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मध्यएशिया व भारत : मध्यएशिया का इतिहास: संशोधित दृष्टिकोण भाग 4

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वस्तुतः जैसे-जैसे मध्येशियाई क्षेत्र सहित भारतीय उपमहाद्वीप विश्व की सभ्यताओं से गहन रूप से संबंधित एवं उनकी उत्प्रेरणा का मूल स्रोत प्रमाणित होता जा रहा है, वैसे-वैसे पश्चिमी श्रेष्ठतावाद सभ्यताओं की जड़ को उसके मूल स्थान से भोगौलिक रूप से पश्चिमी यूरेशिया की ओर सरकाने का प्रयत्न कर रहे हैं और इस कार्य में पुराने ‘नाजीवाद’ और ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ की गंध आती है क्योंकि उन्होंने एक काल्पनिक ‘प्रोटो-इंडोयूरोपियन जाति’ को कैस्पियन सागर व काला सागर के दक्षिणी क्षेत्र से प्रादुर्भूत बताया है और उत्खनन में पाई गई, प्रागैतिहासिक जातियों में अन्तर्सम्बन्ध को उन्होंने काल्पनिक रूप से प्रतिपादित किया है जबकि उन स्रोतों की जानबूझकर अनदेखी कर दी गई जो सहस्त्राब्दियों से मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की जातीय स्मृति में उन घटनाओं को स्थानांतरित करते रहे जो आज वेद, अवेस्ता, ब्राह्मण व पुराणों के रूप में सुरक्षित रहीं।
निःसंदेह ही सहस्त्राब्दियों की समय यात्रा ने इतिहास की उन घटनाओं के चारों ओर अतिरंजनाओं की धूल चढ़ा दी है लेकिन अगर उन्हें हटा दिया जाए तो वह न केवल आर्कियोलॉजी से संबंधित होती हैं बल्कि उन खोई कड़ियों को जोड़ने की संभावना देती हैं जिनके आर्कियोलॉजीकल प्रमाण नहीं मिले हैं।
ऋग्वेद व पुराण और उनमें वर्णित विभिन्न घुमंतू जातियों तथा कई टोटम जातियों व उनके मूल क्षेत्रों को उत्खनन से प्राप्त विभिन्न संस्कृतियों से आसानी से अन्तर्सम्बन्धित किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए हम सभ्यताओं के प्रारंभ से चलते हैं।
-क्या यह मात्र एक संयोग है कि सुमेर सभ्यता का नाम ‘सुमेरु’ से प्रेरित है क्योंकि प्रवासी अपनी मूल भूमि को सदैव स्मरण रखते हैं। इसी प्रकार जिग्गुरातों में सर्वोच्च स्थल पर सर्वोच्च देवता अनु के स्थान के रूप में ‘सुमेरु’ पर्वत का ही प्रतीक क्यों नहीं माना जाए क्योंकि पुराणों के अनुसार सुमेरु पर्वत के सर्वोच्च स्थान पर भी सृष्टि रचयिता ब्रह्मा विराजते हैं।
क्या यह संयोग है कि सुमेर सभ्यता के प्रारंभिक शासक का नाम मेनोस था जो स्पष्टतः देव संस्कृति के ‘मनु’ गण के नेता के पदनाम का अपभ्रंश है।
हाँ, यह अवश्य कहा व माना जा सकता है कि सुमेर सभ्यता के सभी कबीले सुमेर के प्रवासी नहीं रहे होंगे और अधिसंख्य पूर्व के उबैद संस्कृति सहित अन्य लोग रहे होंगे लेकिन सभ्यता का विस्फोट सुमेरु के इन प्रवासियों का ही रहा
-क्या यह मात्र संयोग है कि सुमेर सभ्यता के जिस भूक्षेत्र में ‘असुर साम्राज्य’ व उनका सत्ताकेंद्र ‘अशूर’ विकसित हुआ जिसे पुराणों में ‘असुरलोक’ कहा गया।
क्या यह संयोग है कि असुर साम्राज्य के सर्वोच्च देवता का नाम ‘असुर’ था और ऋग्वेद में समुद्रों व ब्रह्मांडीय नियमों के अधिष्ठात्री देवता ‘वरुण देव’ को ‘असुर वरुण’ के रूप जो ‘अहुर माजदा’ के रूप में ‘जोराष्ट्रियनों’ में सर्वोच्च पूज्य बने।
-मेसोपोटामियाई क्षेत्र में तांबे को ढालने की खोज के साथ ताम्रयुग का विकास हुआ और यह कैसा संयोग मात्र है कि वराह पुराण में तांबे की खोज का श्रेय एक असुर को ही यह कहकर दिया गया है कि उसने विष्णु से प्रार्थना कर अपने शरीर को लोकहित में तांबे के रूप में परिवर्तित कर दिया।
क्या यह संयोग है कि अश्वपालन को प्रारंभ करने के लिए प्रसिद्ध बोटाई संस्कृति की नृजातियों का क्षेत्र वही है जिसे सभी पुराणों, महाकाव्यों, ऐतरेय ब्राह्मण आदि में ‘गन्धर्व क्षेत्र’ कहा गया है और यह क्षेत्र प्राचीन भारत में अश्वों के लिए काफी काल तक प्रसिद्ध रहा?
