अच्छा, ये समीक्षा का चक्कर भी संघियों ने अपने बेतेनॉयर (BeteNoire) कम्युनिस्टों से ही सीखा है. कम्युनिस्टों के यहां महान बहस की परंपरा रही है, क्योंकि उनके यहां गुरु भी गुरु कम और गुरुघंटाल अधिक हुए हैं. जेएनयू में पढ़ाई के दौरान एक चुटकुला चलता था कि आइसा, एसएफआई (कम्युनिस्ट पार्टियों की छात्र शाखा) वाले तो तीन दिनों तक इस बात पर भी बहस कर सकते हैं कि सिगरेट में कैप्सट्न अच्छा होता है या विल्स? या फिर, एक बहुचर्चित घटना भी है कि जेएनयू में चोर पकड़ा गया तो भाई लोगों ने उसे पकड़ कर जीबीएम (जेनरल बॉडी मीटिंग) बैठा ली और आखिरकार फैसला यही हुआ कि उसे खिला-पिलाकर कुछ पैसे देकर छोड़ दिया जाए, क्योंकि उसका कृत्य बुर्जुआ समाज की उपज है.
गुरु जो चेला बनने को तैयार नहीं
आदित्यनाथ के साथ समस्या ये है कि वह बहुत कम उमर में गुरु बन गए. उनके ऊपर के लोगों को भी ये बात पता है. योगी जिस पंथ के गुरु हैं, यानी नाथपंथियों के…वो अपने गुरु की बात बहुत मानते हैं. इसलिए, योगी भाजपा और संघ से इतर की शक्ति हैं. वो साथ आ सकते हैं, लेकिन वे आपके नहीं हैं. यह बात सबको पता है. आखिर, यही योगी भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार उतार चुके हैं, अपनी समानांतर हिंदू वाहिनी बना चुके हैं. संघ का चेलों की ‘शुद्धि’ पर बहुत जोर है. यहां तक कि दीनदयाल उपाध्याय के समय भी ‘बाहरी’ और ‘भीतरी’ का खेल हुआ था. संघ का असली चेला वही, जो भीतरी हो..माने प्रचारक की व्यवस्था से गया हो.
गुरु और चेला हमेशा सम पर नहीं
ये तो खैर संघ की अंदरूनी गुरु-चेले की बात है. अभी लेकिन दाढ़ का दर्द तो एक ऐसा व्यक्ति बना है, जो चेला भी नहीं है, संघ के एजेंडे (हिंदूराष्ट्र) के लिए सबसे प्रतिबद्ध भी दिखता है और सबसे योग्य भी लगता है, देश के सबसे बड़े सूबे का मुखिया भी है. समस्या ये है कि सफलता का गुरु बनने के लिए तो मार हो जाती है, असफलता के आसपास भी कोई गुरु नहीं फटकना चाहता. इसलिए, 2017,1019, 2022 में जीतने पर कभी समीक्षा नहीं हुई, 2024 में सीटें कम क्या आयीं, पिछले एक महीने से समीक्षा भी बहुत हो रही है.
अब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद ध्वज-प्रणाम करने कहीं जाते हैं या नहीं, यह तो नहीं पता, लोक कल्याण मार्ग वाले घर में भी शाखा लगती है या नहीं, यह भी पता नहीं. वैसे भी, पीएम अकेले ही हैं तो शाखा भला उनके घर पर अगर लगेगी तो नौकर-चाकरों को ही कसरत-व्यायाम करना होगा, लाठी चलानी होगी. अभी का तो सीन ये चल रहा है कि भागवत और मोदी में लांग-डिस्टेंस रिलेशनशिप चल रही है. दिल्ली में रहते हुए भी, दोनों एक-दूसरे का हालचाल अखबारों और टीवी चैनल्स की सुर्खियों से जान रहे हैं. कभी नड्डा कह दे रहे हैं कि हमलोगों को अब गुरु की जरूरत नहीं, तो कभी भागवत को याद आ जा रहा है कि उनके चेलों को हमेशा अधिक के लिए, और बड़े के लिए प्रयास करना चाहिए. भूलना नहीं चाहिए कि भागवत ही थे, जो कभी आरक्षण पर ऐन चुनाव के बीच में पुनर्विचार की जरूरत बता कर बिहार में भाजपा की खाट खड़ी कर गए थे.