Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 109
देवान्तक के मारे जाने से त्रिशिरा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने नील पर अपने पैने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। महोदर भी एक हाथी पर सवार होकर आ गया और उसने भी नील पर बाणों की विकट वर्षा कर दी। इन आक्रमणों से नील के सारे अंग क्षत-विक्षत हो गए और वह मूर्च्छित हो गया। कुछ समय बाद होश आने पर उसने एक बहुत बड़ी चट्टान उठाकर महोदर के सिर पर दे मारी। इससे महोदर और उसका हाथी, दोनों के ही प्राण निकल गए।
यह देखकर त्रिशिरा का क्रोध और बढ़ गया। अब उसने अपने बाणों को हनुमान जी की दिशा में मोड़ दिया। हनुमान जी ने कुपित होकर उस पर पर्वत की शिला से आक्रमण किया, किन्तु अपने तीखे सायकों से त्रिशिरा ने उस शिलाखण्ड के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
हनुमान जी ने जब देखा कि यह प्रहार व्यर्थ हो गया, तो उन्होंने अब त्रिशिरा पर वृक्षों की वर्षा आरम्भ कर दी। त्रिशिरा ने उन वृक्षों को भी अपने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया। अब क्रोधित होकर हनुमान जी एक छलांग में ही त्रिशिरा के पास जा पहुँचे और रोष में भरकर उन्होंने अपने नखों से ही उसके घोड़े को चीर डाला। इससे क्रोधित त्रिशिरा ने हनुमान जी पर शक्ति चला दी। लेकिन हनुमान जी ने उसे अपने शरीर में लगने से पहले ही पकड़ लिया और तोड़ डाला।
अब त्रिशिरा ने तलवार उठाई और हनुमान जी की छाती पर एक भरपूर वार कर दिया। उससे घायल होते हुए भी हनुमान जी ने त्रिशिरा की छाती पर एक तमाचा जड़ दिया। उनका वह थप्पड़ लगते ही त्रिशिरा अपनी चेतना खो बैठा। उसके हाथों से तलवार छूट गई और वह स्वयं भी पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब हनुमान जी ने ऐसी भयंकर गर्जना की, जिससे सब राक्षस भयभीत हो उठे।
निशाचर त्रिशिरा उस भीषण गर्जना को सह नहीं पाया और सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उठते ही उसने फिर एक मुक्का हनुमान जी को मारा। अब हनुमान जी का क्रोध अत्यधिक बढ़ गया। उन्होंने एक झटके में ही उसकी गरदन पकड़ ली और तलवार के एक ही वार से उसके तीनों सिरों को धड़ से अलग कर दिया। उसे मरा हुआ देखकर सारे राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे।
देवान्तक, नरान्तक, महोदर और अब त्रिशिरा के भी मारे जाने से महापार्श्व अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने लोहे की बनी हुई एक विशाल गदा उठा ली, जिस पर सोने का पतरा जड़ा हुआ था। वह लाल रंग के फूलों से सजाई गई थी। उसे हाथ में लेकर वह प्रलय के समान वानर-सेना पर टूट पड़ा।
तब ऋषभ उछलकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसे देखते ही महापार्श्व ने अपनी गदा से उसकी छाती पर एक भीषण प्रहार कर दिया। इससे ऋषभ काँप उठा। उसका सीना क्षत-विक्षत हो गया और खून की धारा बहने लगी।
कुछ देर बाद होश में आने पर क्रोधित ऋषभ ने वेगपूर्वक उस राक्षस की छाती पर अपने मुक्के से एक जोरदार प्रहार किया। इससे महापार्श्व सहसा भूमि पर गिर पड़ा और रक्त से नहा उठा। उसकी भयंकर गदा को उठाकर ऋषभ जोर-जोर से गर्जना करने लगा।
