Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 61
जटायु की मृत्यु से श्रीराम को अतीव दुःख हुआ। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “सीता की रक्षा के लिए युद्ध करने के कारण रावण के हाथों जटायु का वध हुआ है। इस प्रकार उन्होंने मेरी सहायता के लिए ही अपने प्राणों का बलिदान किया है। जैसे महाराज दशरथ मेरे लिए पूज्य थे, वैसे ही जटायु भी हैं। अतः तुम सूखे काष्ठ जमा करो, मैं मथकर आग निकालूँगा और गृध्रराज जटायु का दाह-संस्कार करूँगा।”
तब लक्ष्मण ने चिता तैयार की और श्रीराम ने दुःखी मन से जटायु का दाह-संस्कार किया। इसके बाद दोनों भाइयों ने वन में एक रोही (नीलगाय) का शिकार किया और फिर उसके माँस से पिण्ड बनाकर उन्होंने जटायु का पिण्डदान किया। फिर श्रीराम ने मृतकों के लिए किए जाने वाले मन्त्रों का जाप किया व उसके बाद दोनों भाइयों ने गोदावरी में स्नान करके जटायु को जलांजलि दी। इस प्रकार तर्पण करने के बाद दोनों भाई सीता की खोज में आगे बढ़े।
नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते वे लोग एक घने वन को पार करके जनस्थान से तीन कोस दूर क्रौंचारण्य नामक दूसरे गहन वन में पहुँचे। उसे पार करके वे लोग मतंग ऋषि के आश्रम के पास पहुँचे। वह वन बड़ा भयंकर था। उसमें अनेक भीषण पशु-पक्षी निवास करते थे और वह अनेक गहन वृक्षावलियों से व्याप्त था।
वहाँ पहुँचने पर उन्हें पर्वत पर एक गहरी और अँधेरी गुफा दिखाई दी। उसके समीप जाने पर उन्होंने विकराल मुँह वाली एक भयंकर राक्षसी को देखा। वह भयानक पशुओं को भी पकड़कर खा जाती थी। उसका पेट लंबा, तीखे दाँत और त्वचा कठोर थी। उसका अकार विराट था और बाल खुले हुए थे। उसे देखकर बड़ी घृणा होती थी।
दोनों भाइयों को देखते ही वह उनके पास आई और उसने लक्ष्मण को अपनी भुजाओं में कस लिया। वह उनसे कहने लगी, “आओ हम दोनों रमण करें। मेरा नाम अयोमुखी है। आज से तुम मेरे पति बन जाओ। हम दोनों पर्वत की दुर्गम गुफाओं में और नदियों के तट पर जीवन का आनंद लेंगे।”
यह सुनकर लक्ष्मण क्रोध से भर गए। उन्होंने तलवार निकालकर उस राक्षसी के नाक, कान और स्तन काट डाले। भयंकर चीत्कार करती हुई वह तेजी से वापस भाग गई।
वहाँ से आगे बढ़ने पर दोनों भाई एक और गहन वन में जा पहुँचे। तब सहसा लक्ष्मण जी ने श्रीराम से कहा, “आर्य! मेरी बायीं भुजा जोर-जोर से फड़क रही है और मन उद्विग्न हो रहा है। मुझे बार-बार बुरे शकुन दिखाई दे रहे हैं, जो इस बात का संकेत दे रहे हैं कि तत्काल ही हम पर कोई संकट आने वाला है। अतः आप भी उसके लिए तैयार हो जाइये। लेकिन वंजुल नामक यह पक्षी भी जोर-जोर से बोल रहा है, जो इस बात का संकेत है कि इस युद्ध में हमारी ही विजय होगी।”
ऐसी बातें करते हुए वे दोनों भाई सीता को खोज रहे थे कि सहसा तभी वन में बहुत तेज ध्वनि सुनाई पड़ी और बहुत तेज आँधी चलने लगी। पूरी वन उसकी चपेट में आ गया।
दोनों भाई हाथ में तलवार लेकर उस ध्वनि का पता लगा ही रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि चौड़ी छाती वाले एक विशालकाय राक्षस पर पड़ी। वह देखने में बहुत बड़ा था, किन्तु उसका न सिर था, न गला। केवल कबन्ध (धड़) ही उसका स्वरूप था, इसलिए वह कबन्ध ही कहलाता था। उसके सारे शरीर में रोयें थे। उसका वर्ण बादलों जैसा काला था और वह मेघों जैसी ही गर्जना करता था। उसका मुँह पेट में ही बना हुआ था। उसका मस्तक छाती में था और उसी पर एक लंबी-चौड़ी व आग के समान दहकती हुई भूरी आँख बनी हुई थी। उसकी पलकें और दाँत भी बहुत बड़े-बड़े थे।
