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यूँ तो मैं इस विस्तृत धरा का ही एक भाग हूँ पर फिर भी मेरी एक विशिष्ट पहचान है, मेरा एक विशिष्ट नाम है, जिसे विशिष्ट बनाया उन महापुरुषों ने जिनके चरण मुझ पर पड़े, मुझे बनाया और सँवारा।
मैं कोई आम बस्ती या नगर नहीं हूँ बल्कि स्वयं में एक इतिहास हूँ।
मैं काशी हूँ।
कुछ पुरातत्ववादियों ने झांका मेरे अंदर पर अटकलों के सिवा कुछ विशेष न पा सके हैं। कोई मेरा आविर्भाव बताते हैं 800 ई.पू. में तो अभी के प्रमाणों के आधार पर कुछ बताते हैं 1800 ई.पू.।
इन अटकलों के बीच मैं बस मंद मंद मुस्कुरा देती हूँ क्योंकि मेरा रहस्य तो केवल एक के पास सुरक्षित है और वे हैं आदियोगी।
महारुद्र शिव,
नीति नियामक देव जिन्हें पूजा गया भारत से लेकर मेसोपोटामिया तक।
जिन्होंने सर्वप्रथम निर्धारित किया रक्त संबंध को और सुमेरु पर दंडित किया ब्रह्मा को। उनका सिर काटकर यह सिद्ध किया कि उनका दंड विधान सभी के लिए समान है।
शैव कथाओं के अनुसार ब्रह्मा को यह दंड असत्य संभाषण के कारण शिव द्वारा अपने भैरव रूप में दिया गया।
आतंकित देवों ने उन्हें सुमेरु से निष्कासित कर दिया।
महारुद्र ने पहले शरवन और फिर कैलाश को उन्होंने अपना गढ़ बनाया पर ‘ब्रह्महत्या’ के प्रवाद से भैरव परेशान थे मानो वह ‘ब्रह्मा’ के कटे सिर की तरह उनसे चिपक गया था।
भैरव रूप महादेव आये ‘वरुणा’ व ‘असि’ नदियों के बीच के स्थान पर। यहाँ उनका मन ‘ब्रह्म कपाल’ के भार से मुक्त हुआ और यह क्षेत्र ‘कपालमोचन’ के नाम से जाना गया।
प्रसन्न होकर शिव ने जोड़ा उस दिन मुझसे अपना अविमुक्त संबंध और मेरे अस्तित्व ने आकार लेना प्रारम्भ किया ‘अविमुक्त क्षेत्र’ के रूप में। वे स्वयं विराजे ‘अविमुक्तेश्वर’ के रूप मे जबकि कालभैरव नियुक्त हुए ‘कोतवाल’ सदैव के लिये।
ब्रह्मा व विष्णु के मध्य सर्वश्रेष्ठता की दौड़ को व्यर्थ सिद्ध करने व अनंत को परिभाषित करने जिस ज्योतिर्स्तम्भ के रूप में वे प्रकट हुए थे उसके प्रतीक के रूप में महारुद्र विश्वेश्वर या विश्वनाथ के रूप में प्रतिष्ठित हुये।
आर्यों में से ही कुछ आर्य गण आये मेरी गोद में और इस क्षेत्र को उन्होंने दिया मेरा प्राचीन नाम ‘वाराणसी’ अर्थात वरुणा व असि के बीच।
फिर इसी नगर में गिरा एक उल्कापिंड जिसे भगवान अर्क अर्थात सूर्यदेव का प्रसाद माना गया और उसमें उपस्थित रहस्यमय धातुओं से बने देवों के अस्त्र शस्त्र।
उस उल्कापात से बने गड्ढे को मैंने सहेज लिया लोलार्क कुंड के रूप में जिसके पानी को आज भी सूर्यदेव का प्रसाद माना जाता है।
देवों व रुद्रों के बीच खींचतान बढ़ती गई।
परंपरावादी देवगण महारुद्र के कश्मीर के पिशाचों, नागों व तिब्बत के यक्षों को दिये गए संरक्षण तथा उनके सर्वसमावेशी व संतुलनवादी दृष्टिकोण को पसंद नहीं करते थे। नवीन ब्रह्मा ने दक्ष पुत्री सती का विवाह महारुद्र से कराकर इस कड़वाहट को रोकने की कोशिश की लेकिन इसका दुःखद अंत निकला हरिद्वार के समीप कनखल में सती के आत्मदाह के रूप में।
क्रुद्ध शिव द्वारा भेजे गए वीरभद्र ने समस्त देवों को धूल चटा दी।