दो घड़ी तक महापार्श्व मृतप्राय पड़ा रहा। फिर होश में आने पर वह सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उसने एक और प्रहार से फिर एक बार ऋषभ को मूर्च्छित कर डाला।
इस प्रकार बहुत देर तक उन दोनों का युद्ध चलता रहा। अंततः ऋषभ ने महापार्श्व की ही गदा से उस पर एक जोरदार प्रहार किया। उसके प्रहार से महापार्श्व के दाँत टूट गए, आँखें फूट गई और एक ही क्षण में वह धराशायी हो गया। यह देखकर सब राक्षस घबराकर युद्ध-स्थल से भागने लगे।
जब अतिकाय ने देखा कि सब प्रमुख राक्षस मारे गए हैं, तो अब वह अपने धनुष को टंकार देता हुआ आगे बढ़ा। बड़े जोर से गर्जना करके उसने अपना नाम सुनाया और अपने धनुष की टंकार से वानरों को भयभीत करने लगा। उसके विशाल शरीर को देखकर वानरों को कुम्भकर्ण याद आ गया और वे भय से पीड़ित होकर श्रीराम की शरण में भागे।
श्रीराम ने भी विशाल शरीर वाले अतिकाय को देखा और विस्मित होकर विभीषण से पूछा, “विभीषण! हजार घोड़ों से जुते हुए विशाल रथ पर बैठा हुआ वह पर्वताकार निशाचर कौन है? उसके रथ को चार सारथी नियंत्रित कर रहे हैं, रथ में बीस तरकस, दस भयंकर धनुष और आठ सुनहरी प्रत्यञ्चाएँ रखी हुई हैं। दोनों ओर दस-दस हाथ लंबाई वाली चमकीली तलवारे हैं। इस राक्षस का परिचय दो।”
तब विभीषण ने उत्तर दिया, “भगवन्! यह रावण की दूसरी पत्नी धान्यमालिनी का पुत्र अतिकाय है। यह बड़ा पराक्रमी है और बल में रावण के ही समान है। यह समस्त वेद-शास्त्रों का ज्ञाता, समस्त अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ, हाथी-घोड़े की सवारी करने, तलवार, धनुष-बाण आदि का उपयोग करने तथा उचित मन्त्रणा देने में भी निपुण है। अतिकाय ने दीर्घकाल तक ब्रह्माजी की आराधना करके अनेक दिव्यास्त्र प्राप्त किए हैं। ये दिव्य कवच एवं सूर्य जैसा तेजस्वी रथ भी उन्होंने ही इसे दिया था। इसे देवताओं और असुरों से न मारे जाने का वरदान भी ब्रह्माजी से मिला है। इसने देवताओं और दानवों को सैकड़ों बार पराजित किया है और यक्षों को भी मार भगाया है। इससे पहले कि यह वानर-सेना का संहार कर डाले, आप ही इसे परास्त करने का प्रयत्न कीजिए।”
उन दोनों में यह बातें चल ही रही थीं कि तब तक अतिकाय वानर-सेना में घुस गया। उसे देखकर कुमुद, द्विविद, मैन्द, नील और शरभ आदि मुख्य वानर बड़े-बड़े वृक्ष एवं पर्वतों की शिलाएँ उठाकर उस पर टूट पड़े, परन्तु अतिकाय ने उन सबको अपने बाणों से काट डाला। उन समस्त वानरों को भी उसने लोहे के बाणों से बींध डाला। इस बाण-वर्षा से उन सबके शरीर क्षत-विक्षत हो गए और उन्होंने हार मान ली।
उन्हें परास्त करके अतिकाय आगे बढ़ा और श्रीराम के पास जा पहुँचा। बड़े गर्व से उसने कहा, “मैं धनुष-बाण लेकर रथ पर बैठा हूँ, किन्तु किसी साधारण प्राणी से युद्ध करने का मेरा कोई विचार नहीं है। जिसमें शक्ति, साहस व उत्साह हो, वह आगे आकर मुझसे युद्ध करे।”
उसकी अहंकारपूर्ण बातें सुनकर लक्ष्मण को बड़ा क्रोध आया। वे उछलकर आगे बढ़े और अपने तरकस से बाण खींचकर अतिकाय के सामने अपने विशाल धनुष को खींचने लगे। उनके धनुष की भयंकर टंकार सुनकर अतिकाय को बड़ा विस्मय हुआ। उसने क्रोध में भरकर लक्ष्मण से कहा, “तुम अभी बालक हो। मुझसे जूझने की इच्छा मत करो। मैं तुम्हारे लिए काल के समान हो। मेरे बाणों के वेग को पृथ्वी, आकाश और हिमालय भी नहीं सह सकते। तुम अपना धनुष छोड़कर वापस लौट जाओ। मुझसे भिड़कर अपनी मृत्यु को न बुलाओ।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने क्रोध से कहा, “राक्षस! तू केवल बातों से बड़ा नहीं हो सकता। मैं धनुष-बाण लेकर तेरे सामने खड़ा हूँ। यदि तू वीर है, तो अब अपना पराक्रम दिखा।”
