कल-परसों इतिहास-लेखन पर ‘प्रधानसेवक’ और माननीय ‘ग्रुहमंत्री’ ने कुछ ज्ञान दिया है। मामला लाचित बोड़फुकान की जयंती का था। अस्तु, यह तो मानना होगा कि इस सरकार के आने के बाद इतिहास के हाशिए पर धकियाए गए कई नायक-नायिकाएँ मंचस्थ हो रहे हैं और जबरन केंद्र में लाए गए ‘खलनायकों’ का रंग-रोगन उतर रहा है, लेकिन बात यहाँ इतिहास की।
इतिहास बड़ा महीन विषय है। मुझे हालाँकि हँसी और रोना इस बात पर आया कि सत्ता के 8 वर्षों बाद भी प्रधानसेवक और ग्रुहमंत्री दुहाई ही दे रहे हैं कि देखो जी, हमारा तो इतिहास गलत लिख दिया। दिल्ली के ठग की बोली उधार लूँ तो- अरे, तो सही इतिहास लिखवा न, कर ना….।
किसने आपको मना किया है? आप लगभग एक दशक बाद अपील कर रहे हैं कि सच्चे नायक-नायिकाओं का इतिहास लिखिए। आपकी इस अपील का नतीजा क्या हुआ है, या होगा पता है, प्रधानसेवक जी? हरेक टॉम-डिक-हैरी अब इतिहासकार हो जाएगा और आपके अनपढ़-कुपढ़ मंत्री हरेक सप्ताह किसी महान पुस्तक का लोकार्पण करते नजर आएँगे।
इसमें भी हालाँकि, वामी-कौमी ही तुरंत भगवा गमछा पहिर कर महफिल लूट लेंगे। पजामा शेरवानी और काणा अयूब जैसे इसमें भी बाजी मार जाएँगे। आखिर, जब जावड़ेकर मंत्री थे तो काणा की किताब के साथ अपनी गर्वीली फोटू शेयर करते ही थे।
लकड़बग्घों की जानकारी के लिए बता दूँ कि अभी ICHR का अध्यक्ष जिस उमेश कदम को इन्होंने बनाया है, वह नामवर मोदीजीवा के खिलाफ पेटिशन पर हस्ताक्षर करनेवाले नामचीनों में एक हैं। आज वही इतिहास बचाएँगे। ठीक उसी तरह बद्री नारायण समाजशास्त्र की व्याख्या करेंगे, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से। ये तो बस दो नाम बताए हैं। सूची बड़ी लंबी है। केवल जेएनयू और डीयू की नियुक्तियों पर टिप्पणी कर दूँ तो राष्ट्रवाद का दुश्मन घोषित हो जाऊंगा।
1998-99 का समय था। पहली बार राष्ट्रवादी सरकार बन रही थी, गिर रही थी, फिर बन रही थी। काफी उत्साह का मौसम था।
उस वक्त HRD मंत्री भी सुयोग्य मुरली मनोहर जोशी जी थे। जेएनयू पर खास निगाह थी। हम जैसे प्यादे भी सुर्खियों में थे-अगड़म-बगड़म करके। तब हमने एक परियोजना का नाम सुना था, बल्कि उस पर कई मीटिंग्स भी हुईं और खाकसार एकाध में साक्षी भी रहा। वह थी ‘काल-गणना परियोजना’। इसमें चारों युगों -सतयुग से कलियुग तक- का इतिहास लेखन होना था, लगभग 50 हजार वर्षों का तखमीना तय करना था।
अभी कहाँ पहुंची योजना, ये मुझे कम से कम पता नहीं है।
इतिहास का पुनर्लेखन करने के लिए जिस कठोर इच्छाशक्ति और अदम्य जिजीविषा की जरूरत होती है, वह तो कमाल अतातुर्क जैसे फासिस्ट, लोकतंत्र-विरोधी, कट्टर व्यक्ति से ही संभव है। देश भी इस्लामी होना चाहिए, अनुशासन प्रिय।
भारत जैसे अनुशासनहीन देश में, लोकतांत्रिक पद्धति से, ‘सबका साथ, सबका विकास (और अब सबका विश्वास भी)’ चाहनेवाले प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह कर पाएँगे, इसमें संदेह है।
बहरहाल, बहरकैफ…अगर इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत और प्रक्रिया पर कुछ पढ़ना चाहते हैं, तो पहले कमेंट में एक आर्टिकल शेयर किया है। यह 2015 में ही मैंने लिखा था। अब तो खैर, मैंने लिखना-पढ़ना ही लगभग छोड़ दिया है…