जब 2002 में हिंदू अतिवादियों ने मुसलमानों का गुजरात में नरसंहार किया था- केवल इस कसूर पर कि 58 कारसेवक जिंदा जला दिए गए थे, ट्रेन में। हालांकि, बाद में सामाजिक न्याय के अलंबरदार श्री लालू प्रसाद यादव जी ने यह तकरीबन सिद्ध कर ही दिया था कि उन 58 अभागों ने अंदर से बोगी बंद कर खुदकुशी कर ली थी और यह सब आरएसएस की साजिश थी।
तब से ही मेरा मन आरएसएस की मंशा और कार्यपद्धति से ऊब चुका था। फिर, मार्क्स, फुले, पेरियार की शरण में जाकर मुझे आर्य-द्रविड़ विभाजन समझ आया, राममोहन राय को देख यीशु की पवित्र आत्मा का साक्षात हुआ और मदर टेरेसा से होते हुए केजरीवाल जी तक मुझे ईसाइयत की दिव्यता का अहसास हुआ।
अस्तु, बात भटक गई। तीस्ता जी ने जिस मजबूती से 2002 के पॉगरॉम का मुकदमा लड़ा, जिस तेजी से हमारे भाई अजगर वजाहत जी ने ‘शाहआलम कैंप की रूहें’ कहानी लिखीं, जिस तेजी से हमारे प्रगतिशील-इस्लामिक-गांधीवादी-सामाजिक न्यायवादी-अंबेडकर-फुले-बुद्ध अनुगामी गठबंधन के लोगों ने अभी के पीएम और एचएम के खिलाफ मोर्चा लिया, वह सब याद है।
इस बीच तीस्ता आपा ने दसियों लाख के जेवरात खरीदे या थोड़ी शराबनोशी कर ली, तो उसका मुद्दा बना दिया। एक बार तो फासीवादियों ने पहले भी इनको फंसाने की कोशिश की थी, लेकिन भला हो कपिल सिब्बल जी का….बीच कोर्ट में इनको स्टे दिलवाया था।
दुख है कि इस बार सुप्रीम कोर्ट भी फासीवादियों के मंसूबे न पहचान सकी। जो भी है, जैसा भी है, यह कोर्ट के निर्णय पर टिप्पणी नहीं है, क्योंकि मैं अजीत भारती जैसा फासीवादी नहीं, पर आपा के लिए दुख तो है, जावेद भाई के लिए दुख तो है।