Home हमारे लेखकसुमंत विद्वन्स वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 38
अगले दिन प्रातःकाल महाराज दशरथ के सेवक उन्हें जगाने आए। सूत, मागध, वन्दीजन और गायक उन्हें जगाने के लिए मधुर स्वर में गायन करने लगे। उनका गायन सुनकर आस-पास के वृक्षों पर बैठे पक्षी तथा राजमहल के पिंजरों में रखे पालतू पक्षी भी चहचहाने लगे।
कुछ समय पश्चात् सेवक तथा भृत्य भी महाराज के स्नान आदि के लिए सोने के घड़ों में चन्दनमिश्रित जल लेकर आ गए। महाराज की सेविकाएँ उनके पीने के लिए गंगाजल तथा उनके उपयोग के लिए दर्पण, आभूषण और वस्त्र आदि ले आईं। राजाओं के लिए प्रातःकाल लाई जाने वाली ऐसी वस्तुओं को आभिहारिक सामग्री कहा जाता है।
जब सूर्योदय भी हो गया, किन्तु महाराज फिर भी बाहर नहीं निकले, तो सबके मन में शंका हुई कि उनके न आने का कारण क्या हो सकता है?
तब रानियों ने महाराज की शैय्या के निकट जाकर उन्हें जगाने का प्रयास किया, किन्तु महाराज ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे उन स्त्रियों को कुछ आशंका हुई। तब उन्होंने महाराज की कलाई और हृदय की नाड़ियों को टटोला किन्तु वहाँ जीवन का कोई चिह्न नहीं था। अब उन्हें निश्चय हो गया कि महाराज की मृत्यु के विषय में उनकी आशंका सत्य थी।
तत्क्षण ही पूरे अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। रानियाँ अत्यंत दुःखी होकर उच्च स्वर में आर्तनाद करने लगीं। पूरे राजमहल में शोक छा गया। महारानी कौसल्या व सुमित्रा दोनों ही उस समय सोई हुई थीं। कोलाहल सुनकर उनकी नींद टूटी। उन्होंने भी तुरंत आकर राजा को देखा और उनके शरीर को स्पर्श किया। दशरथ जी का शरीर ठण्डा पड़ गया था।
पुत्र-वियोग से पीड़ित वे दोनों माताएँ अब पति के निधन का आभास होते ही फूट-फूटकर रोने लगीं और अत्यधिक शोक से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उसी समय वहाँ रानी कैकेयी का आगमन हुआ और वह भी शोक-ग्रस्त होकर करुण क्रन्दन करने लगीं। राजा दशरथ का वह स्वर्ग-सा सुन्दर महल शोक-संताप से पीड़ित, दुःखी, व्याकुल मनुष्यों के रोने-चिल्लाने के भयंकर कोलाहल से भर गया।
होश में आने पर महारानी कौसल्या ने पुनः अपने पति को देखा। राजा का शव देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उनके सिर को अपनी गोद में रखकर विलाप करती हुई कौसल्या ने कैकेयी से कहा, “दुराचारिणी क्रूर कैकेयी! ले तेरी कामना अब सफल हुई। अब राजा भी चले गए हैं, तू अब निष्कंटक होकर इस राज्य को भोग। मेरा राम वन में चला गया और मेरे पति स्वर्ग सिधार गए। मुझसे बड़ी अभागिनी और कौन है? अब मैं इस संसार में जीवित नहीं रहना चाहती।”
“जैसे कोई धन का लोभी दूसरों को विष खिलाकर हत्या भी कर देता है, वैसे ही इस कैकेयी ने भी कुब्जा के कारण इस रघुकुल का नाश कर डाला है। महाराज से अयोग्य कर्म करवाकर इसने श्रीराम को सीता सहित वन में भिजवा दिया। जनक जी को जब यह समाचार मिलेगा, तब वे भी मेरे समान ही अत्यंत दुःखी होंगे। अपनी पुत्री के कष्टों के दुःख से वे बूढ़े महाराज जनक भी अवश्य ही प्राण त्याग देंगे।”
महाराज के निधन का समाचार तब तक उनके मंत्रियों तक भी पहुँच गया था। वहाँ आकर उन्होंने विलाप करती हुई कौसल्या को दूसरी स्त्रियों के द्वारा सहारा देकर वहाँ से हटवा दिया। उन सब मंत्रियों का विचार था कि पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार न किया जाए। अतः पुत्र के आने तक शव की देखभाल के लिए वसिष्ठ जी के निर्देशानुसार उसे तेल से भरे कड़ाह में रखवाया गया।
तब तक नगर में भी समाचार फैल गया था। सारी अयोध्या के लोग राजा की मृत्यु से शोक में डूब गए। सड़कों व चौराहों पर मनुष्यों की भीड़ लग गई। सब लोग भरत और कैकेयी की निन्दा करने लगे। पूरी नगरी श्रीहीन हो गई। इस प्रकार वह पूरा दिन शोक में ही बीता।
