Home विषयसाहित्य लेख मध्यएशिया व भारत : प्रागैतिहासिक काल की मध्येशियाई संस्कृतियां पश्चिमी दृष्टिकोण में-भाग 3

मध्यएशिया व भारत : प्रागैतिहासिक काल की मध्येशियाई संस्कृतियां पश्चिमी दृष्टिकोण में-भाग 3

देवेन्द्र सिकरवार

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इस काल में मध्यएशिया में मानव जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी विभिन्न बस्तियों का विकास तथा कॉकेसाइड व पूर्वी एशियाई नृजातियों के मिश्रण से नए-नए नृजातीय समूहों का विकास और उनका विश्व में विभिन्न दिशाओं की ओर प्रवाह।
इस प्रक्रिया का प्रारंभ नवपाषाण युग के उपरांत ताम्रयुग के प्रारंभ के साथ ही हो गया था।
मध्यएशिया में वर्तमान मानव जाति अर्थात होमो सेपियंस के प्रमाण लगभग 45 हजार साल पुराने हैं और ऐसा माना गया है कि वह पूर्वी एशिया के जीन पूल से आया हालांकि वह जल्दी ही समाप्त हो गया लेकिन वह एक ऐसी परंपरा बना गया जिसने मध्य एशिया में पश्चिमी व पूर्वी नृजातियों के सम्मिश्रण और उनके कबीलों से नई जातियों व संस्कृतियों का स्टॉक बना दिया जिनकी माइग्रेशन लहरों ने संसार भर को प्रभावित किया।
इस प्रक्रिया में विद्वानों विशेषतः यूरोपीय विद्वानों द्वारा ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले मध्येशियाई क्षेत्र में जिन संस्कृतियों का विकास हुआ, सभ्यतागत दृष्टि से उनका विस्तार पूर्व की ओर हुआ।
इस संदर्भ में एंथोनी मारिजा गुंटास की ‘कुर्गन परिकल्पना’ और उसको विस्तार देती डेविड एंथोनी की पुस्तक ‘द हॉर्स-द व्हील एंड द लैंग्वेज’ सबसे नवीनतम है।
उत्खनन से प्राप्त विभिन्न स्थानीय संस्कृतियों के संदर्भ में पर कुर्गन सिद्धांत के समर्थक पश्चिमी इतिहासकारों का मोटे तौर पर मानना है कि 5000 ई.पू. की ‘समारा ताम्र संस्कृति’ से उत्पन्न ताम्र-कांस्य युग की ‘यमनाया संस्कृति’ से ही अन्य संस्कृतियों का स्फुरण हुआ जो मध्य एशिया में पूरब की ओर फैली।
पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है कि यमनाया संस्कृति का फैलाव बोटाई संस्कृति क्षेत्र की ओर हुआ जहाँ दोंनों संस्कृतियों का मिश्रण भी हुआ और घोड़ों का सवारी के लिए उपयोग भी।
बोटाई संस्कृति के समांतर या कुछ समय बाद विकसित ‘अफानासिवो संस्कृति’ के बांधव माने जाने वाले तोखरियन लोग 3700 ईपू में बैक्ट्रिया के जिस क्षेत्र में बसे उसे आज तोखरिस्तान कहा जाता था।
उधर पश्चिम दिशा में प्रोटो-इण्डोयूरोपियन जातियों का अभिगमन शुरू हुआ जिनमें कुछ पश्चिम एशिया की ओर व कुछ यूनान की ओर गईं।
#सुमेरजन:-मेसोपोटामिया की सुमेर सभ्यता के जनकों के संबंध में कई विद्वान विशेषतः रूसी विद्वान उन्हें इंडोयूरोपियन मानते हैं एवं काकेशस को उनकी मातृभूमि मानते हैं।
परंतु 2013 में मेसोपोटामिया से प्राप्त चार प्राचीन कंकालों के डीएनए नमूनों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चलता है कि सुमेरियों का सिंधु घाटी सभ्यता के साथ गहरा संबंध था।
#यूनानी इधर माइसेनियन सभ्यता के संस्थापक आर्यों के बहिर्गमन के विषय में कई सिद्धांत प्रचलित हैं जिनमें से एक सिद्धांत के अनुसार, माइसेनियन लोग वस्तुतः यूरेशियन स्टेपी से पुरातन इंडो-यूरोपियन कबीले थे।
एक अन्य सिद्धांत का प्रस्ताव है कि ग्रीस में माइसेनियन संस्कृति लगभग 3000 ईसा पूर्व की है, जिसमें इंडो-यूरोपीय प्रवासी मुख्य रूप से निर्जन क्षेत्र में प्रवेश करते हैं;
एक अन्य परिकल्पना इस बहिर्गमन 7000 ई.पू. का मानती हैं।
