Home विषयऐतिहासिक वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 52
राम के हाथों खर के उन चौदह राक्षसों के वध को देखकर शूर्पणखा घबरा गई। भयभीत होकर वह पुनः खर के पास भागी। पुनः उसे रोता देख खर ने उससे पूछा, “बहन! तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए मैंने चौदह शूरवीर राक्षसों को तुम्हारे साथ भेजा था। वे इतने वीर हैं कि किसी के हाथों मर नहीं सकते और यह भी असंभव है कि वे मेरी आज्ञा का पालन न करें। फिर किस कारण तुम इस प्रकार दुःखी होकर धरती पर लोट रही हो? मेरे होते हुए तुम क्यों विलाप करती हो? घबराओ मत।”
यह सांत्वना सुनकर शूर्पणखा बोली, “भैया! तुमने जो वे चौदह राक्षस भेजे थे, उस राम ने उन सबको अपने मर्मभेदी बाणों से मार डाला है। उसके पराक्रम को देखकर मेरे मन में बड़ा भय उत्पन्न हो गया है। इसलिए मैं पुनः तुम्हारी शरण में आई हूँ।”
“राक्षसराज! यदि मुझ पर और उन मृत राक्षसों पर तुम्हें कोई दया आती हो, यदि राम से लोहा लेने की शक्ति तुम में हो, तो तुम किसी भी प्रकार से राम का वध कर डालो क्योंकि दण्डकारण्य में घर बनाकर रहने वाला राम हम सब राक्षसों के लिए संकट है। यदि तुमने आज ही राम का वध नहीं किया, तो मैं तुम्हारे सामने ही अपने प्राण त्याग दूँगी क्योंकि मैं अब और अपमान नहीं सह सकती। मुझे तो लगता है कि तुम युद्ध में राम के सामने नहीं टिक सकोगे। तुम स्वयं को बड़ा शूरवीर मानते हो, किन्तु तुम में शौर्य है ही नहीं। राम और लक्ष्मण तुच्छ मनुष्य हैं, पर उन्हें मारने की भी शक्ति तुम में नहीं है, तो फिर तुम अपने कुल को कलंकित करके तुरंत ही इस जनस्थान से भाग जाओ। तुम जैसे निर्बल राक्षस का यहाँ क्या काम है?”
ऐसी बातें कहकर वह खर को युद्ध के लिए उकसाने लगी।
इस प्रकार तिरस्कृत होकर खर ने कहा, “बहन! तुम्हारे अपमान से मुझे अत्यंत क्रोध आ गया है, जिसे दबाना असंभव है। राम का पराक्रम मेरे आगे कुछ भी नहीं है। तुम अपने आँसुओं को अब रोक लो और घबराना छोड़ो क्योंकि मैं आज ही राम और उसके भाई लक्ष्मण को यमलोक पहुँचा दूँगा और तुम्हें उन रक्त पीने को मिलेगा।”
यह सुनकर शूर्पणखा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने खर के साहस व पराक्रम की खूब प्रशंसा की।
तब खर ने अपने सेनापति दूषण से कहा, “प्रिय सेनापति! युद्ध के मैदान में न घबराने वाले और हिंसा को ही खेल समझने वाले चौदह सहस्त्र राक्षसों को युद्ध में भेजने की तैयारी करवाओ और शीघ्र ही धनुष, बाण, खड्ग आदि रखवाकर मेरा रथ भी यहाँ मँगवा लो। उस उद्दंड राम का वध करने के लिए मैं स्वयं ही सेना का नेतृत्व करना चाहता हूँ।”
यह आज्ञा मिलते ही दूषण ने सूर्य के समान प्रकाशमान और चितकबरे रंग के अच्छे घोड़ों से जुता हुआ एक रथ खर के लिए मँगवाया। वह रथ मेरु पर्वत के शिखर की भांति ऊँचा था, उसे सोने से सजाया गया था और उसके पहियों में भी सोना जड़ा हुआ था। उस पर अनेक मणि जड़े हुए थे और सोने के बने मत्स्य, फूल, वृक्ष, पर्वत, चन्द्रमा, सूर्य, तारों आदि की सजावट से वह सुशोभित हो रहा था। उस पर ध्वजा फहरा रही थी और अनेक अस्त्र-शस्त्र रखे हुए थे।
