Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 93
अपने ही मन की बात हनुमान जी के मुख से सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा, “वानरों! विभीषण के विषय में मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। जो मित्रता की भावना लेकर मेरे पास आया हो, मैं कभी भी उसका त्याग नहीं कर सकता।”
यह सुनकर सुग्रीव ने पुनः कहा, “प्रभु! यह दुष्ट हो या सज्जन, किन्तु है तो निशाचर ही! जो पुरुष संकट में पड़े हुए अपने भाई को छोड़ सकता है, उसका कैसे विश्वास करें?”
तब श्रीराम सुग्रीव से बोले, “सुग्रीव! राजाओं के लिए दो प्रकार के भय बताए गए हैं। एक तो स्वजनों से और दूसरा पड़ोसी देशों के निवासियों से। विभीषण को भी अपने स्वजनों से भय है, इसी कारण वह यहाँ आया है। जिन लोगों के मन में पाप नहीं है, वे अपने कुल में जन्मे अन्य लोगों को अपना हितैषी मानते हैं, किन्तु राजा प्रायः अपने ऐसे स्वजनों को भी संदेह की दृष्टि से ही देखते हैं। रावण को भी अब विभीषण पर विश्वास नहीं है। अतः यह कहना उचित नहीं है कि विभीषण ने अपने भाई को त्याग दिया। वह तो केवल अपने प्राण बचाने के लिए यहाँ आया है।”
“तुमने यह भी कहा था कि शत्रु सैनिक होने के कारण यह अवसर देखकर हम पर भी प्रहार कर सकता है। तुम्हारी इस शंका का भी मैं निराकरण कर देता हूँ। एक तो हम इसके स्वजन नहीं है, इसलिए इसे हमसे किसी हानि की आशंका नहीं है। दूसरा यह राक्षस हमारी सहायता से राज्य पाने का अभिलाषी है, इस कारण भी यह हमारा त्याग नहीं कर सकता। इन राक्षसों में कुछ लोग बहुत विद्वान भी होते हैं। ऐसे लोगों से मित्रता करने पर हमारा लाभ ही होगा। विभीषण ने शरण पाने के लिए जिस प्रकार हमें पुकारा है, उससे लगता है कि राक्षसों में फूट पड़ गई है तथा वे एक-दूसरे से ही भयभीत हो गए हैं। इसलिए हमें विभीषण को अपने पक्ष में मिला लेना चाहिए।”
यह सब सुनकर भी सुग्रीव ने पुनः दोहराया कि “रावण के कहने पर ही यह निशाचर मन में कोई कुटिल विचार लेकर यहाँ आया होगा। हमारा विश्वास जीतकर अवसर पाते ही यह हम पर प्रहार कर देगा। इसलिए हमें अभी इसका वध कर देना चाहिए।”
तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “वानरराज! यह विभीषण दुष्ट हो अथवा सज्जन हो, किन्तु क्या यह राक्षस किसी भी प्रकार से मुझे हानि पहुँचा सकता है? इतनी शक्ति किसमें है? मैं यदि चाहूँ तो पृथ्वी पर जितने भी पिशाच, दानव, यक्ष और राक्षस हैं, उन सबको एक ही प्रहार से मार सकता हूँ।”
इस प्रकार की कई बातें समझाकर अंत में श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! वह चाहे विभीषण हो या स्वयं रावण ही यहाँ आ गया हो। तुम जाकर उसे ले आओ। मैंने उसे अभयदान दे दिया है।”
यह सुनकर सुग्रीव ने हाथ जोड़कर उनकी बात मान ली और तब श्रीराम शीघ्र आगे बढ़कर विभीषण से मिले।
श्रीराम को देखते ही विभीषण व उनके साथी आकाश से पृथ्वी पर उतर आये और उन्होंने श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया। फिर विभीषण ने अपना परिचय देते हुए कहा, “भगवन्! मैं रावण का छोटा भाई विभीषण हूँ। उसने मेरा अपमान किया है। इसलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ। अपने सभी मित्र, धन और स्वयं लंकापुरी को भी मैं छोड़ आया हूँ। अब मेरा राज्य, सुख और जीवन सब आपके ही अधीन है।”
यह सुनकर श्रीराम ने प्रेमपूर्वक विभीषण को देखा और उसे सांत्वना देकर आगे कहा, “विभीषण! तुम मुझे राक्षसों का बल ठीक-ठीक बताओ।”
