साठ के दसक में भारत भुखमरी की कगार पर था. हालत ऐसे थे कि बड़े बड़े वैश्विक इकानमिस्ट भविष्य वाणी कर रहे थे कि भारत की एक तिहाई जनसंख्या 1970 तक भूख से मर जाएगी. चिचा लहरू तो खैर विश्व के नेता बन रहे थे, इधर भारत में खाने को नहीं था.
स्थिति इतनी ख़राब हो गई थी कि अगले प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भाषण दिया था कि गमले में गेहूं उगाया जाए. उन्होंने जय जवान जय किसान का नारा दिया. अपील की कि लोग केवल एक वक्त का खाना खाएँ. यहाँ तक कि लुटायन में जो बड़े बड़े बंगले थे उनकी लॉन में गेहूं बोया जाने लगा. आज जिस बंगले में अमित शाह जी रहते हैं, 1965 में उस जगह गेहूं बोया जाने लगा था, इतनी भीषण त्रासदी थी.
भारत की मानवीय त्रासदी इतनी व्यापक थी कि यद्यपि भारत उस वक्त कोल्ड वार में रूस का सहयोगी और अमेरिका के ख़िलाफ़ था, पर दिख रहा था कि भारत भूख से मरने वाला है तो दुश्मन देश अमेरिका रोज़ चार जहाज़ खाद्यान्न भेजता था और लम्बी लाईन लगती थी गेहूं के लिए भारत में. अमेरिका ने आउट ओफ़ वे जाकर गेहूं के नए सीड भारत भेजे. पंजाब में उन बीजों से खेती आरम्भ हुई और फसल ईल्ड अब कई गुना होने लग गई. कम से कम यह हुआ कि जैसी कल्पना की जा रही थी कि भारतीय भूख से मर जाएँगे, वैसा विकराल समय टल गया.
एक वह भारत था, एक आज का भारत है. आज भारत गेहूं का विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. भारत ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया तो दुनिया के ढेरों छोटे देश भारत से मदद की गुहार कर रहे हैं.
निहसंदेह अभी भी भारत को मीलों चलना है, अभी भी भारत विश्व के गेहूं निर्यातक देशों में सुमार नहीं होता, वहाँ अभी भी रूस, अमेरिका, फ़्रांस जैसे देश ही हैं, पर विश्व के सबसे भूखे देश के ख़िताब से उठ कर पचास सालों में पूरी तरह से बेसिक खाद्यान्न में आत्म निर्भर बन जाना, इस लायक़ बन जाना कि दूसरे छोटे देश मदद की अपेक्षा करें, अपने आप में एक अचीवमेंट है.