Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 41
चौदहवें दिन प्रातःकाल सभी राजकर्मचारी भरत से मिलने आए। उन्होंने भरत से कहा, “महाराज दशरथ ने श्रीराम व लक्ष्मण को वन में भेज दिया और वे स्वयं स्वर्गलोक को चले गए। अब इस राज्य का कोई स्वामी नहीं है, अतः आप ही हमारे राजा बन जाइये। आपके बड़े भाई को स्वयं महाराज ने ही वनवास दिया था और उन्होंने ही आपको यह राज्य भी प्रदान किया था, इसलिए यह न्यायसंगत भी है कि अब आप राजा बनें।”
तब भरत ने उत्तर दिया, “सज्जनों! आप सब लोग बुद्धिमान हैं। आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। हमारे कुल में सदा सबसे बड़ा भाई ही राजा बनता है, अतएव श्रीराम ही राजा बनेंगे क्योंकि वे हम सबके बड़े भाई हैं। उनके बदले में मैं चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा।”
“आप लोग विशाल चतुरंगिणी सेना तैयार करवाइये। राज्याभिषेक के लिए संचित की गई सामग्री को साथ लेकर मैं स्वयं वन में जाऊँगा और वहीं श्रीराम का राज्याभिषेक करके मैं उन्हें लेकर अयोध्या लौटूँगा। मेरी माता कहलाने वाली इस कैकेयी का मनोरथ मैं कदापि सफल नहीं होने दूँगा। यहाँ के राजा श्रीराम ही होंगे।”
“आप कारीगरों को आगे भेजिये। वे जाकर रास्ता बनाएँ, ऊँची-नीची भूमि को समतल करें तथा मार्ग के दुर्गम स्थानों की जानकारी रखने वाले रक्षक भी साथ जाएँ।”
भरत की आज्ञानुसार तुरंत ही कुशल कारीगरों को रवाना किया गया। ऊँची-नीची भूमि को समतल करने वाले, सजल व निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, छावनी के लिए रस्सी आदि बाँधने वाले, भूमि खोदने और सुरंग बनाने वाले, नदी पार करने की व्यवस्था करने वाले, थवई (मकान बनाने वाले), रथ और यन्त्र बनाने वाले, बढ़ई, मार्गरक्षक, पेड़ काटने वाले, रसोइये, चूने से पुताई करने वाले, बाँस की चटाई और सूपे आदि बनाने वाले, चमड़े का चारजामा (घोड़े की जीन) बनाने वाले और रास्ते की विशेष जानकारी रखने वाले लोग इस कार्य के लिए भेजे गए।
अपने औजार लेकर वे सब लोग आगे-आगे चलते गए। लताओं, बेलों, झाड़ियों, ठूँठों, वृक्षों और पत्थरों आदि को हटाते हुए वे मार्ग तैयार करने लगे। जहाँ बहुत घास उगी हुई थी, वहाँ उन्होंने उसे हटाकर रास्ता साफ किया। ऊँचे-नीचे स्थानों को पाटकर उन्होंने भूमि को समतल किया। जहाँ पानी था, वहाँ उन्होंने पुल बनाए। जहाँ पानी को निकालने के लिए मार्ग बनाना आवश्यक था, वहाँ उन्होंने बाँध काटकर मार्ग बनाया। कई स्थानों पर उन्होंने कुएँ, बावड़ियाँ और सरोवर बनाए।
समतल मार्ग तैयार हो जाने पर उन्होंने चुना-सुर्खी और कांक्रीट बिछाकर उसे कूट-पीटकर पक्का किया। फिर मार्ग के किनारे सुन्दर फूलों के वृक्ष लगाए गए और सारे मार्ग को पताकाओं से सजाया गया। फिर उस सड़क पर चन्दनमिश्रित जल से छिड़काव किया गया।
मार्ग में जिन स्थानों पर स्वादिष्ट फलों की अधिकता थी, वहाँ छावनियाँ बनाई गईं। उन शिविरों को सजाया गया। जो स्थान भरत के ठहरने के लिए निर्धारित थे, उनकी वास्तु-कर्म के विशेषज्ञों ने प्रतिष्ठा की। ये शिविर चूने से पुती हुई चारदीवारियों से घिरे थे और उनके चारों और खाइयाँ खोदी गई थीं। इस प्रकार अयोध्या से गंगा-किनारे तक इस राजमार्ग का निर्माण हुआ।
उधर अयोध्या में एक दिन प्रातःकाल महर्षि वसिष्ठ सभाभवन में आए, जहाँ राजा दशरथ का दरबार लगता था। उस सभाभवन का अधिकाँश भाग सोने से बना हुआ था और उसमें खंभे भी सोने के लगे हुए थे।
अपने शिष्यों के साथ वहाँ प्रवेश करके वसिष्ठ जी ने स्वर्णपीठ पर अपना आसन ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने दूतों को आज्ञा दी, “तुम लोग जाकर ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अमात्यों, सेनापतियों, मन्त्री युधाजित, सुमन्त्र और भरत व शत्रुघ्न को शीघ्र बुला लाओ। हमें उनसे अत्यंत आवश्यक कार्य है।”
सब लोगों के आने पर महर्षि ने भरत से कहा, “वत्स! राजा दशरथ ने प्राण त्यागने से पहले स्वयं यह राज्य तुम्हें सौंपा था। श्रीराम ने भी उनकी इस आज्ञा को स्वीकार किया था। अतः तुम अब अपना राजतिलक करवा लो।”
