बचपन में एक बार पिताजी से तकरार हो गई और बात घर छोड़ने पर आ गई।
उमर भले दस बरस की थी पर अकड़ फेसबुकिया ठाकुर-ब्राह्मणों वाली ही थी तो पिताजी ने बाकायदे कौटिल्य नीति का अनुकरण करते हुए ठंडे मिजाज से बोल दिया कि जो कुछ मेरा है उसे देकर घर छोड़ दो।
अपुन ने तैश में शर्ट उतारकर फैंक दी।
“बनियान” बाबा ने इशारा किया।
बनियान भी उतार दी।
“ये!” हाफपैंट की ओर इशारा हुआ।
हाफपैंट उतारते हुये एहसास हो गया कि बापू के शब्दों की कूटनीति में स्वाभिमान के नाम पर झूठी शेखी में अपनेराम फंसाये जा चुके हैं।
“इसे भी।” बापू ने नितांत ठंडी आवाज में निकर की ओर उंगली करके कहा।
“जाइ ना उतार रओ।” और कहने के साथ ही ऐंठ के टूटने की पीड़ा में बुक्का फाड़कर रो दिये।
पर बाबा एकदम निर्दयी बनकर निक्कर उतारने के प्रक्रम में लग गए।
“ना! अब तो तू निकल मेरे घर से और नेकर उतार कर जा।”
एक हाथ से निक्कर का नाडा पकड़े और दूसरे से नाक पोंछते मेरा रुदन अब चीत्कारों में पहुंच गया।
आखिरकार अम्मा ने हस्तक्षेप कर मेरी इज्जत तो बचा ली लेकिन रोना बंद नहीं हुआ। बाबा की खिल्ली उड़ाने वाली हंसी इस रुदन में आग में घी का काम कर रही थी।
उसके बाद आजीवन घर छोड़ने की धमकी नहीं दी।

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