Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 57
दण्डकारण्य में पहुँचकर रावण और मारीच ने श्रीराम के आश्रम को देखा। तब मारीच का हाथ पकड़कर रावण बोला, “मित्र! यह केले के वृक्षों से घिरा हुआ राम का आश्रम दिखाई दे रहा है। अब तुम शीघ्र ही वह कार्य करो, जिसके लिए हम यहाँ आए हैं।”
यह सुनकर मारीच ने मृग जैसा रूप बना लिया। इस चितकबरे मृग की त्वचा का रंग सुनहरा था और इसके पूरे शरीर पर सफेद और काले रंग की बूँदें थीं। इसके कान नीलकमल जैसे और गरदन कुछ ऊँची थी। उसके खुर वैदूर्यमणि के समान व सींगों का ऊपरी भाग इन्द्रनील मणि के समान प्रतीत होता था।
सीता को लुभाने के लिए वह आकर्षक मृग बार-बार उस आश्रम के आस-पास विचरने लगा। कभी केले के बगीचे में, तो कभी कनेर के कुञ्ज में वह घूमता रहता था। कभी वह खेलता-कूदता, कभी भूमि पर बैठ जाता, कभी वृक्षों के कोमल पत्तों को खाने लगता, तो कभी मृगों के झुण्ड के पीछे-पीछे कुछ दूरी तक जाकर पुनः एक-दो घड़ी बाद बड़ी उतावली के साथ आश्रम के आस-पास लौट आता था।
उसके मन में यही अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार सीता की दृष्टि मुझ पर पड़ जाए। सीता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वह उनके आस-पास आकर कई पैंतरे दिखाने लगता था और कभी उनके चारों ओर चक्कर लगाता था। अन्य मृग उसे कौतूहल से देखकर कभी पास आते थे, पर सूंघकर दूर भाग जाते थे। राक्षस होने के कारण वैसे तो मारीच मृगों के वध में तत्पर रहता था किन्तु इस समय अपने वास्तविक रूप को छिपाए रखने के लिए वह अन्य मृगों के स्पर्श करने पर भी उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचा रहा था।
उसी समय सीता फूल चुनने के लिए निकली थीं। कनेर, अशोक और आम के वृक्षों को पार करती हुई वे आगे बढ़ीं। तभी सहसा उन्होंने उस अद्भुत मृग को देखा, जिसका अंग-प्रत्यंग बड़ा मनोहर था। सीता ने ऐसा विचित्र मृग कभी नहीं देखा था। उसे देखते ही सीता की आँखें आश्चर्य से फैल गईं और वे बड़ी उत्सुकता से उसे निहारने लगीं। उस मृग को देखकर सीता बहुत प्रसन्न हुईं और अपने पति श्रीराम व देवर लक्ष्मण को शस्त्र लेकर आने के लिए पुकारने लगीं।
सीता के बुलाने पर दोनों भाई वहाँ पहुँचे और उस मृग पर भी उनकी दृष्टि पड़ी। उसे देखकर लक्ष्मण को कुछ संदेह हुआ। उन्होंने कहा, “भैया! मुझे तो लगता है कि इस मृग के रूप में वह मायावी राक्षस मारीच ही आया है। वह अनेक प्रकार की मायाएँ जानता है। रघुनन्दन! इस पृथ्वी पर कहीं भी ऐसा विचित्र मृग नहीं है। अतः निःसंदेह यह राक्षसी माया ही है।”
लक्ष्मण को बीच में ही रोककर सीता ने बड़े हर्ष के साथ श्रीराम से कहा, “आर्यपुत्र! यह मृग बड़ा सुन्दर है। इसने मेरे मन को मोह लिया है। आप इसे ले आइये। यह हम लोगों का मन बहलाएगा। इसका रूप अद्भुत है। यदि यह जीवित ही आपके हाथों में आ जाए, तो वनवास की अवधि के बाद हम इसे अपने साथ अयोध्या ले चलेंगे। यदि यह जीवित न भी पकड़ा जा सका, तो इसकी खाल भी हमारे काम ही आएगी। घास-फूस की हमारी चटाई पर इसका मृगचर्म बिछाकर मैं उस पर आपके साथ बैठूँगी।”
सीता की बातों को सुनकर और मृग के अद्भुत रूप को देखकर श्रीराम का मन भी विस्मित हो उठा। उन्होंने कहा, “लक्ष्मण! सीता के मन में इस मृग को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी है। इसका रूप है भी बहुत सुन्दर। ऐसा मृग तो देवराज इन्द्र के नन्दनवन में भी नहीं होगा। भेड़, बकरे या किसी भी अन्य मृग का चर्म इतना कोमल नहीं हो सकता। विदेहराजनन्दिनी सीता इसके मृगचर्म पर मेरे साथ बैठेगी।”