#इंडोईरानी:- 3000 ईपू में मध्य एशिया में सहसा एक जाति दिखाई देती है जो प्राचीन संस्कृत बोलती है जिसे यूरोपीय विद्वान कहते हैं, ‘इंडो-ईरानियन भाषा’।
इसे बोलने वाले इन लोगों को यूरोपीय विद्वान कहते हैं- ‘इंडो-ईरानियन’ और उन्हें सम्बद्ध करते हैं भीतरी एंड्रोनोवो संस्कृति, सिंतश्टा संस्कृति व बैक्ट्रियामार्जियाना संस्कृति से।
सीमा यूराल नदी से लेकर पूर्व में तियान शान और दक्षिण में ट्रांसऑक्सियाना व हिंदुकुश ।
ऐतिहासिक भाषाविदों के भाषाई अध्ययन के मोटे अनुमान के अनुसार इंडो-ईरानियों का पृथक्करण 2000 ई.पू. में शुरू हुआ।
यूरोपियन इतिहासकारों के अनुसार पहली लहर दो भागों में बंटी एक अनातोलिया की ओर मितान्नियों के रूप में तथा दूसरी हिंदू कुश पार चली गई।
दूसरी लहर की व्याख्या ईरानी लहर के रूप में की जाती है। जिनमें 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में काला सागर तक पहुंचने वाले #सिम्मेरियन’ पहले इंडो-ईरानियन माने जाते जिनके बाद आये #सीथियन जिन्हें मध्य एशियाई शकों की एक पश्चिमी शाखा माना जाता है । इनके पीछे ‘#सरमाटियन‘ जनजातियाँ आईं।
संभवतः 9वीं शताब्दी ईपू में सीथियन मध्य एशिया के वोल्गा-उराल स्टेप्स के क्षेत्र में श्रुबनाया संस्कृति से उत्पन्न हुए जिसके पक्ष में पुरातात्विक, समाज और मानवशास्त्रीय साक्ष्य दोनों द्वारा दिया गया है।
पश्चिम के साथ-साथ शकों ने पूर्व में शिनजियांग में खोतान से लेकर तुमशुक तक कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।
मेडियन , फारसी और पार्थियन भी ईरानी पठार पर दिखाई देने लगे।
इनमें #मेंड एक प्राचीन ईरानी जाति थी जो मेडियन भाषा बोलते थे और जो पश्चिमी और उत्तरी ईरान के बीच मीडिया के रूप में जाने जाने वाले क्षेत्र में रहते थे। 11 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , उन्होंने उत्तर-पश्चिमी ईरान के पहाड़ी क्षेत्र और मेसोपोटामिया के पूर्वोत्तर और पूर्वी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। इन्हें पर्शियन्स अर्थात पार्शवों ने सत्ता से हटा दिया।
#पार्शव निमरुद में पाए गए शाल्मनेसर III का नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व नव-असीरियन शिलालेख, जिसमें उन्हें असीरियन रूपों ‘परसुआ’ और ‘परसुमाओं’ के रूप में वर्णित किया गया है।
6)#पार्थव ‘पार्थिया’ नाम पुरानी फारसी ‘पार्थव’ से निःसृत है।
पहली सहस्राब्दी सीई के आसपास, ईरानी समूहों ने ईरानी पठार के पूर्वी किनारे पर, उत्तर-पश्चिमी और पश्चिमी पाकिस्तान की पहाड़ी सीमा पर, क्षेत्र से पहले के इंडो-आर्यों को विस्थापित करना शुरू कर दिया ।
बहरहाल एड्रोनोवो संस्कृति के बाद ‘बैक्ट्रिया-मार्जियाना’ अर्थात ‘B-MAC’ संस्कृति के रूप में स्थायी कृषि संस्कृति को पाते हैं और मध्य एशिया की संस्कृति एक निश्चित आकार लेना शुरू कर देती है। जिसमें एक ओर ईरानी तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति के प्रभाव दिखाई देते हैं।
यह संक्षेप में मध्य एशिया का प्रागैतिहासिक इतिहास है जो पश्चिमी नजरिये से केवल और केवल अधिकतर आर्कियोलॉजी व कुछ हद तक भाषाई विकास के प्रवाह के संकीर्ण आधार पर इस पूर्वाग्रह के साथ लिखा गया है कि सभ्यता और विशेषतः ‘आर्य सभ्यता’ का विकास तो ‘पश्चिम से पूर्व’ की ओर ही हो सकता है।
अगली कड़ी में संशोधित नजरिया हिंदू साहित्यिक व आर्कियोलॉजिकल प्रमाणों के साथ जिनका विस्तृत विवरण #इंदु_से_सिंधु_तक में दिया है।

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