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परिवर्तन के चिह्न

Devanshu Jha

by Praarabdh Desk
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सुबह के पौने छह बजे मैं ग्वालियर स्टेशन पहुंचा। ये पहला नंबर प्लैटफॉर्म है। जिसकी तसवीर आप देख रहे। यहां एक तिनका ढूंढ़े नहीं मिल रहा। आज से दस वर्ष पहले इतने साफ सुथरे प्लैटफॉर्म नहीं होते थे। झाड़ू पोछा तब भी लगता था। लेकिन चित्त में सफाई का ऐसा दायित्वबोध नहीं था। जिसे हम ड्यूटी कांशसनेस कहते हैं। वह दायित्वबोध जगाया गया है। सुबह के पहले पहर में भीड़ कम होती है। कुछ देर के बाद यहां अधिक यात्री होंगे। यह थोड़ा गन्दा होने लगेगा। लेकिन नौ दस बजे फिर सफाई होगी। मेरा अनुभूत है।
मेरी रेल दूसरे नंबर प्लैटफॉर्म से थी। वह भी साफ सुथरा था। हर भोजन चाय पानी विक्रेता के आगे कूड़ादान रखा रहता है। नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग प्लेट कप आदि कूड़ेदान में ही फेंकते हैं।दस प्रतिशत मानने को तैयार नहीं। इसीलिए प्लैटफॉर्म के पास ही–कुछ दूरी पर पटरियां गन्दी दीख पड़ती हैं। लोग खिड़कियों से कचरा बाहर फेंकते चलते हैं। स्वच्छता की अपीलें उन्हें नहीं सुनाई देतीं। मुझे याद आता है–बचपन में साधारण क्लास में यात्रा करते हुए हम अक्सर चिनियां बादाम लिया करते थे। खाते हुए मां पांच बार आगाह करतीं कि बेटा डिब्बे में छिलका न गिराना। कागज़ में समेट कर रखना। रेल से उतरने के बाद कहीं जगह देखकर गिरा देना।
स्वच्छता के प्रति एक विचित्र सी उदासीनता या लापरवाही रही है हमारे शहरी कसबाई रहन में। उसे उद्दंड स्वच्छंदता भी कहा जा सकता है। दरअसल उसे मैं अपनी मातृभूमि का तिरस्कार या उसे डिसओन करना मानता हूं। उत्तर के छोटे बड़े शहरों में यह समस्या व्यापक रही है। रेल से गुजरते हुए आप इसे देख सकते हैं। खेत खलिहानों की श्यामला धरती ज्यों ही किसी कसबाई या शहरी बसावट को छूने लगती है, कूड़े का ढेर उभरने लगता है। गंदले नाले, बेतरतीब बसावट, रेलवे की जमीन का अतिक्रमण, पॉलिथीन और नमकीन के पैकेट्स की भरमार, प्लास्टिक के असंख्य कुचले हुए ग्लास बिखरे पड़े मिलते हैं। यह एक ऐसा कुरूप कायान्तरण है कि मन भन्ना उठता है।अभी-अभी तो हरे-हरे खेत देखे थे। फिर वह दुर्गंध में कैसे बदल गया!
भारत एक सभ्यतागत संकट से गुजर रहा है। दीखने में ये बातें साधारण लगती हों परन्तु हैं असाधारण। एक आवश्यक दायित्वबोध से ही हमारा निर्माण होता है। मैं मानता हूं कि जो मनुष्य किसी सार्वजनिक स्थल को गंदा करने से पहले बार बार सोचेगा वह एक नैतिक शक्ति से भी लैस होगा। लेकिन चलती रेल या कार की खिड़की से खाली बोतलें, डिब्बे और अपशिष्ट पदार्थ फेंकने वाला अनिवार्य रूप से अनैतिक होगा। उसके भ्रष्टाचार के आयाम भयंकर होंगे। अभी जब मैं रेल के डिब्बे में बैठकर यह लिख रहा हूं तो मेरे सामने से कोच में पोछा लगाने वाला गुजरा है। पैंट्री ब्वाय चूक से मेरी चाय की किट उठा ले गया। मैंने पूछा–क्या कर रहे हो? वह अपराध बोध और भय से भर उठा। मैंने उसे सहज करते हुए कहा कि चाय पीने से पहले ही ले गए। उसने जवाब दिया कि नाश्ते की प्लेट खाली थी, इसीलिए चूक हुई। आप कहें तो एक और चाय दे दूं! मैंने उसे आश्वस्त किया कि उसकी आवश्यकता नहीं।
सामान्य तौर पर जवाबदेही बढ़ी है। उत्तरदायित्व बनता है। सरकार ने अपने प्रयासों से ड्यूटी कांशसनेस जगाया है। उसे आप अस्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन वह इकतरफा नहीं हो सकता। अगर रेलवे प्लैटफॉर्म बहुत साफ सुथरे हैं तो उन्हें गंदा न करना हमारा भी कर्तव्य है। अगर हम केवल शिकायत करेंगे तो सुधार नहीं होगा। हर समाज सामूहिक उत्तरदायित्व से बनता है। मैं देख रहा हूं कि अल्पकाल में ही बहुत कुछ बदल गया है। सुधारने में समय तो खर्च होगा। भारत भीड़ से नहीं बच सकता। भीड़ तो हमारा सच है। इस भीड़ को ही सकारात्मक शक्ति में परिणत करना होगा। और यह असम्भव नहीं है।

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