“ राजा लोग तो बड़े-बड़े वनों में अपने आनंद के लिए मृगों का शिकार सदा ही करते आये हैं। अतः इस मृग को मारने में कोई अधर्म नहीं है और यदि सचमुच ही यह मायावी राक्षस मारीच हो, तब भी मुझे इसका वध करना ही चाहिए। मारीच ने अनेक श्रेष्ठ मुनियों की हत्या की है, अतः उसका वध करना मेरा कर्तव्य ही है।”
“लक्ष्मण! आज मैं इस मृग को मार डालूँगा या इसे जीवित ही पकड़ लाऊँगा। तुम अस्त्र और कवच आदि से सुसज्जित हो जाओ और आश्रम में ही रहकर तुम सीता की रक्षा करना। मैं अपने एक ही बाण से इस चितकबरे मृग को मार डालूँगा और इसका चमड़ा लेकर शीघ्र ही लौट आऊँगा।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने सोने की मूँठवाली तलवार कमर में बाँध ली और पीठ पर दो तरकस बाँध, हाथों में धनुष लिए वे उस मृग की ओर दौड़े।
उन्हें देखते ही वह मृग भयभीत होकर छलाँगें मारता हुआ भागा। कभी वह पेड़ों की ओट में छिप जाता, कभी बहुत तेज गति से भागने लगता और कभी ऐसी ऊँची छलाँग लगाता, मानो आकाश में उड़ रहा हो। इस प्रकार भागता, छिपता हुआ वह श्रीराम को उनके आश्रम से बहुत दूर तक खींचकर ले गया।
अब श्रीराम कुछ कुपित हो उठे और थककर एक वृक्ष की छाया में हरी घास पर खड़े हो गए। कुछ ही क्षणों बाद अन्य मृगों के झुण्ड में उन्हें वही मृग पुनः दिखाई दिया। श्रीराम को देखते ही वह पुनः भागा।
तब क्रोध में भरे हुए श्रीराम ने तरकस से एक तेजस्वी बाण निकालकर अपने धनुष पर रखा और धनुष को जोर से खींचकर वह तीर छोड़ दिया। उस बाण ने मृगरूपी मारीच के शरीर को चीरकर उसके हृदय को भी विदीर्ण कर दिया। पीड़ा से चीत्कार करता हुआ वह उछलकर भूमि पर गिर पड़ा। अब उसने अपने उस कृत्रिम शरीर को त्याग दिया और मरने से पहले रावण के आदेश को पूरा करने के लिए वह श्रीराम जी के स्वर में ही ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहकर पुकारने लगा। उसे आशा थी कि यह स्वर सुनकर सीता लक्ष्मण को भी आश्रम से भेज देगी और रावण निष्कंटक होकर सीता का अपहरण कर लेगा।
जब मारीच ने अपना हिरण वाला शरीर उतार फेंका और अपने वास्तविक रूप में आ गया, तो उसे देखते ही श्रीराम को लक्ष्मण की बात याद आई और सीता की चिन्ता सताने लगी। वे सोचने लगे, “अरे! लक्ष्मण ने जैसा कहा था, वास्तव में यह तो मारीच ही था। अब यह उच्च स्वर में ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ पुकार कर मरा है, इसे सुनकर न जाने सीता और लक्ष्मण की कैसी दशा हो जाएगी।”
यह सोचकर उनके रोंगटे खड़े हो गए और विषाद के कारण उनके मन में तीव्र भय समा गया। तत्काल ही वे बड़ी उतावली अपने आश्रम की ओर दौड़ पड़े।
उधर वन में हुआ आर्तनाद जब आश्रम में सीता ने सुना, तो अपने पति जैसे स्वर को सुनकर वे बड़ी चिंतित हुईं। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “भैया! तुम शीघ्र जाकर श्रीराम की सुध लो। उन्होंने बड़े आर्त स्वर से हम लोगों को पुकारा है। इससे मैं बहुत घबरा रही हूँ। ऐसा लगता है कि अवश्य ही वे राक्षसों के वश में पड़ गए हैं। तुम शीघ्र जाकर उनकी रक्षा करो।”
यह सुनकर भी लक्ष्मण नहीं गए क्योंकि श्रीराम ने उन्हें आश्रम में ही रुककर सीता की रक्षा करने का आदेश दिया था।
यह देखकर सीता क्षुब्ध हो गईं। वे क्रोध में भरकर लक्ष्मण से बोलीं, “सुमित्राकुमार! तुम जिनकी रक्षा के लिए वन में आए हो, जब वे श्रीराम आज संकट में हैं, तो तुम उनकी रक्षा करने क्यों नहीं जाते? ऐसा लगता है कि तुम मित्र के रूप में शत्रु ही हो। अवश्य ही तुम्हारे मन में मुझे पाने का मोह हो गया है, इसीलिए तुम श्रीराम की सहायता के लिए नहीं जा रहे हो।”