क्या यह संयोग मात्र है कि पुराणों में एक असुर अश्वमुख ‘हयग्रीव’ हो जाता है और विष्णु को उसको पराजित करने हेतु स्वयं भी एक अश्व का सिर लगाकर ‘हयग्रीव’ अवतार लेना पड़ता है। क्या यह कथा उस परिवर्तन की ओर इशारा नहीं करती जब मध्यएशिया के कज्जाखस्तान स्थित गंधर्व क्षेत्र के इन गंधर्वों में से किसी कबीले ने अश्वों को सैन्य उपकरण के रूप में उपयोग करना प्रारंभ कर दिया।
‘मध्य एशिया के इतिहास’ के गहन विद्वान राहुल सांकृत्यायन के अनुसार भारतीय ग्रंथों में ‘किन्नरों’ को अश्वमुख अर्थात ‘अश्व टोटम’ से संबंधित किया गया है जिनकी स्मृति आज भी हिमाचल प्रदेश में ‘किन्नौर’ के रूप में सुरक्षित है और वह भी गंधर्वों अर्थात बटोई संस्कृति के वारिस थे।
इस प्रकार सुदूर कजाकिस्तान से लेकर उत्तर भारत के मैदानों तक ऐतिहासिक संपर्क इन घुमंतू जातियों के माध्यम से सदा से ही रहा है।
हाल ही में सिनौली में हुए उत्खनन से प्राप्त 2000 से 2500 ईपू का ‘रथ शवाधान अवशेष’ का प्राचीन मध्येशियाई घुमंतू कबीलों में प्रचलित शवाधान प्रक्रिया से साम्य इसी गहन संपर्क की ओर इशारा करता है।
महाभारत में वर्णित कज्जाकस्तान स्थित ‘गंधर्वो’ के क्रमशः अफगानिस्तान की ओर सरकने का विवरण दर्ज है जो आर्कियोलॉजीकल क्षेत्र में ‘सिंतष्टा संस्कृति’ और फिर ‘बैक्ट्रिया-मार्जियाना संस्कृति’ के रूप में हो सकती है।
क्या यह संयोग है कि बोटाई संस्कृति के समांतर या कुछ समय बाद विकसित ‘अफानासिवो संस्कृति’ के बांधव माने जाने वाले ‘तोखरियन लोग’ 3700 ईपू में बैक्ट्रिया के जिस क्षेत्र में बसे उस क्षेत्र को संस्कृत साहित्य में सदा ही ‘तुषार भूमि’ कहा गया है और यह क्षेत्र प्रारंभ से ही संस्कृत व अन्य सांस्कृतिक कड़ियों द्वारा भारतीयों से जुड़ा रहा है और दुर्भाग्य से इस दिशा में सोचा तक नहीं जा रहा कि आखिर मध्यएशिया के प्रति प्राचीनकाल में भारतियों की इतनी रुचि क्यों थी और इतने गहन संपर्क के कारण क्या थे।
-क्या यह मात्र संयोग है कि जिस कालखंड में मध्यएशिया में इंडो-ईरानियनों के प्रसार की बात की जाती है, उससे पूर्व ही जलप्रलय से बचे वैवस्वत मनु के नेतृत्व में आर्यजन हिमालय से लेकर मध्य एशिया क्षेत्र में वापस लौटे। क्या यह सम्भव नहीं कि इन मनुगणों को ही एक समूह के रूप में ‘इंडो ईरानियन’ कहा गया हो।
सारी समस्या की जड़ सिर्फ दो बातों या कहें कि जिद के कारण है और वह है भारत में ‘आर्य आगमन’ तथा उसके लिए 1500 ईपू की तिथि का मनचाहा निर्धारण और पुराणों को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में खारिज करना।
इसे सिर्फ तीन सैद्धांतिक परिकल्पनाओं पर काम करने से ही सुलझाया जा सकता है–