अपनी बहन के अपमान को याद करके राक्षसराज खर उस रथ पर आरूढ़ हुआ और सेना को कूच करने की आज्ञा दी। आज्ञा मिलते ही वह विशाल राक्षस सेना घोर गर्जना करती हुई जनस्थान से बड़े वेग के साथ निकली। उन राक्षस सैनिकों के हाथों में मुद्गर, पट्टिश, शूल, फरसे, खड्ग, चक्र, तोमर, परिघ, धनुष, गदा, तलवार, मूसल और वज्र आदि अनेक भीषण हथियार थे।
उस सेना के प्रस्थान करते समय आकाश में बादलों की महाभयंकर घटा घिर आई और सैनिकों के ऊपर रक्तमय जल की वर्षा होने लगी, जो भारी अमंगल की सूचक थी। सूर्य के चारों ओर एक गोलाकार घेरा दिखाई देने लगा, जिसका रंग काला और किनारे का रंग लाल था। उसके कारण दिन में ही गहन अंधकार छा गया। गीदड़ और अन्य मांसभक्षी पशु-पक्षी भीषण चीत्कार करने लगे। भारी आवाज के साथ आकाश से भीषण उल्काएँ पृथ्वी पर गिरने लगीं। धरती अचानक डोलने लगी। उसी समय खर की बायीं भुजा भी सहसा काँप उठी। उसका कंठ अवरुद्ध हो गया, सिर में दर्द होने लगा और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
फिर भी उस अहंकारी ने कहा, ‘मैं अपने बल के कारण इन सब उत्पातों की कोई चिंता नहीं करता हूं। मैं चाहूँ तो मृत्यु को भी मार सकता हूँ। उस अहंकारी राम और उसके भाई लक्ष्मण को मारे बिना आज मैं पीछे नहीं हट सकता। आज से पहले किसी युद्ध में मेरी पराजय नहीं हुई, फिर उन दो क्षुद्र मनुष्यों को मारना कौन-सी बड़ी बात है!”
ऐसा कहकर खर ने अपनी सेना का उत्साह बढ़ाया और बड़े वेग से वह आगे निकला। बारह महापराक्रमी राक्षस उसे दोनों ओर से घेरकर उसके साथ चलने लगे। अन्य चार राक्षस अपने सेनापति दूषण के पीछे-पीछे चले। शेष सेना उनके पीछे चल रही थी।
आकाश में जो उत्पात-सूचक लक्षण खर की सेना ने देखे थे, उन्हें पंचवटी में श्रीराम और लक्ष्मण ने भी देखा। उन्हें देखकर श्रीराम ने कहा, “भाई लक्ष्मण! ये सब लक्षण राक्षसों के संहार का सूचक बनकर आए हैं। मेरी दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है, अतः मुझे कोई संदेह नहीं है कि कुछ ही देर में एक बड़ा युद्ध होगा। लेकिन तुम्हारा मुख बहुत कांतिमान व प्रसन्न दिखाई दे रहा है, जो इस बात का संकेत है कि इस युद्ध में हमारी ही विजय होगी।”
“लक्ष्मण! गरजते हुए राक्षसों का घोर नाद सुनाई दे रहा है। उनकी भेरियों की महाभयंकर ध्वनि कानों में पड़ रही है। समझदार व्यक्ति को आपत्ति की आशंका होते ही उससे बचने का उपाय कर लेना चाहिए। अतः तुम धनुष-बाण धारण करके तुरंत ही सीता को लेकर पर्वत की उस गुफा में चले जाओ, जो वृक्षों की आड़ में छिपी हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम शूरवीर हो और इन राक्षसों का वध कर सकते हो, किन्तु तुम्हें मेरे चरणों की सौगंध है कि तुम सीता की रक्षा पर ध्यान दो और उसे लेकर शीघ्र यहाँ से चले जाओ। मैं स्वयं इन राक्षसों का संहार करूँगा।”
श्रीराम का आदेश मानकर सीता और लक्ष्मण वहाँ से चले गए। श्रीराम ने अब युद्ध के लिए कवच धारण किया और अपना धनुष-बाण लेकर वहाँ डटकर खड़े हो गए।
राक्षसों की वह सेना बड़े वेग से श्रीराम की ओर बढ़ी। श्रीराम ने भी सेना को ध्यानपूर्वक देखा और तरकस से अनेक बाण निकालकर अपने धनुष पर चढ़ा लिए। फिर उन्होंने अपने भयंकर धनुष को खींचा और राक्षसों का वध करने के लिए तीव्र क्रोध के साथ उस सेना की ओर बढ़े।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

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