ऐसा कहकर वे शोक में आँसू बहाने लगीं।
तब लक्ष्मण उनसे बोले, “देवी! आप विश्वास करें, नाग, असुर, गन्धर्व, देवता, दानव तथा राक्षस सब एक साथ मिलकर भी आपके पति को परास्त नहीं कर सकते। तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है, जो युद्ध में श्रीराम का सामना कर सके। बड़े-बड़े राजाओं की सारी सेना मिलकर भी अकेले श्रीराम के आगे नहीं टिक सकती। अतः आप उनके लिए चिंतित न हों।”
“श्रीराम ने मुझे आपकी रक्षा का भार सौंपा था। खर का और जनस्थान के अन्य राक्षसों का वध होने के कारण इन निशाचरों का हमसे वैर हो गया है। अतः मैं आपको इस आश्रम में अकेला छोड़कर वन में नहीं जा सकता। उस मृग को मारकर आपके पति शीघ्र ही लौट आएँगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। आपने जो स्वर सुना था, वह उनका नहीं है। निश्चय ही वह किसी राक्षस की ही माया थी। आपको उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।”
लक्ष्मण की बातें सुनकर सीता का क्रोध और बढ़ गया। उनकी आँखें लाल हो गईं और वे कठोर वाणी में कहने लगीं, “अनार्य! निर्दयी! क्रूर! मैं तुझे खूब समझती हूँ। तेरी यही अभिलाषा है कि श्रीराम किसी घोर विपत्ति में पड़ जाएँ। तेरे जैसे गुप्त-शत्रु सदा मन में ऐसा ही पापपूर्ण विचार रखते हैं। तभी तू श्रीराम को संकट में देखकर भी ऐसी बातें कह रहा है।”
“तू बड़ा दुष्ट है। मुझे पाने के लिए ही तू श्रीराम के पीछे-पीछे वन में चला आया है अथवा भरत ने ही तुझे भेजा होगा। तेरा या भरत का मनोरथ कभी पूर्ण नहीं होगा। श्रीराम जैसे वीर और सुन्दर पति को पाकर मैं किसी दूसरे क्षुद्र पुरुष की कामना भी कैसे कर सकती हूँ! यदि श्रीराम नहीं रहे, तो मैं भी निःसंदेह अपने प्राण त्याग दूँगी।”
सीता के ऐसे भीषण वचन सुनकर लक्ष्मण जी हाथ जोड़कर उनसे बोले, “देवी! आप मेरे लिए आराध्य हैं, अतः मैं आपकी बातों का कोई उत्तर नहीं दे सकता। लेकिन ये बातें मेरे कानों में गर्म लोहे के समान पीड़ा दे रही हैं। मैं इन्हें नहीं सह सकता।”
“इस वन के सभी प्राणी साक्षी होकर सुनें कि मैंने न्याययुक्त बात कही थी, फिर भी आपने मेरे प्रति ऐसे कठोर वचन अपने मुख से कहे हैं। आपको धिक्कार है कि आप मुझ पर संदेह करती हैं। निश्चय ही आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। मैं अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन करने में दृढ़तापूर्वक तत्पर हूँ और आप मेरे चरित्र पर ऐसी आशंका करती हैं।”
“ठीक है! अब मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ भैया श्रीराम गए हैं। इस वन के देवता अब आपकी रक्षा करें क्योंकि मेरे सामने अब जो भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे मैं संशय में पड़ गया हूँ कि श्रीराम के साथ वापस यहाँ लौटने पर मैं आपको सकुशल देख सकूँगा या नहीं।”
ऐसा कहकर लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर सीता को प्रणाम किया और वे आश्रम से चले गए।
लक्ष्मण के जाते ही दुष्ट रावण को अवसर मिल गया और वह संन्यासी का वेश बनाकर सीता के समीप आया। उसने शरीर पर गेरुए रंग का साफ-सुथरा वस्त्र लपेट रखा था। उसके सिर पर शिखा (चोटी), हाथ में छाता और पैरों में जूते थे। उसने बायें कंधे पर एक डंडा रखकर उसमें कमण्डल लटका रखा था।
सीता को अकेली पाकर रावण उनके सामने जाकर खड़ा हो गया और उनसे कुछ कहने के प्रयास में वह वेदमन्त्र का उच्चारण करने लगा।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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