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संयुक्त राष्ट्र महासभा और राष्ट्रपति गब्रिएल बोरिच

Ajit Singh - "रामदास "

by Ajit Singh
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मेरा मानना है कि इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र महासभा की वार्षिक जनरल डिबेट में सबसे सारगर्भित संबोधन चिले के 36 वर्षीय राष्ट्रपति गब्रिएल बोरिच का था। राष्ट्रपति चुने जाने के पूर्व बोरिच वर्ष 2011-12 में चिले विश्वविद्यालय छात्र संगठन के अध्यक्ष थे। इसके पूर्व वह विधि विद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे।

अक्टूबर 2019 में तत्कालीन सरकार ने चिले की राजधानी के पब्लिक ट्रांसपोर्ट का भाड़ा बढ़ा दिया था। इस वृद्धि के विरोध में एक विशाल जन आंदोलन भड़क उठा जो पूरे राष्ट्र में फ़ैल गया। इससे निपटने के लिए सरकार ने इमरजेंसी लगा दी। बोरिच इस जन आंदोलन के एक प्रमुख नेता थे जिन्होंने संसद में प्रतिनिधित्व प्राप्त राजनीतिक दलों के अध्यक्ष के साथ एक समझौता करके इस जन आंदोलन को शांत करवाया।

बोरिच एक कट्टर वामपंथी है। उन्होंने फ्री एजुकेशन, स्टूडेंट लोन को माफ़ करना, फ्री स्वास्थ्य सेवा, प्रमुख खनिज एवं खानो को सरकारी नियंत्रण में लाना, निजी क्षेत्र के रोल को कम करना, पुरानी पेंशन इत्यादि के प्लेटफार्म पर चुनाव लड़ा। दिसंबर 2021 के चुनावो में बोरिच भारी मतों से जीतकर चिले के राष्ट्रपति बन गए।

लेकिन नौ माह में ही चिले में समस्याएं बढ़ गयी। मंहगाई एवं बेरोजगारी बढ़ गयी; जीडीपी सिकुड़ रही है। जन आक्रोश बढ़ रहा है। वह भी तब, जब चिले की अर्थव्यवस्था में खनिज दोहन का भारी योगदान है। जनता ने उनके द्वारा प्रस्तावित नए संविधान को एक रेफेरेंडम में भारी मतों से रिजेक्ट कर दिया।

अतः मैं उत्सुक था कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने प्रथम संबोधन में बोरिच क्या कहेंगे?
बोरिच ने निराश नहीं किया।

बोरिच ने कहा कि एक युवा व्यक्ति के रूप में, जो पहले सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रहा था, मैं आपको बता सकता हूं कि अशांति का प्रतिनिधित्व करना समाधान प्रदान करने की तुलना में बहुत आसान है। (“As a young person who was on the street protesting not very long ago, I can tell you that representing unrest is a lot easier than producing solutions.”)

उन्होंने आगे कहा कि हममें से जो राजनीति के दुष्कर कार्य के लिए स्वयं को समर्पित करते हैं, वे जन असंतोष के प्रवक्ता के रूप में मिलने वाली सफलताओं के कारण समझते लगते है कि उनके पास बेहतर भविष्य के निर्माता बनने की वास्तविक क्षमता है जो कि एक भ्रम हैं। (… easily confuse our successes as spokespersons for citizen annoyance with our real capacity to be builders of better future.)

बोरिच कहते है कि रेफेरेंडम के परिणाम ने हमें और अधिक विनम्र होना सिखाया है। मैं अब यह मानता हूँ कि जिस राष्ट्र का हम सपना देखते हैं वह किसी विशेष रेसिपी बुक (पाकशास्त्र) में नहीं है, बल्कि उस व्यंजन में है जिसे हम सभी के सर्वश्रेठ योगदान से बना सकते हैं। मैं आपको पूरी विनम्रता के साथ बताता हूं: जब जनता बोलती हैं, तो सरकार कभी हार नहीं मान सकती। लोकतंत्र में, लोकप्रिय शब्द संप्रभु है और सभी सरकारों के लिए मार्गदर्शक है।

अब आप भारत के सन्दर्भ में देखिए। केजरीवाल, योगेंद्र यादव, लालू पुत्र, भूपेश बघेल, राहुल, पवार, ममता इत्यादि केवल जन असंतोष के प्रवक्ता बन सकते है। जब स्वयं सरकार चलाने की जिम्मेवारी मिली, तब केवल अराजकता, सांप्रदायिक हिंसा, सरकारी आय से कहीं अधिक व्यय, घोटाला, कुप्रबंध देखने को मिलता है। बात पेट्रोल-डीजल की मंहगाई की करेंगे, लेकिन स्वयं अपने राज्य में टैक्स कम नहीं करेंगे। सरकारी नौकरी को लेकर जन आंदोलन चलाएंगे, लेकि स्वयं अपने राज्यों में नौकरी नहीं दे पा रहे है। यहाँ तक कि अपनी पार्टी नहीं संभाल सकते है।

दूसरी ओर “कट्टर” मोदी समर्थक है जिन्हे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी तुष्टिकरण कर रहे है; अराजक-सांप्रदायिक तत्वों को तुरंत कंट्रोल नहीं कर रहे है; बंगाल में अनुच्छेद 356 नहीं लगा रहे है; सब का साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास की बात कर रहे है।
ऐसे सभी “कट्टर” समर्थको के लिए मेरा एक ही उत्तर है: “अशांति का प्रतिनिधित्व करना समाधान प्रदान करने की तुलना में बहुत आसान है”

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