Home हमारे लेखकसुमंत विद्वन्स वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 47
अब श्रीराम ने दण्डकारण्य नामक गहन वन में प्रवेश किया। वहाँ उन्हें अनेक तपस्वी मुनियों के आश्रम दिखाई दिए। श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा उतार दी और उस आश्रम मण्डल में प्रवेश किया। आश्रम के सब मुनि श्रीराम के रूप, शारीरिक गठन, कान्ति, सुकुमारता और सुन्दर वेश को आश्चर्य से एकटक देखने लगे।
उनका स्वागत करने के बाद मुनियों ने कहा, “रघुनन्दन! दण्ड धारण करने वाला राजा ही धर्म का पालक और प्रजा का रक्षक है। आप नगर में रहें या वन में रहें, किन्तु हम लोगों के लिए तो आप राजा ही हैं। हम आपके राज्य में निवास करते हैं, अतः आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए।”
ऐसा कहकर उन्होंने वन में मिलने वाले फल, फूल व अन्य आहार उन तीनों को अर्पित किए।
उस आश्रम में रात्रि में विश्राम करके अगले दिन प्रातःकाल श्रीराम पुनः वन में आगे बढ़े। मार्ग में उन्होंने ऐसा स्थान देखा, जहाँ अनेक प्रकार के मृग थे। वहाँ बहुत-से रीछ और बाघ भी रहा करते थे। वहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गई थीं। वहाँ कोई जलाशय नहीं था। वहाँ कई पक्षी चहक रहे थे और झींगुरों की झंकार गूँज रही थी।
उसी समय श्रीराम को वहाँ एक नरभक्षी राक्षस दिखाई दिया, जो अत्यंत ऊँचा था और उच्च स्वर से गर्जना कर रहा था। उसकी आँखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा, आकार बहुत विकट और वेश बड़ा विकृत था। उसने खून से भीगा व्याघ्रचर्म पहना हुआ था। तीन सिंह, चार बाघ, दो भेड़िये, दस चितकबरे हिरण और एक हाथी का बहुत बड़ा सिर लोहे के शूल में गूँथकर वह जोर-जोर से गरज रहा था।
श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को देखते ही वह क्रोध में भैरवनाद करता हुआ उनकी ओर काल के समान दौड़ा। उसने सीता को उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया।
वहाँ से वह दोनों भाइयों से बोला, “मैं विराध राक्षस हूँ। प्रतिदिन ऋषियों का माँस भक्षण करता हूँ और हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर इस दुर्गम वन में विचरता रहता हूँ। तुम दोनों जटा और चीर धारण करने वाले तपस्वी हो, फिर भी एक युवती के साथ रहते हो, यह भीषण पाप कैसे संभव हुआ? मुनि समुदाय को कलंकित करने वाले तुम दोनों पापी कौन हो? हाथों में धनुष-बाण और तलवार लेकर तुम दोनों अब दण्डक वन में घुस आए हो, अतः निश्चित मानो कि तुम्हारे जीवन का अंत निकट आ गया है। अब मैं तुम दोनों पापियों का रक्तपान करूँगा और फिर यह सुन्दर स्त्री मेरी भार्या बनेगी।”
सीता को विराध के चंगुल में फंसी देखकर श्रीराम का मुँह सूख गया। वे लक्ष्मण से बोले, “सौम्य! देखो तो, मेरी पत्नी विवशता के कारण उस विराध के अंक में जा पहुँची है। सीता को कोई और स्पर्श कर ले, इससे बड़ी दुःख की बात मेरे लिए कोई नहीं है। पिताजी की मृत्यु और अपना राज्य छिन जाने से मुझे इतना दुःख नहीं हुआ, जितना अब हुआ है।”
यह सुनकर क्रोध से फुफकारते हुए लक्ष्मण ने कहा, “भैया! मुझ दास के रहते हुए आप क्यों इस प्रकार संतप्त हो रहे हैं? मैं अभी अपने बाण से विराध का वध कर दूँगा।”
उतने में विराध फिर चिल्लाया, “अरे! मैं पूछता हूँ, तुम दोनों कौन हो और कहाँ जाओगे?”
तब श्रीराम ने उसे अपना परिचय दिया और फिर उससे पूछा, “तू कौन है, जो इस दण्डक वन में स्वेच्छा से विचर रहा है?”
