मथुरा पर पहला इस्लामिक हमला वर्ष १०१७ में हुआ था महमूद गज़नी के नौवे हमले में। मथुरा में उस समय राजा कुलचंद का राज्य था। पराजित होने पर राजा ने अपनी पत्नी और बेटे को खुद ख़त्म किया और फिर यमुना जी में जल समाधी ले ली। पचास हज़ार से ऊपर सनातनी सैनिक काम आये। महमूद जब मथुरा में घुसा तो उसकी आंखे फटी रह गयी – महमूद के अनुसार ये शहर इंसानो ने नहीं जिन्नो ने बनाया होगा। पत्थर का अद्भुत कार्य पूर्ण नगर में व्याप्त था – हर घर में मंदिर और सब घर आलिशान बने हुए। शहर के बीचो बीच एक विशाल अद्भुत मंदिर था जिसे ना किसी कलाकृति में उकेरा जा सकता था और ना लिख कर।
महमूद के अनुसार – यदि कोई ऐसा इबादतगाह यदि बनाना चाहे तो लाखो दीनार का खर्चा आएगा और दो सौ वर्षो में भी ऐसा नहीं बन पायेगा। महमूद ने इस मंदिर समेत सब मंदिर ध्वस्त करवाए , जलवाये। बीस दिनों तक शहर जलता रहा। बेशुमार दौलत लूटी गयी – पांच विशाल स्वर्ण मूर्तिया जिनकी आंखे रूबी से जड़ी हुई थी , चांदी का जो काम मंदिर की दीवारों पर किया गया था -सब नोंच ली गयी । अनगिनत ऊँटो पर लाद कर ये सम्पदा महमूद ले गया । गुलाम स्त्री और बच्चो की कोई संख्या ना थी। कई मंदिर इतने विध्वंस के बाद भी नष्ट नहीं हो पाए थे – क्यूंकि उनको इस प्रकार बनाया गया था । महमूद ने मथुरा की तर्ज पर गज़नी में मस्जिद बनवाने की कोशिश की – लेकिन सफल नहीं हो पाया।
ये वृतांत फरिस्ता और कुछ और मध्य कालीन मोमिन इतिहासकारो ने लिखा है। अगले पांच सौ वर्षो में मथुरा की सम्पदा फिर वापस लौटी और ये मंदिर फिर उठ खड़े हुए। पन्द्रवीं सदी के अंत में सिकंदर लोदी ने फिर मथुरा को लूटा और विध्वंस किया। लोदी ने एक एक मूर्ति को तोड़ कर यहाँ बसाये गए कसाईयो को दे दी जिन्हे उन्होंने वज़न मापने वाले बाट की तरह प्रयोग में लिया । मथुरा में रहने वाले सनातनी को दाढ़ी काटने और सर मुड़वाने पर पाबन्दी थी – शहर में नाउ का रहना वर्जित था । इस शहर में अतिक्रमण इस कदर हुआ था कि मुग़ल काल में १६६१ में जब मुगलिया सूबेदार अब्द उन नबी ने बड़ी मस्जिद बनवाने का फैसला किया तो मुख्य मंदिर को तोड़ जो जमीन कसाईयो को दी गयी – वही ज़मीन उन्ही कसाईयो से मुग़ल सल्तनत ने वापस खरीदी। अकबरी काल में जब मंदिर फिर बनाने की चेष्टा की गयी तो शहर के सदर ने अलग कहर बरपाया।
केशव देव मंदिर का निर्माण जहांगीर काल में बुंदेला राजा बीर सिंह देव ने करवाया था जिसे औरंगजेब काल में फिर तोडा गया। रंगीला और नादिर शाह काण्ड के बाद अब्दाली ने ब्रज भूमि पर अलग कहर ढाया।
ये थी ये छोटी सी समरी – १७५७ से पहले की। जारी रहेगी ब्रज गाथा।
चूँकि खुद ब्रज भाषी हूँ तो ये सब पढ़ना बहुत मार्मिक था – लिखना और पीड़ादायक है। काश स्कूल में ही इतिहास में थोड़ा बहुत ही पढ़ा दिया गया होता !
ब्रज इतिहास आगे भी जारी है ….