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जब बुद्ध से वार्तालाप करके ही मन को शांति प्राप्त हो

मधुलिका शची

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कभी कभी ऐसा समय आता है जब बुद्ध से वार्तालाप करके ही मन को शांति प्राप्त होती है…..कहीं और हृदय ही नहीं लगता और न ही दूसरा कोई वैद्य दिखता है जो पीर को समेट ले …
मन बुद्ध की बातों से अभी जुड़ ही रहा होता है , उनकी दिव्य वाणी को सुनकर आनंदित हो ही रहा होता है कि बुद्ध शांत होते हुए जल में एक कंकड़ मारते हुए बातों ही बातों में कहते हैं बोलो ” बुद्धम शरणं गच्छामि..!
तब बुद्ध से कहना पड़ता है : भगवन मुझे शांति चाहिए वो भला बुद्धि के पास कहाँ होती है…? वो तो तिकड़म में ही व्यस्त होती है।
” अप्प दीपो भवः ” में बड़ी रिक्तता और नीरसता है प्रभु .!
कुछ बचता ही नहीं अपने पास ..! यदि एक संसारी दुःख सुख में सम्यक दृष्टि अपना लेगा तो उसे आनंद कहाँ मिलेगा जीवन का .. !
तब तो वो एक निर्जीव की भाँति किसी खाली पात्र की तरह विचरता रहेगा..!
हे शाक्य मुनि.. निर्धन होने का उपदेश मत दीजिये ,यही माया मोह ही तो मेरी कमाई है जिसे देखकर मैं हर्षाती रहूँगी..!
अच्छा छोड़ो ये ज्ञान की बातें आप बस बातें सुन लो मेरी जो जो हृदय के आखिरी तल में छुपा कर रखा है मैंने , बस उतने से ही हृदय में जो उफान मचा है वह शांत हो जाएगा ,
ज्ञान की बातें छोड़ो ..!!
इतना सुनते ही तथागत मुस्कुरा उठते हैं । शाक्य मुनि की यह मुस्कान ऐसी होती है जैसे प्रचंड दोपहरी में धूप से झुलसते इंसान को तरुवर की छाया मिल गयी हो, बहुत कुछ कह जाती है वह मोहक मुस्कान फिर उनकी दिव्य आभा से निकली एक दिव्य ऊर्जा उस लोक का अनुभव करा देती हैं जहां से जुड़कर मन स्वतः ही शांत हो जाता है।
बिना रिक्त हुए भी अब मैं शांत हूँ..!

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