राज्य का प्रबन्ध करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण अगले दिन प्रातःकाल दरबार में एकत्र हुए। मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतम और जाबालि आदि सभी वहाँ राजपुरोहित वसिष्ठ जी और मंत्रियों के साथ उपस्थित थे।
उन सबकी बातों का सार यह था कि ‘पुत्रशोक से महाराज दशरथ के स्वर्गवासी हो गए हैं, श्रीराम और लक्ष्मण वन में हैं तथा भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई केकयदेश में अपने नाना के घर पर हैं। इन राजकुमारों में से किसी को आज ही यहाँ का राजा घोषित किया जाए क्योंकि राजा के बिना राज्य का ही नाश हो जाएगा।’
‘जहाँ राजा न हो, वहाँ अराजकता फैल जाती है। अपराध होने लगते हैं, कोई नियम का पालन नहीं करता है, लोगों का धन सुरक्षित नहीं रहता है, स्त्रियों के शील की रक्षा नहीं हो पाती है, नट-नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं, लोगों के विवादों का न्यायपूर्वक निपटारा नहीं हो सकता है, व्यापारी निर्भय होकर अपना व्यापार नहीं कर पाते हैं, लूट-खसोट मच जाती है, राज्य में नए सार्वजानिक भवनों, रमणीय उद्यानों, धर्मशालाओं, मंदिरों आदि का निर्माण भी नहीं होता है और धीरे-धीरे पूरा राज्य ही नष्ट हो जाता है।’
अतः सबने वसिष्ठ जी से अनुरोध किया कि राज्य को ऐसे विनाश से बचाने के लिए शीघ्र ही इक्ष्वाकुवंश के किसी राजकुमार को अथवा किसी अन्य योग्य व्यक्ति को राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाए।
सबकी बातें सुनकर वसिष्ठ जी ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, “महाराज दशरथ ने जिन भरत को राज्य दिया है, वे इस समय अपने भाई शत्रुघ्न के साथ केकयदेश में मामा के घर पर सुख से निवास कर रहे हैं। उन्हें बुलाने के लिए अयोध्या के दूतों को तीव्र गति से जाने वाले घोड़ों पर तुरंत ही भेजा जाए।”
सबने इसके लिए सहमति दी।
तब वसिष्ठ जी ने दूतों से कहा, “सिद्धार्थ, विजय, जयंत, अशोक और नन्दन! तुम सबको जो काम करना है, उसे अब तुम ध्यान से सुनो। शीघ्रगामी अश्वों पर तुम लोग तुरंत ही राजगृह नगर को जाओ और शोक का कोई चिह्न भी प्रकट किए बिना भरत को सन्देश दो कि ‘अयोध्या में अत्यंत आवश्यक कार्य के लिए आपको तुरंत बुलवाया गया है’। तुम श्रीराम के वनवास तथा पिता की मृत्यु के बारे में भरत से कुछ भी मत कहना और यहाँ अभी जो कोहराम मचा हुआ है, उसकी भी तनिक भी चर्चा न करना। केकयराज तथा भरत को भेंट देने के लिए रेशमी वस्त्र एवं उत्तम आभूषण लेकर तुम लोग शीघ्र ही यहाँ से चल पड़ो।”
रास्ते का खर्च लेकर एवं वसिष्ठ जी की आज्ञानुसार पूरी तैयारी करके वे दूत तुरंत ही वहाँ से निकल पड़े।
अपरताल नामक पर्वत के दक्षिणी भाग तथा प्रलम्बगिरी के उत्तरी भाग में इन दो पर्वतों के बीच से बहने वाली मालिनी नदी के तट पर होते हुए वे दूत आगे बढ़े। हस्तिनापुर में गंगा को पार करके वे पश्चिम की ओर गए और पाञ्चाल राज्य तथा उसके भी पश्चिम में स्थित कुरुजांगल प्रदेश से होते हुए आगे बढ़ते रहे। मार्ग में उन्हें सुन्दर फूलों से सुशोभित अनेक सरोवर तथा निर्मल जल वाली नदियाँ मिलीं। इसके आगे उन्होंने स्वच्छ जल से सुशोभित शरदण्डा नदी को पार किया।
वहाँ से आगे जाकर उन्होंने कुलिंगा नामक नगर में प्रवेश किया और फिर तेजोभिभवन तथा अभिकाल नामक गाँवों को पार किया। इसके बाद उन्हें इक्षुमति नदी मिली, जिसे पार करके वे लोग बाल्हीक प्रदेश के मध्यभाग में स्थित सुदामा पर्वत के पास जा पहुँचे। वहाँ पर्वत शिखर पर स्थित भगवान विष्णु के चरण-चिह्नों का दर्शन करके वे आगे बढ़ते रहे और अनेक नदियों, सरोवरों, जलाशयों आदि को उन्होंने पार किया। मार्ग में दिखने वाले सिंह, बाघ, मृग, हाथी और अन्य जीव-जंतुओं को पीछे छोड़ते हुए अंततः वे गिरिव्रज नगर में जा पहुँचे।
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस एवं वाल्मीकि रामायण के कुछ अंग्रेजी संस्करण)

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