#पितृपक्ष

देवेन्द्र सिकरवार

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नशे में धुत युवक जा रहा था कि बगल में एक वृक्ष के नीचे चलती कथा का अंश उसके कानों में पड़ा।
उसकी चेतना में कुछ गया, कुछ नहीं।
“अभागे हैं वे युवक जिन्हें माता पिता के….सारे देव बसते हैं उनके शरीर में….ईश्वर भी….”
जाने किस जन्म के पुण्यों से उसकी चेतना में वह वाक्य उतर गए।
वृद्ध माता-पिता की सेवा में वह संसार भूल गया।
अखिल सृष्टिसंचालक मुग्ध हो उठे।
“पुंडलीक! हम तुम्हारी मातृ-पितृभक्ति से प्रसन्न हैं। जो चाहे वर मांग लो।” द्वारिकाधीश पटरानी सहित स्वयं आ पधारे थे।
“कृपया कुछ समय इंतजार करें। पिताजी गहरी नींद में हैं, अभी नहीं आ सकता।” पिता की चरणसेवा करते हुए, पीछे मुड़े बिना उसने उत्तर दिया।
पीछे दो ईंटें आसन के लिए फैंक दीं।
इंतजार करते-करते माधव थक गए और कमर पर हाथ धरकर खड़े होकर इंतजार करने लगे।
“अच्छे लग रहे हैं आप। यदि वर देना ही चाहते हैं तो ऐसे ही खड़े रहें।” युवक हंसा था।
“एवमस्तु।”
कृष्ण और रुक्मिणी आज भी खड़े हैं उस पितृभक्त पुंडलीक के वचन के सम्मान में और कहलाते हैं पंढरपुर के विट्ठल।
यह है हिंदुत्व जो माता-पिता को ईश्वर से भी ऊपर स्थान देता है।
अपने ही नहीं सभी के माता-पिता।

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