तब विराध ने उत्तर दिया, “मैं जव नामक राक्षस का पुत्र विराध हूँ। मेरी माता का नाम शतहृदा है। मैंने ब्रह्माजी से वरदान पा लिया है कि किसी भी अस्त्र-शस्त्र से मेरा वध न हो। मैं सदा अच्छेद्य व अभेद्य रहूँ अर्थात मेरे शरीर को कोई भी छिन्न-भिन्न न कर सके। अब तुम दोनों इस स्त्री को छोड़कर तुरंत यहाँ से भाग जाओ, तो मैं तुम दोनों के प्राण छोड़ दूँगा।”
यह सुनकर श्रीराम की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। वे विराध से बोले, “नीच! तुझे धिक्कार है। तेरा अभिप्राय (नीयत) बड़ा ही खोटा है। ठहर, अब तू मेरे हाथों से जीवित नहीं बचेगा।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और तीखे बाणों से उस राक्षस को बींधने लगे। उन्होंने विराध पर लगातार सात बाण छोड़े, जो उसे रक्तरंजित करके भूमि पर गिर पड़े।
घायल विराध ने अब सीता को छोड़ दिया और अपना शूल लेकर श्रीराम व लक्ष्मण पर टूट पड़ा। लेकिन श्रीराम ने दो ही बाणों में उसे काट डाला। तब दोनों भाई तलवार लेकर उस पर टूट पड़े। उन आघातों से अत्यंत घायल होकर विराध ने अपनी दोनों भुजाओं से उन दोनों वीरों को पकड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा की। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि “अब हम इसी राक्षस को अपना वाहन बनाकर वन में चलेंगे। यह जिस मार्ग से चल रहा है, वही हमारा मार्ग भी वही है, अतः यही अब हमें ढोकर ले जाएगा।”
यह सुनकर विराध ने उन दोनों भाइयों को कंधे पर बिठा लिया और वन की ओर चल पड़ा। वह वन अत्यंत घना और नीला था। अनेक प्रकार के वृक्ष वहाँ भरे हुए थे। गीदड़, हिंसक पशु व अनेक प्रकार के पक्षी वहाँ सब ओर फैले हुए थे।
सीता ने जब देखा कि वह राक्षस दोनों भाइयों को कंधे पर बिठाकर ले जा रहा है, तो वह जोर-जोर से रोने लगी और बहुत घबरा गई। इससे दोनों भाइयों को लगा कि अब इस राक्षस का तुरंत वध करना आवश्यक है। तब लक्ष्मण ने उसकी बायीं भुजा और श्रीराम ने दायीं भुजा काट डाली। वे मुक्कों और लातों से उसे पीटने लगे और उसे उठा-उठाकर पटकने लगे व पृथ्वी पर घसीटने लगे। अनेक बाणों से घायल होने, तलवारों से क्षत-विक्षत होने और इतनी बार धरती पर घसीटे जाने के बाद भी वह राक्षस मरा नहीं।
तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “भाई! यह राक्षस तपस्या से वरदान पाकर अवध्य हो गया है, अतः इसे युद्ध में शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। हम लोगों को एक बड़ा गड्ढा खोदकर उसी में इसे गाड़ना होगा। अतः तुम इस वन में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदो। ऐसा कहकर श्रीराम अपने एक पैर से विराध का गला दबाकर खड़े हो गए।
अब अपना अंत समय निकट जानकर विराध ने विनम्रतापूर्वक श्रीराम से कहा, “तात! मैं तुम्बुरु नामक गंधर्व हूँ। रम्भा नामक अप्सरा में आसक्त होने के कारण एक बार मैं राजा वैश्रवण कुबेर की सेवा में समय पर उपस्थित न हो सका था। तब क्रोधित होकर उन्होंने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। अब आपकी कृपा से मैं आज उस शाप से मुक्त हो जाऊँगा। मरे हुए राक्षसों के शरीर को गड्ढे में गाड़ने की ही परंपरा है। अतः आप लोग भी मेरे शरीर को गाड़ दीजिए। यहाँ से डेढ़ योजन की दूरी पर महामुनि शरभङ्ग निवास करते हैं। आप लोग उन्हीं के आश्रम में चले जाइये।”
तब तक लक्ष्मण ने गड्ढा खोद दिया था। दोनों भाइयों ने उसे गड्ढे में धकेल दिया और ऊपर से मिट्टी पाट दी। इस प्रकार उस राक्षस का अंत हो गया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

Related Articles

Leave a Comment