मारीच के पूछने पर रावण ने अपना मंतव्य बताया, “तात मारीच! मैं इस समय बहुत दुःखी हूँ और केवल तुम ही मुझे सहारा दे सकते हो।”
“मेरा भाई खर, महाबाहु दूषण, मेरी बहन शूर्पणखा, मांसभोजी राक्षस त्रिशिरा और चौदह हजार वीर निशाचर मेरी आज्ञा से जनस्थान में रहा करते थे और वहाँ के धर्माचारी मुनियों को सताया करते थे। वे सब अच्छी तरह सन्नद्ध होकर युद्ध-क्षेत्र में राम से जा भिड़े, परन्तु मनुष्य होते हुए भी उस राम ने अपने भयंकर बाणों से अकेले ही उन चौदह हजार राक्षसों का विनाश कर डाला। खर, दूषण और त्रिशिरा को भी मारकर उसने दण्डकारण्य को अन्य सबके लिए निर्भय बना दिया।”
“उस क्षत्रियकुल-कलंक राम को उसके पिता ने कुपित होकर पत्नीसहित घर से निकाल दिया है। उसका जीवन क्षीण हो चला है। वह निर्लज्ज, क्रूर, मूर्ख, लोभी अजितेन्द्रिय, धर्मत्यागी, दुरात्मा और सबका अहित करने वाला पुरुष है। किसी वैर के बिना ही उसने मेरी बहन शूर्पणखा के नाक-कान काटकर उसे कुरूप बना दिया। उससे बदला लेने के लिए मैं भी जनस्थान से उसकी सुन्दर पत्नी सीता को हर लाऊँगा। इसमें तुम मेरी सहायता करो।”
“महाबली मारीच! मेरी सहायता के लिए तुम्हें क्या करना है, अब यह सुनो।”
“तुम सुनहरे रंग वाले चितकबरे हिरण जैसा रूप धारण करो और राम के आश्रम के पास जाकर सीता के सामने विचरण करो। ऐसे विचित्र मृग को देखकर सीता अवश्य ही राम और लक्ष्मण से तुम्हें पकड़ लाने को कहेगी। जब वे दोनों तुम्हें पकड़ने के लिए दूर निकल जाएँगे, तब मैं बिना किसी विघ्न-बाधा के उस सूने आश्रम से सहज ही सीता का अपहरण कर लूँगा। फिर जब सीता के वियोग में राम अत्यंत दुःखी और दुर्बल हो जाएगा, तो मैं निर्भय होकर उस पर प्रहार कर दूँगा।”
रावण के मुँह से श्रीराम का नाम सुनकर मारीच का मुँह सूख गया और भयभीत होकर वह अपने सूखे होंठों को चाटने लगा। हाथ जोड़कर भय से काँपता हुआ वह रावण से बोला, “राजन्! एक तो तुम्हारा हृदय बड़ा चंचल है और तुम कोई गुप्तचर भी नहीं रखते हो, इसी कारण तुम्हें राम के स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि अत्यंत कुपित होकर राम सारे राक्षसों का ही संहार कर दे। कहीं वह सीता तुम्हारी मृत्यु बनकर ही तो नहीं आई है?”
“राजा के आगे सदा प्रिय वचन बोलने वाले तो बहुत लोग होते हैं, किन्तु जो अप्रिय होने पर भी हित की बात कहे, ऐसा मनुष्य दुर्लभ होता है। अतः तुम शांत चित्त से मेरी बात सुनो क्योंकि मैं तुम्हारे हित की बात कह रहा हूँ। मैं समस्त राक्षसों का कल्याण ही चाहता हूँ, इसीलिए तुमसे कहता हूँ कि तुम राम से लड़ने का विचार त्याग दो। जो राजा तुम्हारे समान दुराचारी, स्वेच्छाचारी, पापपूर्ण विचार रखने वाला और खोटी बुद्धि वाला होता है, वह अपने साथ-साथ अपने स्वजनों के व पूरे राष्ट्र के भी विनाश का ही कारण बनता है।”
“जब राम ने देखा कि रानी कैकेयी ने मेरे पिता दशरथ को धोखे में डालकर मेरे लिए वनवास माँग लिया है, तो उसने मन ही मन निश्चय किया कि मैं पिता के वचन को झूठा नहीं होने दूँगा। इसलिए वह स्वयं ही राज्य और समस्त सुखों का त्याग करके दण्डकवन में आया है। उसे न तो पिता ने घर से निकाला है और न ही वह लोभी या क्षत्रिय कुल-कलंक है।”
“राम तो जलती हुई अग्नि के समान भयंकर है। उससे युद्ध करना अग्नि-कुंड में प्रवेश करने के समान है। वह अकेला ही पूरी शत्रु-सेना के प्राण लेने में समर्थ है। राम को सीता प्राणों से भी अधिक प्रिय है। राम से बैर लेकर तुम्हें क्या मिलेगा? जिस दिन युद्ध में राम की दृष्टि तुम पर पड़ जाए, उसी दिन को तुम अपने जीवन का अंत समझ लेना। मैं अपने अनुभव से कहता हूँ कि राम से युद्ध करना बुद्धिमानी की बात नहीं है।”