क्रोध शांत होने पर क्रोध की ओट में छिपी शोक की नदी बह निकली। महादेव के विलाप ने ब्रह्मांड को रुला रुला दिया।
वे भूल गए कि वे कौन हैं।
अब ‘हर’ को उनका स्वरूप याद दिलाने की बारी ‘हरि’ की थी।
चक्र छूटा और सती की देह बावन टुकड़ों में बँट गई और जिनपर स्थापित हुये शक्तिपीठ।
शिव के पुनर्विवाह के उपरांत विष्णु, शिव पार्वती की कौतुकपूर्ण लीला व माता पार्वती के क्रोध से एक भूक्षेत्र बना मणिकर्णिका, शाश्वत मुक्ति का क्षेत्र जहाँ निरंतर धधकती चिताएं स्मरण कराती हैं मनुष्य को उसकी नश्वरता।
अपनी इस कालयात्रा में मैंने कई विनाश भी देखे जिसमें सबसे भयानक था जल प्रलय।
शेष विश्व में बचाव अभियान का नेतृत्व किया विवस्वान व विष्णु ने लेकिन मेरी संतानों को बचाया महादेव ने और तब जन्मा यह विश्वास कि प्रलयकाल में भी महादेव मुझे अपने त्रिशूल पर उठाकर बचा लेते हैं।
प्रलय के बाद सातवें मनु वैवस्वत श्राद्धदेव और अन्य आर्यगण पुनः लौटे।
मेरा क्षेत्र भी आबाद हुआ एक आर्यगण ‘काशिका’ से जिनके नाम पर मुझे पुकारा गया ‘काशिका या काशी’।
कई भौगोलिक उथल पुथल के बाद सूखे हो चुके उत्तरी भरतखंड में इक्ष्वाकुवंशी भगीरथ ने देवनदी को उतारा भूमि पर और गंगा का संबंध सदैव के लिए मुझसे जुड़ गया।
व्यापार व ज्ञान का संगम बनी मैं जिसका निवासी एक चांडाल मात्र भी न केवल धर्म का ज्ञान देने में समर्थ था बल्कि हरिश्चंद्र जैसे सम्राटों को दास के रूप खरीदने की आर्थिक क्षमता रखता था।
मैंने उस स्मृति को ‘डोमराजा’ के वंशजों के रूप में आज भी सहेज रखा है।
इसके बाद मैंने विनाश का दूसरा दौर देखा।
हैहयों की एक शाखा द्वारा वीतिहव्यों के नेतृत्व में।
मेरे नरेश दिवोदास पराजित हुये। एक पुत्र को छोडकर शेष पुत्र मारे गए और भयानक विनाश हुआ।
दिवोदास के पुत्र ने भी उतना ही भयंकर प्रतिशोध लिया। वे वीतहव्यों का नामोनिशान मिटा देने पर उतारू थे पर उनके निश्चय को ऋषियों ने शांत किया।
दशरथ के मित्र मेरे इस वृद्ध आर्य सम्राट प्रतर्दन को श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ में आमंत्रित कर अधीनस्थ नरेश का नहीं बल्कि पिता का सा ही सम्मान दिया।
परंतु उपनिषद काल में यह सद्भाव काशी-कोशल प्रतिद्वंदिता में बदल गया।
शस्त्रों की भी और शास्त्र की भी।
शस्त्रों में मैं भले हल्की पड़ती थी लेकिन शास्त्रों में अद्वितीय रही।
लेकिन महाभारत युग तक आते आते कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरे ह्रदय को दग्ध कर दिया।
महादेव रुद्र ने मानव शरीर के माध्यम से ब्रह्मांड के रहस्य को समझने के लिए जिस ‘तंत्र शास्त्र’ की आधारशिला रखी उसे कुछ स्वार्थी ब्राह्मणों ने अतिमानवीय शक्तियां प्राप्त करने का मार्ग मान लिया और कुछ स्वार्थी क्षत्रियों ने उन्हें संरक्षण भी दिया जिनका प्रतीक था जरासंध। ऐसे दुष्ट अभिचारी ब्राह्मणों व नरमेधी क्षत्रियों के प्रतीक था मेरा तत्कालीन राजा और उसका उतना ही दुष्ट पुत्र सुदक्षिण।
पाशविकता का नंगनाच होने लगा।
