ने रामसे पूछा कि आप बिना रथ के हैं, आप कैसे लड़ेंगे? तब राम ने सच्चाई, शौर्य आदि गुणों के आधार पर कैसे लड़ाई लड़ी जाती है यह बताया। ‍राम ईश्वर का भक्त था इसलिए बात भी वैसी करता  था !, उसको मैंने भगवान नहीं माना है, भक्त ही माना है। फिर भक्त में से वह भगवान बन गया। तुलसीदास ने भी राम को अशरीरी बताया है। वह अशरीरी सबके शरीरमें भरा है। उसी को हम भजते हेैं। मैं उस राम का पुजारी हूं। रावण की पूजा मैं कैसे कर सकता हूं? चाहे आप मुझे मार डालें, आप मुझ पर थूकें, मैं मरते दम तक ‘राम-रहीम,’ कृष्ण-करीम’ कहता रहूंगा। और फिर उस वक्त भी जब आप मुृझ पर हाथ चलाते होंगे तो मैं आपको दोष न दूंगा। मैं ईश्वर से भी यह नहीं कहूंगा कि यह तू मेरे ऊपर क्या कर रहा है? मैं उसका भक्त हूं। मैं उसका किया स्वीकार लूंगा।

3 अप्रैल 1947, प्रार्थना-प्रवचन पहला खंड, 1948, सस्ता साहित्य-मंडल, नई दिल्ली, पृ. 11-12

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