1)सुमेरु अर्थात पामीर के उत्तरी क्षेत्र से लेकर दक्षिण में कैलाश तक का क्षेत्र ही ‘देव-आर्य संस्कृति’ का जन्मस्थल हो सकता है जिसे पश्चिमी नृतत्वविज्ञानी ‘इंडो-यूरोपियन’ कहते हैं। अर्थात मध्य एशिया व भारत को विश्व इतिहास के मुख्य प्रगतिशील कारक के रूप में स्वीकार करना जिनसे निकली नृजातीय व सांस्कृतिक लहरों ने विश्व इतिहास को सदा से ही प्रभावित किया। अतः पामीर क्षेत्र विशेषतः पामीर के दक्षिण में हिमालय तक आर्कियोलॉजीकल सर्वेक्षण व अनुसंधान की आवश्यकता है।
2)1500 ई. के आसपास महाभारत को आधारतिथि मानते हुए आर्य आगमन की 1500 ई.पू. तिथि को खारिज किया जाय। यह इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि तथाकथित प्रमुख तीन कारक अश्व, रथ व लोहा में से दो कारक रथ व लोहे की उपस्थिति तथाकथित आर्य आगमन की तिथि 1500 ईपू से प्राचीन प्रमाणित हो चुकी है। हाल ही में तमिलनाडु से 2200 ईपू प्राचीन और टैलंगाना से 2000 ईपू के लौहउपकरण प्राप्त हुए हैं।
3)दाशराज्ञ के महत्व व उसके समय को पुनर्निर्धारित किया जाए जिसके बाद के पश्चात ईरानियों की धारा का मूल स्टॉक से अलग-अलग संस्कृतियों व नृजातियों के रूप में विकास हुआ।
और वैसे भी आर्कियोलॉजीकल साइट्स और ‘प्रोटोइंडोयूरोपियन’, ‘प्रोटोइंडोईरानियन’ जैसे परिकल्पित शब्दों के अलावा कोई आधार क्या है?
सिर्फ अनुमान भर।
तो अगर अनुमान ही लगाने हैं तो पुराणों को आधार क्यों न बनाया जाए क्योंकि यह हिंदू पुराण व महाकाव्य हैं जो स्पष्ट कहते हैं कि सुमेरु का विस्तार उत्तर में पामीर से लेकर दक्षिण में हिमालय की तलहटी तक था, जहां से निकले देवों व असुरों ने संसार में सभ्यताओं को गति दी जिन्हें पश्चिमी इतिहासकार प्रोटो इंडोयूरोपियन्स कहते हैं। पश्चिम एशिया की सुमेर सभ्यता और असुर सभ्यताएं अतिप्राचीन काल के उसी सांस्कृतिक विस्तार का प्रतिनिधित्व करती हैं।
पुराणों के अनुसार जलप्रलय, जिसे भारतीय क्षेत्र में किसी प्राकृतिक आपदा के रूप में देखा जा सकता है, के बाद वैवस्वत मनु के नेतृत्व में हिमालय व पामीर के क्षेत्रों में लौटे जिन्हें पश्चिमी इतिहासकार ‘इंडो-ईरानियन’ कहते हैं
उदाहरण के लिए-
#यूनानी यूनानी आर्यों का सुमेरु अर्थात मध्यएशिया से पश्चिम की ओर अभिगमन 3000 ईपू अधिक उचित प्रतीत होता है क्योंकि यह समयकाल पूरे ही विश्व में उस भोगौलिक उथलपुथल से संबंधित है जिसे सुमेरियन अभिलेखों से लेकर हिंदू पुराणों में ‘जलप्रलय’ के रूप में वर्णित है और जिसके बाद नृजातियों का देशांतरगमन और सांस्कृतिक बदलाव दिखाई देते हैं। यूनानी आर्य भी उन प्रारंभिक प्रवासी जातियों में से एक रहे होंगे क्योंकि ईरानियों के विपरीत परवर्ती देवताओं वरुण व इंद्र की नहीं बल्कि प्राचीनतम देवता ‘द्यौस’ अर्थात ‘ज्यूस’ का प्रभुत्व दिखाई देता है। केवल यही नहीं सिकंदर के पूर्वी अभियान में हिंदुकुश पर ‘प्रोमीथियस के यातनास्थल’ की खोज और ‘औरोनॉस’ के निवासियों को प्राचीन यूनानी बांधवों के रूप में मान्यता देना भी इस संदर्भ में सशक्त प्रमाण हैं। वस्तुतः सिकंदर का आना यूनानियों द्वारा इतिहास का चक्कर लगाने जैसा था।