सच्चरित्र व धर्मात्मा ब्राह्मण मुझे छोड़कर जाने लगे और मैं अपने वक्ष पर अधर्मी, पापी व जनशोषक ब्राह्मणों व क्षत्रियों के कुकर्मों को देख खून के आँसू रोने लगी।
अंततः महादेव का क्रोध जागा।
हर ने हरि को प्रेरित किया।
कृष्ण ने पूर्वी भारत जाकर नारायण की नकल करने वाले पुंड्र नरेश पौंड्रक का ही वध नहीं किया बल्कि कुकर्मों के उसके साथी काशी नरेश का भी वध कर दिया।
अधर्मी नरेश के अधर्मी पुत्र ने वामी ब्राह्मणों से उत्पन्न करवाई कृत्या और उसे ‘हरिजनों’ के विनाश का आदेश दिया।
कृष्ण क्रुद्ध हो उठे और प्रज्वलित सुदर्शन ने कृत्या, सुदक्षिण, यज्ञकर्ता दुष्ट ब्राह्मणों के साथ साथ काशी में अग्निकांड रच दिया और भावी पीढ़ियों को सीख दी कि अन्याय व अधर्म को चुप रहकर देखने वाले भी एक दिन उसका परिणाम भुगतते हैं।
इस अग्निकांड से मैं मेरे अंदर आ बसे दुष्ट तत्वों से मुक्त हुई और मैं धर्मज्ञान के गढ़ के रूप में पुनः विकसित होने लगी।
काशी-कोशल की पुरातन प्रतिद्वंदिता के कारण मेरी राजनैतिक प्रभुसत्ता बेशक कोशल नरेश प्रसेनजित के अधीन हो गई लेकिन धर्म और ज्ञान के मेरे साम्राज्य का निरंतर विस्तार होता रहा और साथ में विकसित होती गई वह कट्टरता जिसके कारण बुद्ध और बौद्ध पूरे भारत पर छा जाने बाद भी मेरे सीमांत क्षेत्र सारनाथ तक ही बढ़ सके
अगस्त्य से लेकर पतंजलि तक मेरे बच्चे अपने महादेव के साथ और महादेव मेरे बच्चों के साथ मस्त मगन रहे।
मैं कर्मकांड का गढ़ बनती गई और फिर मैं गंगा के एक घाट पर नाग सम्राट भवनाग द्वारा दस अश्वमेधो के यज्ञयूपों व अश्वबलियों की साक्षी बनी। यह घाट आज भी दशाश्वमेध घाट के रूप में प्रसिद्ध है।
लेकिन मेरा ज्ञानवैभव लौटा गुप्तकाल में जब सुदूर दक्षिण से आये एक युवा संन्यासी ने मेरे एक चांडाल पुत्र से अद्वैत का बोध प्राप्त किया और उसमें शिव के दर्शन पाये।
युवा संन्यासी शंकर विभोर होकर शिव में माधव और माधव में शिव की एकात्मकता व अद्वैत को बूझकर गा उठा, “भज गोविन्दम भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़मते।”
वैदिक ज्ञान का पुनुरुत्थान हुआ ही था कि एक बार फिर विनाश की घटाएं घिर आईं।
पश्चिम से काले साये भारत पर मंडराने लगे और पाप की परछाइयों ने मुझे बाहर व अंदर दोनों ओर से ग्रसना शुरू किया।
मेरे ही धर्माचार्यों ने अपने समुद्रजयी पूर्वजों अगस्त्य, राम व कौण्डिन्य से द्रोह कर समुद्र यात्रा व विदेश यात्राओं पर प्रतिबंध लगा दिया जिसके परिणाम में क्षत्रियों का व्यूह ज्ञान, वैदेशिक आक्रांताओं की गतिविधियों तथा युद्ध का तकनीकी ज्ञान पिछड़ता चला गया।
मिहिरभोज की देवल संहिता को भुलाकर पुनर्धर्मान्तरण पर भी रोक रोक लगा दी गयी।
परिणाम में आक्रांताओं की संख्या बढ़ती चली गई।
अगर हिंदुओं की राजनैतिक सार्वभौमिकता का प्रतीक चित्तौड़ था तो धर्मसत्ता का केंद्र थी मैं।
आक्रांताओं ने दोंनों को बार बार नष्ट किया लेकिन उनकी आत्मा कभी नहीं झुकी।
मेरे महादेव का मंदिर ऐबक से लेकर अकबर तक इस क्रम में बनता टूटता रहा।
पर यह महादेव की पराजय नहीं बल्कि उनका रोष था कि वे यहाँ नहीं रहना चाहते।
वे रुष्ट क्यों न होते?
