मैं सेंटा या न्यू ईयर सेलिब्रेशन के विरोध में अपनी ऊर्जा जाया नहीं करता तो इसका कारण यह नहीं कि मुझे इन त्योहारों से कोई लगाव है बल्कि इसलिए कि मैं जानता हूँ कि बाजार और समय के सम्मुख लड़ना समय व ऊर्जा की बर्बादी है।
तो हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाएं?
नहीं! बिल्कुल नहीं!!
हमें अपने त्योहारों को उसी तरह ग्लैमर में ढालना होगा जैसे दीवाली को ढाला।
एक हिस्सा पूजा पाठ तो दूसरे हिस्से में सजावट, मिठाईयां व आतिशबाजी।
जब तक आपके त्योहार में युवा इन्वॉल्व नहीं होगा तो उसमें ग्लैमर नहीं होगा।
ग्लैमर नहीं होगा तो बाजार इन्वॉल्व नहीं होगा ।
बाजार इन्वॉल्व नहीं होगा तो त्योहार हमारे घर तक सीमित रहेंगे और हम क्रिसमस व सांता क्लॉज के विरोध में ‘तुलसी पूजा’ और ‘पितृपूजन’ जैसे नकली सस्ते आयोजन करते रहेंगे।
कोई बेशक कुछ भी कहे लेकिन एक बात तो है कि मुख्यमंत्री रहते लालू यादव ने छठ त्योहार की जो ब्रैंडिंग की उसने छठ पूजा को भारतव्यापी बना दिया।
यूं तो इसका मुख्य श्रेय बिहारी भाइयों की लोकआस्था को ही जाता है पर उसे उसका ब्रैंड एम्बेसडर बनकर उसे ग्लैमराइज करने का कार्य लालू यादव ने ही किया।
नाक से लेकर सिर तक सिंदूर लगाए बिहारी स्त्रियों ने उस इमेज को ग्लैमराइज किया और परिणाम सामने हैं। अब यह सिंदूर छठ की पहचान बन गया है।
हमें अपने त्योहारों को दो हिस्सों में डिजाइन करना होगा।
उसके मूल रूप और परंपरागत अनुष्ठानों पर कोई समझौता नहीं लेकिन उसके दूसरे भाग में जब तक युवाओं का आकर्षण चाहे वह रंग विशेष या डिजाइन का परिधान हो या गिफ्ट या सजावट या आतिशबाजी आदि न होगा तो वह बाजार को आकर्षित न कर पायेगा।
फरवरी के कुख्यात वेलेंटाइन डे को हम बसंत पंचमी के ‘बसंत सप्ताह व अनंग पूजा’ द्वारा आसानी से रिप्लेस कर सकते हैं। बस एक ब्रैंड एम्बेसडर चाहिए, इसे व्यापक बनाने के लिए।
दूसरे की लकीर मत पीटिये, अपनी लकीर बड़ी खींचिए।
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