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देश, धर्म, संस्कृति, संगठन और राजनीतिक चुनाव

Pranay Kumar

by Pranjay Kumar
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चुनाव में हार-जीत होते रहते हैं। ध्येयनिष्ठ कार्यकर्त्ता चुनाव परिणामों की परबाह किए बिना देश, धर्म, संस्कृति और संगठन के लिए अहर्निश काम करते हैं। उन्हें अपना मार्ग पता है। देश, धर्म, संस्कृति व संगठन उनका अपना चयन है, इसलिए बाहरी एवं हर प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियाँ उन्हें विचलित भी नहीं करतीं। उन्हें जो करना है, वे अनथक-अहर्निश वही करेंगें।
पर भाजपा को अवश्य विचार करना चाहिए। क्या वे जिस ध्येय को लेकर आगे बढ़े थे, उसी पथ पर अग्रसर हैं? क्या कार्यकर्त्ताओं के साथ उनका वही चूल्हे-चौके का संबंध है? क्या आपत्ति-विपत्ति-संकट में वे अपने कार्यकर्त्ताओं के साथ दृढ़तापूर्वक खड़े हैं? क्या विचारधारा के प्रति उनमें वही समर्पण व त्याग है, जो संगठन के आम कार्यकर्त्ताओं-स्वयंसेवकों में पाया जाता है? क्या ज़मीन पर काम करने वाले नेताओं-कार्यकर्त्ताओं का वैसा ही मान-सम्मान है, जैसा पहले होता था?
अनेकानेक कार्यकर्त्ताओं से सुना है, स्वयं अनुभव भी किया है, संगठन के शीर्ष पदों पर बैठे लोग कार्यकर्त्ताओं का फोन तक नहीं रिसीव करते। मिलने जाने पर कोई-न-कोई बहाना बनाकर टाल देते हैं। सत्ता के लिए विचारधारा से सब प्रकार के समझौते करते हैं, परंतु किसी काम के लिए कहने पर शुचिता एवं नैतिकता की घुट्टी पिलाते हैं। और तो और संगठन से भेजे गए संगठन-मंत्री तक फोन नहीं उठाते! किसी दल के लिए उसके कार्यकर्त्ता से महत्त्वपूर्ण भला और कौन हो सकता है! कोई भी योजना, रणनीति, अभियान या प्रचार कार्यकर्त्ताओं के त्याग, समर्पण व ध्येय से बढ़कर नहीं। कैसी भी व्यस्तता हो, उससे सहानुभूति-संवेदना के धरातल पर मिला जा सकता है, संग-साथ-सहयोग का प्रयास किया जा सकता है।
तमाम आयोगों-संस्थाओं-समितियों के अध्यक्षों-निदेशकों का अहंकार एवरेस्ट से भी ऊँचा है। उन्हें पिघलाने के लिए स्नेह-त्याग-समर्पण की नहीं, किसी और ही आँच की आवश्यकता होती है। वे नेपथ्य में गोटियाँ फिट करते रहते हैं। सरकार किसी की हो, पर तंत्र पर अवसरवादियों का जबरदस्त कब्ज़ा है। सुपात्र, सुयोग्य, समर्पित मुँह ताकते रह जाते हैं, और कल तक किसी और का छत्र उठाने वाले, चँवर डुलाने वाले बाजी मार ले जाते हैं। ये सारी स्थितियाँ कार्यकर्त्ताओं के भीतर टीस पैदा करती है, भीतर पिराती है। उसका मनोबल टूटता है। यद्यपि वह अपने भीतर से ही भाव बटोरकर सामर्थ्य भर सक्रिय रहता है।
चेहरा बने नेताओं को आज नहीं तो कल यह सोचना ही होगा कि वे चेहरा हैं, क्योंकि हजारों-लाखों ध्येयनिष्ठ-समर्पित लोग धरातल पर उन्हें थामे खड़े हैं। चेहरा बने नेताओं को यह सोचना ही होगा कि उनकी चमक-दमक के पीछे ज़मीन पर और भी लोगों का पसीना बहा है। चेहरा बने नेताओं को यह सोचना ही होगा कि यह संयोग है कि वे चेहरा हैं, अन्यथा वे जो आपकी जय बोल रहे हैं, वे जो आपकी जीत के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं, वे भी संभावनाओं से भरे हुए थे, कदाचित आपसे भी बढ़कर।
पराजय आत्मावलोकन का अवसर देती है। सम्मान-सत्कार छोड़ भी दें तो कम-से-कम हर कार्यकर्त्ता अपने वरिष्ठों से मानवोचित व्यवहार डिजर्व करता है। जब आप कॉल नहीं उठाते, जब आप मिलने में आना-कानी करते हैं, जब आप सहयोग का आश्वासन देकर कार्यकर्त्ताओं को अनावश्यक दौड़ाते हैं, तो तय मानिए कि आप उसे मानवोचित गरिमा से भी वंचित करते हैं।
पूज्य सुदर्शन जी कहते थे कि राजनीति में आने के बाद चिंतन-मनन-आत्मावलोकन सब विस्मृत हो जाता है। फिर भी यदि संभव हो तो आत्मा का अवलोकन व आचरण का आकलन व्यक्तियों व दलों को सतत करते रहना चाहिए।

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