शैव ब्राह्मण वैष्णव ब्राह्मणों से झगड़ रहे थे।
स्मार्त ब्राह्मण धर्मांतरित हिंदुओं को वापस लेने को शास्त्र विरुद्ध बता रहे थे।
कर्मकांडी ब्राह्मण धर्म को धंधा बनाकर व्यापार कर रहे थे।
पर इन झगड़ों की गर्म लू भरी हवाओं के बीच में तुलसी जैसे ब्राह्मण संत आकर मुझे दिलासा भी देते रहे कि दिन फिर से बहुरेंगे।
उनकी रामचरित मानस के प्रकटीकरण की भी साक्षी बन धन्य हुई मैं।
उन्होंने प्रभु राम की स्वीकृति प्राप्त की,
“शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहीं भावा।”
मेरा आह्लाद मेरे पुत्रों के आँसुओं के रूप में बह निकला और शैवों व वैष्णवों के झगड़े बंद हो गए।
विद्या का फिर से प्रसार शुरू हुआ।
लेकिन आखिरी परीक्षा अभी शेष थी।
धर्मांध, बर्बर, म्लेच्छ, आक्रांता औरंगजेंब ने मेरे अधिष्ठाता देव, मेरे संरक्षक भगवान विश्वनाथ के मंदिर को ध्वस्त कर उसे मस्जिद में बदल दिया।
पूरा भारत उबल पड़ा।
‘शिव’ का तृतीय नेत्र महाराष्ट्र में ‘स्वर्ण गैरिक ध्वज’ हाथ में लेकर अवतरित हुआ। इसी स्वर्णगैरिक ध्वज ‘शिव प्रेरणा’ को लेकर दक्षिण का एक चितपावन ब्राह्मण मुगल साम्राज्य पर टूट पड़ा। महाबली बाजीराव ने मुगलों की जड़ें खोद डालीं।
मंदिर को पुनः बनवाने का पुण्यलाभ मिला प्रातःस्मरणीय मातोश्री अहिल्याबाई होलकर को और पंजाब से महाराज रंजीत सिंह द्वारा भेजा गया स्वर्ण बाबा के मंदिर के स्वर्णिम शिखर में उनका कीर्तिकलश ही नहीं बल्कि सिखों के सनातन से अटूट सम्बंध का प्रतीक बनकर स्थापित हुआ।
सभी प्रसन्न थे लेकिन बाबा का एक गण अभी भी उदास था।
उसने बाबा के नए घर में जाना अस्वीकार कर दिया।
यह था बाबा का प्रिय नंदी जो अब भी पुराने घर की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है।
उसकी पीड़ा मैं समझती थी लेकिन मैं क्या करती क्योंकि मेरी संतानें ही मेरे वैभव को भूल गईं।
संकरी गलियों में धर्म का धंधा करते और मंदिरों को अपने घरों में बंद कर उनपर शौचालय बनाकर उनकी गरिमा ध्वस्त करते देख मैं उदास हो रोती रही।
धर्म के इन धंधेबाजों ने संकरी गलियों, गंदगी, पान की पीक और अश्लील गालियों को ही मेरी पहचान बना दिया।
वे भूल गए कि यह सब हजार वर्ष की गुलामी के चिन्ह हैं जबकि अपने वैभवकाल में मैं कभी चौड़े राजपथों, विशाल परिसरों के शिवालयों व वेदमंत्रों के गूंजते स्वरों वाले गंगा के भव्य घाटों की नगरी के रूप में प्रसिद्ध थी।
लेकिन महादेव भला मुझे कैसे भूलते और मेरा भौतिक उद्धार करने उन्होंने अपने एक ‘गण’ को भेजा।
उसने काशी की काया को बदला और अपने आराध्य के लिए भव्य आवास की योजना काशी कॉरीडोर के रूप में बनाई।
भगवावेश धरे म्लेच्छमित्र धूर्त कालनेमियों ने इस योजना में विघ्न डालने की पूरी पूरी कोशिशें की परंतु महादेव के गण के सामने उनकी एक न चली।
लेकिन महादेव अपने घर में जाने में संकुचित से थे क्योंकि ‘उनके आराध्य’ स्वयं एक फटे तंबू में थे।
उनके यशस्वी गण ने जैसे महादेव की इच्छा व आशीर्वाद से चुटकियों में वह कार्य कर दिया जिसकी नींव हजारों ‘हरिहर भक्तों’ ने अपने रक्त से रखी थी।
अयोध्या में अपने प्रभु के भव्य निवास को बनता देख अब बाबा विश्वनाथ ने भी संतोष के साथ अपने भव्य घर में गृहप्रवेश स्वीकार कर लिया है और आज वे अपनी पूर्ण गरिमा से प्रतिष्ठित हो रहे हैं और साथ ही तिरछी चितवन से अपने लल्ला, मथुरा के कान्हा को आश्वासन दे रहे हैं कि शीघ्र ही वह भी अपने भव्य जन्म स्थल पर पुनः विराजेंगे कि उन्होंने अपने ‘एक और गण’ को इस कार्य हेतु नियुक्त कर दिया है जिसे संसार योगी आदित्यनाथ के नाम से जानता है।

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