तब विभीषण बोला, “श्रीराम! ब्रह्माजी के वरदान से गन्धर्व, नाग, पक्षी आदि कोई भी रावण को मार नहीं सकते। उसका छोटा व मेरा बड़ा भाई कुम्भकर्ण भी महातेजस्वी और पराक्रमी है। रावण के सेनापति का नाम प्रहस्त है। कैलास पर्वत पर हुए युद्ध में उसने कुबेर के सेनापति मणिभद्र को भी परास्त कर दिया था। महोदर, महापार्श्व तथा अकम्पन भी रावण के तीन अन्य सेनापति हैं। रावण का पुत्र इन्द्रजीत गोहचर्म के बने दस्ताने पहनकर अवध्य कवच धारण करके जब हाथ में धनुष लेकर युद्ध में खड़ा होता है, तो उस समय वह अदृश्य हो जाता है। उसने अग्निदेव को प्रसन्न करके ऐसी शक्ति पा ली है, जिससे वह विशाल चक्रव्यूह वाले संग्राम में अदृश्य होकर शत्रु पर प्रहार करता है। रक्त और मांस का भोजन करने वाले तथा इच्छानुसार रूप धारण कर लेने वाले सहस्त्रों राक्षस लंका में निवास करते हैं। जब उन्हें साथ लेकर रावण ने लोकपालों से युद्ध किया था, तो देवताओं सहित सभी लोकपाल उस दुष्ट रावण से पराजित होकर भाग खड़े हुए थे।”
यह सुनकर श्रीराम बोले, “विभीषण! रावण के इन सब पराक्रमों को मैं जानता हूँ। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि प्रहस्त और रावण सहित उसके पुत्रों का भी वध करके मैं तुम्हें लंका का राजा बनाऊँगा। वह रसातल में प्रवेश कर ले या पाताल में अथवा ब्रह्माजी के पास ही क्यों न चला जाए किन्तु अब वह मेरे हाथों से जीवित नहीं बच सकता।”
“मैं अपने तीनों भाइयों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि युद्ध में पुत्रों, सेवकों तथा समस्त बन्धु-बांधवों सहित रावण का वध किए बिना मैं अयोध्यापुरी में प्रवेश नहीं करूँगा।”
यह सुनकर विभीषण ने उन्हें प्रणाम करके कहा, “प्रभु! राक्षसोंके संहार में तथा लंका को जीतने में मैं प्राणों की बाजी लगाकर भी आपकी सहायता करूँगा।”
इसके बाद श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण से बोले, “सुमित्रानन्दन! तुम समुद्र से जल ले आओ और उसी से इन परम बुद्धिमान राक्षस राज विभीषण का राज्याभिषेक करो। मैं इसी क्षण से इन्हें लंका का राजा घोषित करता हूँ।”
तब लक्ष्मण ने तुरंत ही भाई की आज्ञा का पालन किया और विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया गया।
तत्पश्चात हनुमान जी और सुग्रीव ने विभीषण से पूछा, “राक्षसराज! हम लोग अपनी वानर-सेना के साथ इस महासागर को कैसे पार करेंगे? उसका कोई उपाय बताइये।”
इस पर विभीषण ने उत्तर दिया, “श्रीराम को समुद्र की ही शरण लेनी चाहिए। इस अपार महासागर को श्रीराम के ही पूर्वज राजा सगर ने खुदवाया था। अतः समुद्र इनकी सहायता अवश्य करेगा।”
तब तुरंत ही सुग्रीव ने श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाकर उन्हें विभीषण का यह सुझाव बताया। इस पर श्रीराम मुस्कुराकर लक्ष्मण से बोले, “लक्ष्मण! विभीषण की यह बात मुझे भी अच्छी लगती है, किन्तु सुग्रीव राजनीति के जानकार हैं और तुम भी योग्य सलाह देने में समर्थ हो। अतः तुम दोनों इस बारे में ठीक से विचार करके अपना मंतव्य बताओ।”
यह सुनकर सुग्रीव और लक्ष्मण दोनों ने कहा कि “हम भी विभीषण की इस बात से सहमत हैं।”
उन दोनों के ऐसा कहने पर श्रीराम समुद्र-तट पर कुश बिछाकर उस पर इस प्रकार बैठ गए, जैसे यज्ञवेदी पर अग्निदेव प्रतिष्ठित होते हैं।
इसी बीच दुरात्मा रावण का गुप्तचर शार्दूल राक्षस भी वहाँ आ पहुँचा और सागर-तट पर वानर-सेना की छावनी को देखकर उसने चुपचाप उसका पूरा निरीक्षण किया। इसके बाद वह उसी प्रकार गुप्त रूप से शीघ्र ही लंका की ओर लौट गया।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…..

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