दीपावली से पूर्व का माहौल मुझे बहुत पसंद है क्योंकि मुझे यह किसी ऐसे क्षेत्र की स्मृति दिलाता है जहां सितंबर से पतझड़ शुरू होता रहा हो।
लेकिन सभी उत्सवों में मुझे देवशयनी एकादशी और देवठान एकादशी बहुत प्रिय है।
जिस वर्ष देवशयन एकादशी के दिन बादल छाए हों पर बरस न रहे हों और ठंडी पुरबाई चल रही हो, ऐसे वातावरण में खुले आकाश के नीचे मिट्टी के पांच पिंडों को पंचमहाभूत या देव पंचायतन के प्रतीक और इधर कार्तिक की समशीतोष्ण एकादशी की रात्रि में चंद्र रश्मियों के नीचे इक्षुओं के मंडप तले विष्णु को जगाने का उपक्रम और हवन….
इन दोंनों उत्सवों पर खुले आसमान के नीचे हवन कुंड से उठती घृत आहुतियों की दैवी सुगंधि मुझे हजारों वर्ष पूर्व धकेल देती है जब मेरे महान आर्य पूर्वज इसी तरह खुले गगन के नीचे देवों का आह्वान करते थे।
एक सुहावना दृश्य साकार हो उठता है-
कलकल बहती वंक्षु नदी के किनारे मेरे ऋषि पूर्वज यज्ञकुंड में अपने देवों का गंभीर स्वर में मंत्रोच्चार कर आह्वान कर आहुतियां दे उन्हें तृप्त कर रहे हैं।
हवियों से तृप्त और तेजोद्दीप्त देवता संसार को सुख, शांति, समृद्धि व पराक्रमी होने का आशीर्वाद दे रहे हैं।
अगर पुनर्जन्म सत्य है जो कि सैद्धांतिक तौर पर सत्य है ही, तो मेरा पुनर्जन्म सीधे आर्यों के युग से ही हुआ है क्योंकि कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं इस युग का हूँ ही नहीं।