हमें ऐसा क्यों लगता है कि खाद्य पदार्थ करमुक्त होने चाहिए ? क्या इनपर कर लेना (एक छोटा सा प्रतिशत ) वह भी केवल पैकेज्ड किराना पर, अन्याय है ? क्या शासन इस कर से प्राप्त राजस्व का ‘भ्रष्ट’ उपयोग करेगा ? क्या सुरक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर और अनुसंधान शासन की जिम्मेवारी नहीं है ? क्या इसके लिए पर्याप्त राजस्व संग्रह करना उसके लिए सरलीकृत व्यवस्था बनाने का शासन को अधिकार नहीं ?
क्या पचास रुपये की दूध की थैली पर ढाई रुपये ‘कर’ अनाप-शनाप और अन्यायपूर्ण है तब जब ग्राहक को इकॉनमी के लिए करमुक्त, खुले दूध का भी विकल्प है जो तुलनात्मक रूप से वैसे ही सस्ता है ।
हमारी इस मनोवृत्ति को हम क्या कहेंगे कि हमें सस्ता तो चाहिए पर उसका भार शासन वहन करे क्योंकि बिना पैकिंग के खुला दूध लोटे या तपेली में लेने से हम ‘सबस्टैंडर्ड’ हो जाएंगे । तपेली हैंडल करना हमें पहाड़ खोदना लगेगा, हम पहाड़ खोदने से बचना भी चाहेंगे तथा उसकी कीमत भी नहीं चुकाएंगे । क्या आटे पर कर से बचने के लिए चक्की से खुला आटा लेने या गेहूँ खरीदकर खुद पिसवाने से हमें किसी ने रोका है ।
मुफ्त की सुविधाएं, सबसिडी तथा करमुक्त वस्तुएँ अंततः एक गरीब सरकार की कीमत पर ही मिल सकती है और गरीबी किसी बीमारी का साइड इफेक्ट नहीं, अपने आप में ही सम्पूर्ण बीमारी है ।
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