यह ललकार सुनकर अतिकाय ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया और उसे लक्ष्मण पर छोड़ दिया। लक्ष्मण ने एक अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा उसके तीखे बाण को काट डाला। अब क्रोधित होकर अतिकाय ने पाँच बाण एक साथ चला दिए। लक्ष्मण ने भी अपने तीखे सायकों से उन सबके टुकड़े कर डाले। फिर लक्ष्मण ने एक तेजस्वी बाण अपने हाथों में लिया और बड़े वेग से वह सायक उन्होंने अतिकाय पर छोड़ दिया। वह बाण सीधा जाकर अतिकाय के ललाट में धँस गया और वहाँ से खून का फव्वारा फूटने लगा।
अब अतिकाय ने क्रमशः एक, तीन, पाँच और सात बाण एक साथ छोड़े। लक्ष्मण ने उन सबको काट डाला। इससे क्रोधित होकर अतिकाय ने अब एक महातेजस्वी बाण लक्ष्मण की ओर छोड़ा, जिसने सीधे जाकर लक्ष्मण की छाती पर आघात किया। वीर लक्ष्मण ने तुरंत ही वह बाण अपनी छाती से निकाल फेंका और एक सायक हाथ में लेकर उसे आग्नेयास्त्र से अभिमन्त्रित किया। अभिमन्त्रित होते ही वह बाण तत्काल प्रज्वलित हो उठा। उस भयंकर बाण को अपनी ओर आता देख अतिकाय ने भी सूर्यास्त्र को अभिमन्त्रित करके एक बाण चला दिया। दोनों के ही बाण आकाश में एक-दूसरे से टकराकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
अब कुपित होकर अतिकाय ने सींक का एक बाण अभिमन्त्रित करके लक्ष्मण पर चलाया। उसे भी लक्ष्मण ने ऐन्द्रास्त्र से काट डाला। फिर उस निशाचर ने याम्यास्त्र से अभिमन्त्रित बाण छोड़ा, तो उसे लक्ष्मण ने वायव्यास्त्र से नष्ट कर दिया। इसके बाद लक्ष्मण ने अतिकाय पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। परन्तु उसका कवच अभेद्य था, इसलिए कोई भी बाण उसे क्षति नहीं पहुँचा सका। उसके कवच से टकराकर सारे बाण टूटकर गिर जाते थे।
लक्ष्मण ने अनेक भयंकर बाण छोड़े, पर उस निशाचर का बाल भी बाँका नहीं हुआ। तब वायुदेवता ने पास आकर लक्ष्मण से कहा, “ब्रह्माजी के वरदान के कारण यह राक्षस अभेद्य कवच से ढका हुआ है। इसको ब्रह्मास्त्र से विदीर्ण कर डालो, अन्यथा यह राक्षस नहीं मरेगा।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने सहसा एक भयंकर बाण को अभिमन्त्रित करके धनुष पर रखा और अतिकाय को लक्ष्य बनाकर उन्होंने वह बाण चला दिया। अतिकाय ने अपने पैने बाणों से उसे नष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु वह वेगशाली बाण निर्बाध आगे बढ़ता रहा। उसे अपने बहुत निकट देखकर अतिकाय ने शक्ति, ऋष्टि, गदा, कुठार, शूल आदि से भी उसे नष्ट करने का विफल प्रयास किया। अंततः उस तेजस्वी बाण ने अतिकाय के सब अस्त्रों को विफल करके उसके सिर को धड़ से अलग कर डाला।
अतिकाय की यह दुर्दशा देखकर बचे-खुचे सारे राक्षस भय से काँपने लगे और अगले ही क्षण युद्धभूमि को छोड़कर लंका की ओर भाग गए।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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