“बहुत समय पहले एक बार मैं ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने गया था। तब तो राम की किशोरावस्था ही थी, पर उस छोटी-सी आयु में भी उसने मुझ पर ऐसा तीखा बाण छोड़ा, जिसकी चोट खाकर मैं सौ योजन दूर गहरे समुद्र के जल में जाकर गिरा था। फिर कुछ वर्षों बाद जब मैंने राम को दण्डकारण्य में तपस्वी वेश में देखा, तो पुरानी बात का बदला लेने के लिए मैं अपने दो राक्षसों के साथ बड़े तीखे सींग वाले मृगों का रूप बनाकर उस पर आक्रमण करने गया। उस समय राम ने एक साथ तीन पैने बाण छोड़े। मैं तो उसके पराक्रम को पहले ही जानता था, इसलिए किसी प्रकार उछलकर मैंने अपने प्राण बचा लिए, किन्तु मेरे वे दोनों साथी मारे गए। वास्तव में उस बार भी मेरी ही मति मारी गई थी। उसके बाद से मैं इतना घबराया कि मैंने समस्त दुष्कर्मों को त्यागकर संन्यास ले लिया और तब से मैं यही रहकर तपस्या करता हूँ।”
“मुझे राम से इतना भय होता है कि एक-एक वृक्ष मुझे राम जैसा भयंकर दिखाई पड़ता है। एकांत में और स्वप्न में भी मैं राम के भय से काँप उठता हूँ। राम से मैं इतना भयभीत हूँ कि रत्न, रथ आदि जो भी र अक्षर वाले शब्द हैं, उन्हें सुनकर भी मुझे भय हो जाता है। इसलिए तुम भी मेरी बात मानो और अपने हित को समझो।”
“यदि तुम राम से बैर करोगे, तो शीघ्र ही अपने प्राण गँवाओगे और अपने पूरे राज्य का भी विनाश करोगे। परायी स्त्री के संसर्ग से बड़ी मूर्खता और कोई नहीं है। तुम्हारे अन्तःपुर में हजारों स्त्रियाँ हैं, तुम उनमें ही अनुराग रखो। अपनी मान, प्रतिष्ठा, उन्नति, राज्य और अपने जीवन को नष्ट न करो।”
“फिर भी यदि तुम्हारी इच्छा है, तो तुम रणभूमि में राम से युद्ध करो, पर मुझे जीवित देखना चाहते हो, तो मेरे सामने राम का नाम भी न लो। मैं इस कार्य में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता, अतः तुम मुझे क्षमा कर दो। तुम विभीषण आदि बुद्धिमान मंत्रियों से सलाह लो और उसके बाद ही राम से युद्ध का कोई निर्णय लो।”
मारीच का यह कथन उचित था, किन्तु अहंकारी रावण ने उसकी बात नहीं मानी। उसने क्रोधित होकर कठोर वाणी में कहा, “दूषित कुल में जन्मे मारीच! तुमने मेरे प्रति बड़ी अनुचित बातें कह दी हैं। तुम्हारे ये कायरतापूर्ण वचन मुझे उस मूर्ख, पापी राम से युद्ध करने या उसकी स्त्री का अपहरण करने से नहीं रोक सकते। मेरे सामने उस तुच्छ मनुष्य की शक्ति ही क्या है!”
“यदि तुमसे मैंने परामर्श माँगा होता, तब तुम्हें ये सब बातें कहनी चाहिए थीं। जो अपना कल्याण चाहता हो, उसे राजा के पूछने पर ही अपना अभिप्राय बताना चाहिए और वह भी हाथ जोड़कर नम्रता के साथ। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि राजा के सामने केवल अनुकूल, मधुर और उत्तम बात ही कहनी चाहिए?”
“मैं तुमसे अपना कर्तव्य पूछने नहीं आया हूँ, केवल तुम्हारा कर्तव्य बताने आया हूँ। अतः जो मैंने कहा था, तुम केवल उसका पालन करो। सोने के रंग वाले चितकबरे मृग का रूप धारण करके तुम सीता के सामने विचरो। जब वह तुम्हें पकड़ने के लिए राम को भेजेगी, तो तुम बहुत दूर भाग जाना और राम के ही स्वर में ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहकर पुकारना। इससे घबराकर वह राम की सहायता के लिए लक्ष्मण को भी भेज देगी। तब मैं सीता का अपहरण कर लूँगा। उसके बाद तुम्हें जहाँ जाना हो, तुम चले जाना। इस एक कार्य के लिए मैं तुम्हें अपना आधा राज्य दे दूँगा, पर यदि तुम नहीं मानोगे, तो मैं अभी तुम्हारे प्राण ले लूँगा।”
बहुत समझाने पर भी जब मूर्ख रावण नहीं माना, तब हारकर मारीच ने कहा, “रावण! अपनी मूर्खता और अहंकार के कारण तुम अब अपना और समस्त राक्षसों का विनाश तय समझो। इसमें कोई संदेह नहीं कि राम के हाथों मेरी मृत्यु भी निश्चित ही है, किन्तु तुम्हारे हाथों मरने से अच्छा है कि मैं युद्धभूमि में शत्रु से लड़कर अपने प्राणों का त्याग करूँ। अतः मैं अब तुम्हारी योजना के अनुसार जनस्थान में जाऊँगा।”
यह सुनकर रावण बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कसकर मारीच को गले लगाकर कहा, “अब तुमने वीरता की बात कही है क्योंकि अब तुम मेरी इच्छा मान रहे हो। आओ मेरा रत्नों से विभूषित आकाशगामी रथ तैयार है। इस रथ में पिशाचों जैसे मुख वाले गधे जुते हुए हैं। तुम इस पर बैठकर मेरे साथ चलो।”
तब रावण और मारीच उस विमान पर बैठकर दण्डकारण्य की ओर चल दिए।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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