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ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने को इतने व्याकुल क्यों

देवेन्द्र सिकरवार

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अच्छा, ये बताइये आप ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने को इतने व्याकुल क्यों होते हैं?
इतने व्याकुल कि हिंसक तक हो उठते हैं उन नास्तिकों की तरह जो ईश्वर को न होने देने के लिए इतने ही हिंसक हैं।
सेमेटिक और साम्यवादी नास्तिकता एक विशुद्ध राजनैतिक टूल है उसका हिंदू परंपरा की नास्तिकता से कोई लेना देना नहीं है।
लेकिन दो दिन में मैंने जितना जाना है उससे स्पष्ट हुआ है कि जिस भारत का हिंदू महावीर और बुद्ध जैसे महान दार्शनिक मल्लों से भी नहीं डरा, आज वह हिला हुआ है, अपने विश्वास को लेकर।
लगभग सभी की हालत एग्जाम हॉल के बाहर खड़े उन विद्यार्थियों की सी है जो किसी सवाल पर निशान लगा आये हैं और बहस करके उसे ही सही मनवाना चाहते हैं चाहे उत्तर जो भी हो।
इसकी मानसिकता में मैंने दो-तीन कारण लक्षित किये:-
1)एक वे जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावाद के विरोध में मेरे आंदोलन से चिढ़े बैठे हैं और कुछ कालनेमि दूत जो रावण द्वारा भेजे जाते हैं और उन्हें मेरी हर बात का विरोध करना ही है और वह भी गालियों के साथ।
2)अधिकांश व्यग्र व उग्र लोग 38 से 45 के बीच के हैं जो किसी भी असहज प्रश्न से विचलित हो जाते हैं जो उनके जमे-जमाये विश्वासों को हिला दे जबकि 25 से 32 युवान पाठकों ने प्रश्न का स्वागत किया।
3)हिंदुओं में आत्मविश्वास का अभाव हो गया है। उन्हें चमत्कारिक नेता, चमत्कारिक संत, चमत्कारिक दैवी सहायता चाहिए जो उनकी हर समस्या को चुटकियों में दूर कर दे। अधिकांश लोग ये ग्रंथ पढ़ो, उस बाबा को सुनो, ये चमत्कार देखो जैसे सुझाव देते पाये गये। अपनी मेधा के बूते उत्तर देने या स्वीकारने की क्षमता वाले कम ही निकले।
4)लोगों ने ईश्वर को भी राष्ट्रवाद का विषय वैसे ही बना लिया है जैसे मध्यकाल में धर्म को समाज का। ऐसे में नये नये जागृत हिंदू अपने राष्ट्रवाद का परिचय देने को व्याकुल रहते हैं, भले ही उन्हें आस्तिक, नास्तिक, अनीश्वरवाद में अंतर न पता हो। अब इन्हें कोई क्या समझाए कि राष्ट्रवाद के दो स्तम्भ वीर सावरकर व भगतसिंह अनीश्वरवादी थे हालांकि भगतसिंह स्वयं ही अपने लिये नास्तिक शब्द का प्रयोग कर बैठे।
5)वस्तुतः हिंदू एक दुविधा से गुजर रहे हैं। कड़वा सत्य यह है कि अधिकांश हिंदू कर्मसिद्धांत व कर्मफल में विश्वास नहीं करते वरना हमारा समाज इतना हाइपोक्रिटिक न होता कि मंदिर में दान देकर बाहर अनैतिक आचरण करें और ‘गंदा है पर धंधा है’ कहकर बचाव भी करें।
मंदिर में दस बार कान को हाथ लगाकर पापों के लिए क्षमा मांगकर फिर वही करने निकल पड़ना और फिर अगले दिन क्षमा मांगने के इस क्रम में अगर कोई कह दे कि जिससे तू क्षमा मांग रहा है वह तो है ही नहीं और तुझे कर्मों का फल तो भुगतना ही होगा, तो उसकी हालत क्या होगी? वह इस सूचना देने वाले के प्रति हिंसक ही होगा क्योंकि आपने उसका सहारा छीन लिया।
इसी तरह अपने दुःखों को मिटाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने वाले को कोई कह दे कि ईश्वर नहीं है तो वह भला हिंसक न होगा तो और क्या होगा क्योंकि उसकी उम्मीद की आखिरी रस्सी जो काटी जा रही है।
वस्तुतः भारत में इस्लाम व ईसाइयत के बढ़ने का मूल कारण यही पैकेज है, इस दुनियाँ का भी और उससे परे मरने के बाद भी।
हिंदुओं के संस्कार और सहस्त्राब्दियों का अभ्यास उधर जाने से रोकता तो है पर मन ललचाता भी है अतः उन्होंने अपने ईश्वर का इस्लामाइजेशन कर दिया है जो उनके हिंसक व्यवहार में दिखने भी लगा है।
मैंने संस्कृत की एक नाटिका में एक ब्राह्मण परिवार के विषय में पढ़ा था जिसमें वृद्ध पिता कट्टर वैदिक, बेटा बौद्ध और बहू जैन थी। सोचिये दृश्य को जब परिवार में तीनों ईश्वर पर क्या चर्चा करते होंगे।
गुप्त युग को भारत का स्वर्णयुग यों ही नहीं कहा गया है।
दुर्भाग्य से हम वह स्वर्ण युग भी खो चुके हैं और ईश्वर पर चर्चा करने का आत्मविश्वास भी।

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