Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 92
सुग्रीव की बातें सुन लेने के बाद श्रीराम ने हनुमानजी तथा अन्य वानरों की ओर देखते हुए कहा, “वानरों! वानरराज सुग्रीव ने विभीषण के बारे में जो उपयुक्त बातें कहीं, वे तुम लोगों ने भी सुनी ही हैं। जो भी अपने मित्र का हित चाहता है, उसे सदा इसी प्रकार अपना मंतव्य प्रकट करना चाहिए। तुम लोग भी अपनी बात कहो।”
यह सुनकर सभी वानर उत्साहित हो गए। उन्होंने कहा, “श्रीराम! हम जानते हैं कि आप स्वयं ही हर विषय का ज्ञान रखते हैं व निर्णय लेने में पूर्णतः समर्थ हैं किन्तु फिर भी केवल हमारा सम्मान बढ़ाने के लिए ही आप हमसे सलाह माँग रहे हैं। हम एक-एक करके आपको अपने विचार बताते हैं।”
तब सबसे पहले अंगद बोला, “श्रीराम! विभीषण शत्रु-पक्ष से आया है, अतः हमें तुरंत ही उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। ऐसे बहुत-से धूर्त लोग होते हैं, जो अपने मनोभावों को छिपाकर रखते हैं। फिर अवसर मिलते ही विश्वासघात करते हैं। अतः गुण-दोषों की परीक्षा करके हमें निश्चय करना चाहिए कि यह व्यक्ति हमारा हित करेगा या अहित करेगा। उसके आधार पर ही उसे स्वीकार करना चाहिए अथवा त्याग देना चाहिए।”
इसके बाद शरभ ने सोच-समझकर अपनी बात कही, “प्रभु! इस विभीषण के ऊपर हमें कोई गुप्तचर नियुक्त कर देना चाहिए। उसकी यथावत परीक्षा लेने के बाद ही हम उस पर विश्वास करें।”
फिर वृद्ध जाम्बवान ने कहा, “रावण बड़ा पापी है। उसने हमसे वैर कर लिया है और यह विभीषण भी उसी के पास से आ रहा है। वास्तव में यह न तो उसके आने का उचित समय है और न स्थान। अतः हमें इसके प्रति सशंकित ही रहना चाहिए।”
इसके पश्चात नीति-अनीति के ज्ञाता मैन्द ने कहा, “महाराज! यह विभीषण रावण का छोटा भाई है। अतः हमें मधुर व्यवहार करते हुए इससे धीरे-धीरे सब बातें पूछनी चाहिए। फिर इसके हाव-भाव को समझकर निर्णय करना चाहिए कि यह दुष्ट है या नहीं। उसके बाद जैसा उचित हो, वैसा करें।”
सबकी बातें सुनने के बाद परम बुद्धिमान हनुमान जी हाथ जोड़कर विनम्र वाणी में बोले, “श्रीराम! आप तो स्वयं ही सबसे बुद्धिमान व सामर्थ्यवान हैं। मैं इस समय जो कहने वाला हूँ, वह किसी से वाद-विवाद करने की इच्छा से अथवा बुद्धि के अभिमान से नहीं कहूँगा। मैं केवल वही कहूँगा, जो कार्य की दृष्टि से इस समय उचित है।”
“इन सबने जो विभीषण की परीक्षा लेने का सुझाव दिया है, वह मुझे उचित नहीं लगता क्योंकि इस समय परीक्षा लेना कदापि संभव नहीं है। विभीषण की योग्यता का निर्णय करने के लिए उसे कोई कार्य सौंपना होगा, किंतु आते ही उसे किसी काम में लगा देना मुझे अनुचित ही लगता है। गुप्तचर नियुक्त करने का भी कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि गुप्तचर उसके लिए नियुक्त किया जाता है, जो बहुत दूर हो तथा जिसके बारे में कोई जानकारी न हो। जो स्वयं ही सामने खड़ा होकर अपना वृत्तांत बता रहा है, उसके लिए गुप्तचर भेजने की क्या आवश्यकता है?”
“मुझे यह मानना भी उचित नहीं लगता कि विभीषण का यहाँ आना स्थान व काल के अनुसार अनुचित है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यही उसके आने का उचित काल व स्थान है। वह एक नीच पुरुष को छोड़कर एक श्रेष्ठ पुरुष के पास आया है। उसने दोनों को दोषों व गुणों का भी विवेचन किया है। अतः उसक यहाँ आना सर्वथा उचित व स्वाभाविक है।”
“श्रीराम! यदि किसी व्यक्ति से सहसा यह पूछा जाए कि ‘तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? क्यों आए हो?’ तो वह पूछने वाले पर संदेह करने लगेगा। उसे यदि ज्ञात हो जाए कि सब-कुछ जानते हुए भी मुझसे इस प्रकार पूछा जा रहा है तो मित्रता की इच्छा से आने वाले उस व्यक्ति का हृदय पीड़ित हो जाएगा तथा हमें एक मित्र से वंचित होना पड़ेगा। किसी के मन में क्या छिपा है, यह उस व्यक्ति के साथ बहुत-सा समय व्यतीत किए बिना नहीं जाना जा सकता।”
“अतः उचित यही होगा कि आप उसकी वाणी को सुनकर स्वरभेद से यह निर्णय करें कि वह मित्र के रूप में आया है अथवा छल के उद्देश्य से आया है। दुष्ट पुरुष कभी भी निःशंक तथा शांत मन से सामने नहीं आ सकता, किन्तु इसका मन प्रसन्न है तथा इसकी बातचीत से भी कोई दुर्भावना प्रकट नहीं हो रही है। अतः मेरे मन में इसके प्रति कोई संदेह नहीं है।”
“मुझे तो लगता है कि वाली के वध तथा सुग्रीव के राज्याभिषेक का समाचार जानने तथा आपके पराक्रम के बारे में सुनने के बाद, यह इसी आशा से आया है कि रावण के अनुचित आचरण के कारण आप उसका वध करके लंका का राज्य इसे दे देंगे। इस आशा से यह आपके कार्य को सफल बनाने में सहायता ही करेगा।”
“इन सब बातों का विचार करके मुझे तो यही उचित लगता है कि आप विभीषण को भी अपने समूह में स्वीकार कर लें। मैंने केवल अपना विचार प्रकट किया है, किन्तु आप जैसा उचित समझें वैसा निर्णय लें।”
आगे जारी रहेगा….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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