#शक:- यह भारतीय पुराण हैं जो दो शक कबीलों की उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट बताते हैं। प्रथम शक कबीलों की उत्पत्ति सुमेरु पर मनु वंशी ‘आग्नीध’ के पुत्रों के रूप में की जाती है जबकि शकों के दूसरे कबीले की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नारिष्यन्त के उन वंशजों के रूप में की जाती है जिन्हें सगर के नेतृत्व में इक्ष्वाकुओं ने उत्तर पश्चिम की ओर खदेड़ दिया था।
अगर हम आग्नीध के वंशज शक कबीलों को पश्चिमी यूरेशिया की ओर बसे पश्चिमी सीथियन और और नारिष्यन्त के वंशज शक कबीलों को पूर्वी सीथियन मान लें तो सारी पहेली स्पष्ट हो जाती है।
#मेंड जिनका भारतीय पुराणों में ‘मदासुर’ के रूप में उल्लेख है जब उन्हें किराये के योद्धाओं के रूप में भृगुओं ने इंद्र के विरुद्ध प्रयोग किया और उन्हें यज्ञाग्नि से उत्पन्न बताया। दृष्टव्य है कि प्राचीन फारसी में मेड जाति को ‘मद’ कहा गया है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भृगुओं को पश्चिमोत्तर के के ईरानी क्षेत्र से संबंधित माना गया है और उनका संघर्ष अश्विनीकुमारों के पक्ष में इंद्र से हुआ और यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि अश्विनीकुमार पक्थों अर्थात पख्तूनों के उपास्य देव थे। अतः स्पष्ट है कि भृगुओं ने पख्तूनों के साथ मिलकर पूर्वी-उत्तरी देव सभ्यता से संघर्ष किया और इस हेतु मेंड जाति से गठबंधन किया।
#पर्शियन यद्यपि यूनानी स्रोत उन्हें एक यूनानी मिथकीय अर्द्धदेव चरित्र ‘पर्सिस’ से जोड़ते हैं और इस नाम से एक प्रांत है भी लेकिन एक नवअसीरियन अभिलेख इन्हें ‘परसु’ के रूप में उल्लेखित करता है जो ऋग्वेद के सातवें मंडल के दाशराज्ञ युद्ध में वर्णित ‘पर्शु’ जाति से अधिक साम्य रखता है जो ‘पृथुओं’ के साथ विश्वामित्र के पक्ष में लड़ने आई कई अफगान व अन्य पश्चिमोत्तर जातियों जैसे पक्थ अर्थात पख्तून, भमान, शिव, विशानिन, ऐलीन के साथ उपस्थित थे। इस युद्ध में पराजित प्रसिद्ध पंचजनों के एक जाति ‘द्रुह्रु’ के राजा का नाम अंगार था। उसके बाद के द्रुह्रु राजा गंधार ने वायव्य दिशा में जाकर अपना राज्य स्थापित किया। गंधार के इसी राज्य को गांधार कहा जाने लगा जो आज ‘कंधार’ के रूप में वर्तमान में अफगानिस्तान में है।
इसलिये अधिक तो उचित प्रतीत होता है कि पर्सियन इन्हीं ‘पर्शु जनों’ के वंशज हैं जो दाशराज्ञ में पराजय के पश्चात ‘पृथुओं’ के साथ वर्तमान ईरान की ओर उत्प्रवसित हो गए और क्रमशः ‘पर्शियन’ व ‘पार्थियन’ जातियों के रूप में प्रसिद्ध हुए।
यह कोई संयोग नहीं कि हिन्दू स्रोतों में वे ‘पृथु-पार्शव’ युग्म के रूप में दिखाये गये हैं।
#पार्थियन भारतीय पुराणों में इन्हें ‘पह्लव’ भी कहा गया जो फारसी के उच्चारण ‘पहला’ के अनुरूप ही है। इनका उल्लेख सभी पुराणों में वसिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष में आता है जो भारत के प्रथम गृहयुद्ध प्रसिद्ध ‘दाशराज्ञ’ में पृथुओं के रूप में सम्मिलित हुये थे।
