Home नया कालक्रम मे कबीरदास सूरदास

कालक्रम के लिहाज से देखें तो कबीरदास के तुरंत बाद ही सूरदास आते हैं। रामानंद से दोनों प्रभावित। धारा भी दोनों की एक – भक्ति। भक्ति के मूल भाव के लिहाज से देखें तो दोनों अधिकतर कक्कन जोहे चलते हैं। बहुत मजबूती से एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए। संसार की निस्सारता को दोनों बहुत गहराई से समझते हैं, महसूस करते हैं और इससे ऊबकर आश्रय एक ही लेते हैं।
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कहने का ढंग अलग-अलग भले हो, पर मूल बात एक ही है। चाहे कबीर कह रहे हों –
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाउ….
और चाहे सूर कह रहे हों –
अँखियाँ हरि दरसन को प्यासी…
बात एक ही है। भाव एक ही है। पूर्ण समर्पण। बिना शर्त।
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लेकिन, यही सूर और कबीर कई बार आमने सामने खड़े नजर आते हैं।
काल के सामीप्य और अंतर दोनों के बावजूद।
एक समय कबीर का था, जब चारो ओर निर्गुण का बोलबाला था। कबीर के खुद राम के परम भक्त होने के बावजूद कबीर ही प्रश्न उठाते हैं –
पाहन पूजे हरि मिलें…
अब कबीर किस संदर्भ में और क्यों ऐसा कहते हैं, यह जानने की जरूरत न तो आजकल के कुलपूजक प्रतिरोधी विद्वानों को महसूस होती है, न तब के इस श्रेणी वाले विद्वानों को थी। तो इस कटेगरी वालों ने बड़ा वितंडा खड़ा किया, कबीर के सिर चढ़कर। शायद ऐसे ही वितंडावादियों को जवाब देने की जरूरत महसूस हुई और फिर सूर लट्ठ लेकर खड़े हुए, सगुण के पक्ष में।
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ये जो भ्रमरगीत हैं, ये वास्तव में सूरदास जी का लट्ठ है तथाकथित निर्गुणी वितंडावादियों के सिर पर। गौर करें –
निरगुन कौन देश कौ बासी।
मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।
कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥
पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥
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