यह बात सुनकर भरत पुनः शोक में डूब गए और आँसू बहाते हुए उन्होंने सभा में कहा, “गुरुदेव! महाराज दशरथ का कोई भी पुत्र अपने बड़े भाई के राज्य का अपहरण कैसे कर सकता है? श्रीराम आयु में और गुणों में भी मुझसे बड़े हैं। अतः इस राज्य को पाने का अधिकार उनका ही है, मेरा नहीं। मेरी माता ने पाप किया है, किन्तु नीच मनुष्यों के समान मैं पाप नहीं कर सकता। यह राज्य तो श्रीराम का ही है। मैं स्वयं वन में जाकर उन्हें ले आऊँगा, अन्यथा मैं भी लक्ष्मण के समान ही उनके साथ वन में निवास करूँगा।”
भरत ने आगे कहा, “मार्ग तैयार करने के लिए मैंने अवैतनिक एवं वेतनभोगी कर्मचारियों को पहले ही आगे भेज दिया था। अब हम लोगों को भी चलना चाहिए। सुमन्त्रजी! आप तुरंत जाकर सबको वन में चलने की सूचना दीजिए और सेना को भी शीघ्र बुलाइये।”
यह सुनते ही सुमन्त्र जी गए व प्रजा को तथा सेनापतियों को शीघ्र चलने का आदेश दिया।
यह समाचार मिलते ही अयोध्या के सब लोग हर्षित हो उठे। उसी दिन सब तैयारी पूरी करके अयोध्या के घर-घर से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोग अपने-अपने घोड़े, हाथी, ऊँट, गधे, रथ आदि तैयार करके अगले दिन प्रातःकाल भरत के साथ निकल पड़े।
भरत अपने उत्तम रथ पर आरूढ़ थे। उनके आगे-आगे सभी मंत्री एवं पुरोहितगण घोड़ों से जुते हुए रथों पर यात्रा कर रहे थे। सुन्दर सजाए गए नौ हजार हाथी भरत के पीछे-पीछे थे। उनके पीछे साठ हजार रथ और अनेक प्रकार के शस्त्र धारण किए हुए योद्धा जा रहे थे। एक लाख घुड़सवार भी साथ थे। कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी भी श्रीराम को वन से लौटाने के लिए अपने रथों पर सवार होकर जा रही थीं।
मणिकार (मणियों को चमकाने वाले), कुम्हार, वस्त्र बनाने वाले, शस्त्र निर्माण करने वाले, मायूरक (मोर पंखों से छत्र आदि बनाने वाले),आरे से चंदन की लकड़ी चीरने वाले, मणि-मोती आदि में छेद करने वाले, रोचक (दीवारों, वेदी आदि को सजाने वाले), दंतकार (हाँथीदाँत से सुंदर वस्तुओं का निर्माण करने वाले), सुधाकर (चूना बनाने वाले), गंधी, सुनार, कंबल व कालीन बनाने वाले, गर्म जल से नहलाने का काम करने वाले, वैद्य, धूपक (धूप आदि से जीविका चलाने वाले), शौण्डिक (मद्य बेचने वाले), धोबी, दरजी, नट, केवट तथा वेदों के जानकार सहस्त्रों ब्राह्मण भी बैलगाड़ियों पर सवार होकर भरत के पीछे-पीछे चले। बहुत दूर का मार्ग तय कर लेने के बाद वे सब लोग गंगा तट पर श्रृंगवेरपुर में जा पहुँचे, जहाँ श्रीराम का मित्र निषादराज गुह शासन करता था।
भरत की वह पूरी सेना गंगा तट पर आकर ठहर गई। वहाँ भरत ने अपने सचिवों से कहा, “आज रात्रि में यहीं विश्राम करके हम लोग कल सुबह गंगाजी को पार करेंगे। यहाँ ठहरने का एक और कारण यह भी है कि मैं गंगाजी में उतरकर अपने स्वर्गीय पिताजी के पारलौकिक कल्याण के लिए जलाञ्जलि देना चाहता हूँ।”
उधर निषादराज गुह ने जब गंगा तट पर ठहरी हुई उस विशाल सेना को देखा, तो अपने भाई-बंधुओं से कहा, “भाइयों! यह जो विशाल सेना सामने है, इसका ओर-छोर मुझे दिखाई नहीं दे रहा है। बहुत सोचने पर भी मैं इसके आने का कारण नहीं समझ पा रहा हूँ। लेकिन कोविदार (कचनार) के चिह्न वाली विशाल ध्वजा कर रथ पर फहरा रही है, इससे मैं समझता हूँ कि निश्चित ही दुर्बुद्धि भरत स्वयं यहाँ आया हुआ है। मुझे लगता है कि वह हम सबको बंदी बनाएगा या हमारा वध कर डालेगा। फिर वह वन में जाकर वह श्रीराम को भी मार डालेगा क्योंकि वह इस समृद्ध राज्य को अकेला ही हड़पना चाहता है।”
“लेकिन श्रीराम मेरे स्वामी और सखा हैं। उनके हित की कामना से तुम सब लोग अस्त्र-शस्त्र धारण करके यहीं गंगा-तट पर डटे रहो। अपनी मल्लाह सेना से भी कह दो कि सभी लोग आज नावों में रखे फल-मूल आदि का ही आहार करें और नदी की रक्षा करते हुए गंगातट पर ही रुके रहें।”
“हमारे पास पाँच सौ नावें हैं। प्रत्येक नाव पर सौ-सौ मल्लाह योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर तैयार बैठे रहें। यदि श्रीराम के प्रति भरत के मन में अच्छी भावना हो, तभी उसकी यह सेना आज कुशलतापूर्वक गंगा के पार जा सकेगी, अन्यथा नहीं।”
ऐसा कहकर निषादराज गुह मत्स्य, मांस और मधु (शहद) आदि उपहार में लेकर भरत से मिलने गया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस एवं एक अन्य अंग्रेजी संस्करण )

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