यूनानियों और पार्थियनों के संघर्ष के बीच मध्य एशिया में नई नृजातियों के निर्माण व उनके विस्थापन की ऐसी ‘बैटन रेस’ बन गयी जिसने अगले सात सौ साल तक पूरे दक्षिण व पश्चिमी एशिया को ही नहीं यूरोप तक को प्रभावित किया।
घटना का मूल उसी ऐतिहासिक घटनाक्रम से था जो मध्यएशिया के पौराणिक अतीत में बार-बार दोहराया गया।
इसमें पूर्वोत्तर एशिया से निकली नृजातीयों के यूरेशियन जीन से कम या अधिक सम्मिश्रण ने ऐसी जातियों ने जन्म लिया जिनकी एक के बाद एक लहरों ने पूरे इतिहास को हिला दिया।
यूइची, हूण व तुर्कों ने एक के बाद एक, इतिहास के रंगमंच पर आकर विश्व इतिहास को नये सिरे से लिखा।
#यूइची इस क्रम में मध्य एशिया की पहली नृजातीय लहर थी। माना जाता है कि वह इंडो-यूरोपियन लोग थे जो शुरू में तारिम द्रोणी के पूर्व के शुष्क घास के मैदानी स्तेपी इलाक़े के वासी थे, जो आधुनिक काल में चीन के शिंजियांग और गांसू प्रान्तों में पड़ता है।
#हूण अधिकतर विद्वान ज़िओनाग्नू व हूणों को संबंधित मानते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख जिओनाइट्स , किडाराइट्स और हेफथलाइट्स थे ।
अभी हाल की 2018-19 की आनुवंशिक खोजों से यह काफी हद तक सिद्ध हुआ है कि हूण पूर्व एशियाई और पश्चिम यूरेशियन मूल की मिश्रित थे।
इस मत के अनुसार हूण ज़ियोनग्नू के वंशज थे जिन्होंने पश्चिम की ओर विस्तार किया और शकों के साथ मिश्रित हुए ।
इख बायन की लड़ाई में चीनी सेना द्वारा 89 सीई में जिओनाग्नू की हार के बाद में जियोनाइट कथित तौर पर चार मुख्य समूहों में बंट गए:
‘काले’ या ‘उत्तरी हूण’ ( जैकार्ट्स से परे ),
‘नीले’ या ‘पूर्वी हूण’ (तियानशान में),
‘श्वेत’ या ‘पश्चिमी हूण’ (संभवतः हफ्थेलाइट्स ),
‘लाल’ या ‘दक्षिणी हूण’ ऑक्सस के दक्षिण में ( किडाराइट्स और एल्कोन )
पुरातत्व सामग्रियों के अनुसार जियोनाइट्स का टोटेम जानवर हिरण था। यहाँ ध्यान रहे कि पुराणों में वायव्य कोण के जिन उनञ्चास मरुद्गणों का विवरण है उनका वाहन भी ‘हिरण’ है और उन्हें ऋग्वेद में ईशानकोण के स्वामी रुद्र का पुत्र बताया गया है।
#तुर्क
मध्य एशिया से निःसृत अंतिम नृजाति जिनसे से अधिकांश द्वारा मध्यएशिया अबाद है वह थे-‘तुर्क’।
ऐसा माना जाता है कि लगभग 2,200 ईपू, तुर्क लोगों के कृषि पूर्वजों ने संभवतः पश्चिम की ओर मंगोलिया में प्रवास किया था , जहां उन्होंने पशुपालक जीवन शैली अपना ली।
उस क्षेत्र में जियोंग्नू, जियानबेई जैसी जातियों की उपस्थिति से संकेत मिलता है कि प्रारंभिक तुर्कों में पूर्वी एशियाई जीनों का भी मिश्रण हुआ होगा।
200 ईपू में ‘गेकुन’ और ‘शिनली’ जैसे सबसे पुराने अलग-अलग तुर्क कबीले चीनी हान राजवंश के समकालीन थे।
कालांतर में तुर्को ने हूणों को प्रतिस्थापित कर उसी ऐतिहासिक घटनाक्रम की पुनरावृत्ति की जिसे कभी हूणों ने जियोंग्नू के रूप में यूएजी पर आक्रमण करके शुरू किया था।
आगे जारी रहेगा…

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