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ऐसा तो नहीं था रावण

Dhruv Gupt

by Dhruv Gupt
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दशहरे में भगवान राम के विजयोत्सव के साथ रावण के पुतला दहन की परंपरा भी है।ऐसा क्यों है यह समझ नहीं आता। युद्ध में मारे गए किसी योद्धा को एक कर्मकांड की तरह बार-बार जलाकर मारना मनुष्यता के विपरीत कर्म है। इस परंपरा पर पुनर्विचार की आवश्यकता कभी किसी ने महसूस नहीं की। बेशक रावण का अपराध गंभीर था। उसके द्वारा देवी सीता के अपहरण को इसीलिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि उसने ऐसा अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से किया था। शूर्पणखा का अपमान सीता ने नहीं किया था। यह अपमान राम और लक्ष्मण ने किया था। बदला भी उन्हीं से लिया जाना चाहिए था।

अपने पक्ष की किसी स्त्री के अपमान का प्रतिशोध शत्रुपक्ष की स्त्री का अपमान करके लेना स्त्री को पुरुष की वस्तु या संपति समझने की पुरुषवादी मानसिकता की उपज है। निसंदेह रावण ने अक्षम्य अपराध किया था लेकिन इस अपराध के बीच रावण के चरित्र का एक उजला पक्ष भी सामने आया था। रावण ने अपनी बहन की नाक के एवज में सीता की नाक काटने का प्रयास नहीं किया। सीता के साथ उसका आचरण मर्यादित रहा था। उनकी इच्छा के विरुद्ध रावण ने उनसे निकटता बढ़ाने का प्रयास नहीं किया। स्वयं ‘रामायण’ के रचयिता महर्षि बाल्मीकि ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है – राम के वियोग में व्यथित सीता से रावण ने कहा कि यदि आप मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती हैं तो मैं आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता।

विजयादशमी का दिन राम के हाथों रावण की पराजय और मृत्यु का दिन है। हमारी संस्कृति में किसी युद्ध में एक योद्धा के लिए विजय और पराजय से ज्यादा बड़ी बात उसका पराक्रम माना जाता रहा है। रावण अपने जीवन के अंतिम युद्ध में एक योद्धा की तरह ही लड़ा था। राम ने उसे मारकर उसे उसके अपराध का दंड दिया। बात वहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। उसके इस अपराध को छोड़ दें तो रावण में गुणों की कमी नहीं थी। वह वीर, तेजस्वी, प्रतापी और पराक्रमी होने के अलावा वास्तुकला और संगीत सहित कई विद्याओं का जानकार था। महर्षि बाल्मीकि कुछ दुर्गुणों के बावजूद रावण को चारों वेदों का ज्ञाता, महान विद्वान और धैर्यवान बताते हैं। वीणा बजाने में उसे विशेषज्ञता हासिल थी। उसने भगवान शिव के तांडव की धुन को वीणा पर बजाकर उन्हें सुनाया था। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उसे एक शक्तिशाली खड्ग उपहार में दिया था। उसने एक वाद्य यंत्र का आविष्कार भी किया था जिसे रावण हत्था कहा जाता है। उसे मायावी भी कहा गया क्योंकि वह इंद्रजाल, तंत्र, सम्मोहन जैसी गुप्त विद्याओं का भी ज्ञाता था।

राम ज्ञानी थे। रावण के अहंकार और अपराध के बावजूद वे उसकी विद्वता और ज्ञान का सम्मान करते थे। उसकी मृत्यु पर दुखी भी हुए थे। उसके मरने से पहले उन्होँने ज्ञान की याचना के लिए अपने भ्राता लक्ष्मण को उसके पास भेजा था। इसका अर्थ यह है कि स्वय राम ने मान लिया था कि रावण को उसके किए अपराध का दंड मिल चुका है। अब उससे शत्रुता का कोई अर्थ नहीं। फिर हम कौन हैं जो सहस्त्रों सालों से रावण को निरंतर जलाए जा रहे हैं ? हमारी संस्कृति में तो युद्ध में लड़कर जीतने वालों का ही नहीं, युद्ध में लड़कर मृत्यु को अंगीकार करने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। मरने के बाद भी एक योद्धा को बार-बार मारना और मारने के बाद उसकी मृत्यु का उत्सव मनाना हर युग और हर संस्कृति में अस्वीकार्य है।


अब रावण में कितनी अच्छाई थी और कितनी बुराई , इस पर बहस होती रहेगी।हां, एक बड़ी शिकायत इस देश के चित्रकारों और मूर्तिकारों से रहेगी। वे लोग रावण के ऐसे कुरूप और वीभत्स पुतले, चित्र, मूर्तियां क्यों बनाते हैं ? रावण कुरूप तो बिल्कुल नहीं था। उसके दस सिर भी नहीं थे। दस सिर की कल्पना यह दिखाने के लिए की गई थी कि उसमें दस लोगों के बराबर बुद्धि और बल था। जैसा कि हमारी रामलीला, फिल्मों या टीवी सीरियल्स में चित्रित किया जाता रहा है, वह सदा प्रचंड क्रोध से भी नहीं भरा रहता था और न मूर्खों की भांति बात-बेबात अट्टहास ही करता था। ‘रामायण’ में ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं जिनसे यह अनुमान होता है कि अहंकार के बावजूद रावण में गंभीरता थी और स्थितियों के अनुरूप आचरण का विवेक भी। देखने में भी वह राम से कम रूपवान नहीं था। उसके रूप, सौंदर्य और शारीरिक-सौष्ठव के उदाहरण दिए जाते थे। हनुमान स्वयं पहली बार रावण को देखकर मोहित हो गए थे। ‘वाल्मीकि रामायण’ का यह श्लोक देखें – अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥’ अर्थात रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध होकर कहते हैं कि रूप, सौंदर्य, धैर्य और कांति सहित सभी लक्षणों से युक्त रावण में यदि अधर्म बलवान न होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन सकता था।

वैसे भी देश-दुनिया के लंबे इतिहास में रावण अकेला अपराधी नहीं था। उससे भी बड़े- बड़े अभिमानी, दुराचारी और हत्यारे हमारे देश में हुए हैं। उनके पुतले कभी नहीं जलाए गए। एक अकेले रावण के प्रति हमारा ऐसा दुराग्रह क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि रावण को लंपट और वीभत्स दिखाकर, उसकी हत्या का वार्षिक समारोह मनाकर वस्तुतः हम अपने भीतर के काम, क्रोध, अहंकार और भीरुता से ही आंखें चुराने का प्रयास कर रहे होते हैं ? मरे हुए रावण के पुतलों को जलाने में कोई शौर्य नहीं है। उसे उसके किए का दंड हजारों सालों पहले मिल चुका है। जलाना है तो अपने ही भीतर छुपी लंपटता, कामुकता और बलात्कारी मानसिकता जैसे मनुष्यता के शत्रुओं को जलाकर राख कर डालिए ! एक सभ्य समाज की कल्पना को साकार करने की दिशा में यह एक सच्ची पहल होगी।

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