अपनी लपलपाती हुई जीभ से वह बार-बार अपने विशाल मुँह को चाट रहा था। भयंकर रीछ, सिंह और हिंसक पशु-पक्षी ही उसका भोजन थे। अपनी एक-एक योजन लंबी भयानक भुजाओं को वह दूर तक फैला देता था और उन दोनों हाथों से विभिन्न पशु-पक्षियों के झुण्डों को खींचकर उन्हें खा जाता था।
जब दोनों भाई उसके पास पहुँचे, तो अपनी दोनों भुजाएँ फैलाकर उसने उन्हें पकड़ लिया। तलवारें और धनुष-बाण होते हुए भी दोनों भाई उसकी पकड़ से छूट नहीं पा रहे थे। तभी अचानक वह राक्षस उनसे बोला, “मेरा भाग्य बहुत अच्छा है कि तुम दोनों स्वयं ही मेरे निकट आ गए। मैं बहुत भूखा हूँ, अतः अब तुम मेरा निवाला बनोगे। तुम दोनों का जीवित रहना अब कठिन है।”
उस राक्षस की ये बातें सुनकर दोनों भाई बड़े व्याकुल हुए, पर अगले ही क्षण उन्होंने आपस में योजना बनाई और अपनी-अपनी तलवारें निकालकर एक ही झटके में उसके दोनों भुजाएँ काट डालीं क्योंकि उसकी सारी शक्ति उन भुजाओं में ही थी। इससे वह राक्षस तत्क्षण ही भूमि पर गिर पड़ा और कराहने लगा। तब उसने दीन-वाणी में पूछा, “वीरों! तुम दोनों कौन हो?”
इस पर लक्ष्मण ने उसे श्रीराम का और अपना परिचय दिया तथा अपने वनवास का कारण व सीता के अपहरण की बात बताई। फिर उन्होंने उसका परिचय पूछा। तब उस राक्षस ने बताया कि “पूर्व-काल में मैंने अनेक ऋषियों को सताया था। फिर अपनी शक्ति के अहंकार के कारण मैंने देवराज इन्द्र पर भी आक्रमण कर दिया। तब उन्होंने सौ धारों वाले वज्र से मुझ पर प्रहार किया था, जिससे मेरी जाँघें और मेरा सिर मेरे शरीर में ही घुस गए किन्तु ब्रह्माजी ने मुझे दीर्घ-जीवन का वरदान दिया था, अतः मेरी मृत्यु नहीं हुई। तब मैंने इन्द्र से निवेदन किया कि ‘अब मैं आहार कैसे ग्रहण करूँगा?’ यह सुनकर उन्होंने मेरी भुजाएँ एक-एक योजन लंबी कर दीं और मेरे पेट में ही तीखे दांतों वाला एक मुख बना दिया। उसी से मैं वन के सिंह, चीते, हिरण, बाघ आदि को समेटकर खाया करता था।”
“इन्द्र ने मुझे यह भी बताया था कि जब राम-लक्ष्मण वन में आएँगे और तुम्हारी भुजाओं को काट देंगे, तब तुम स्वर्ग में जाओगे। इसी कारण मुझे विश्वास था कि एक दिन श्रीराम भी अवश्य मेरी पकड़ में आ जाएँगे। आज मुझे विशवास हो गया कि उनकी बात सत्य थी। जब आप लोग मेरा दाह-संस्कार कर देंगे, तब मैं आप दोनों को एक मित्र का पता बताऊँगा, जो आपकी सहायता करेगा।”
यह सुनकर श्रीराम बोले, “कबन्ध! मेरी भार्या सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है। मैं उस राक्षस का केवल नाम ही जानता हूँ। वह कहाँ रहता है, कैसा दिखता है, यह सब हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। तुम उस संबंध में हमारी कोई सहयता करो। सीता का पता हमें बताओ। फिर हम लोग सूखे काठ लाकर एक बहुत बड़े गड्ढे में तुम्हारे शरीर को रखकर जला देंगे।”
तब कबन्ध ने कहा, “श्रीराम! इस समय मेरे पास दिव्य-ज्ञान नहीं है, अतः मैं सीता के बारे में कुछ भी नहीं जानता, किन्तु जब मेरे इस शरीर का दाह हो जाएगा, तब मैं अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त कर लूँगा और आपको एक ऐसे व्यक्ति का पता बता सकूँगा, जो आपकी सहायता कर सकेगा। जब तक मैं अपने इस शरीर से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक मुझमें यह जानने की शक्ति नहीं आ सकती कि सीता का अपहरण करने वाला वह राक्षस कौन है। शाप के कारण इस समय मेरा वह ज्ञान नष्ट हो गया है। अतः सूर्यास्त से पूर्व ही आप मेरा दाह-संस्कार करके मुझे इस शरीर से मुक्त कर दीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण ने लकड़ियों से चिता तैयार की और उसे चारों ओर से जला दिया।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस और एक अन्य अंग्रेजी अनुवाद)

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