Home राजनीति The Great Game
2014 में जिस ग्रेट गेम में भारत एक मोहरा भर था, तीन साल के अंदर-अंदर एक खिलाड़ी के रूप में उभरकर आया।
हेनरी किसिंजर, जो अनौपचारिक रूप से आज भी अमेरिकी थिंक टैंक के शीर्ष सदस्य माने जाते हैं, से मोदी की मुलाकात में भारत के हितों व स्थान को स्वीकृत किया गया था।
सब कुछ सही चल रहा था कि चार घटनाएं ऐसी हुईं जिसने इस ग्रेट गेम की गति व दिशा को प्रभावित किया।
1)कोरोना, जिसने सरकारों का ध्यान व संसाधन अपने गृहक्षेत्रों की ओर लगाने पर विवश होना पड़ा हालांकि इसमें भारत इक्कीस होकर निकला और चीन बैक फुट पर।
2)अमेरिकी चुनाव में बिडेन का चुना जाना जिसने पूरे खेल को गड़बड़ा दिया क्योंकि बिडेन के पास न तो कोई अंतर्दृष्टि है और न बस मानसिक दृढ़ता। वह बस एक थका हुआ बुजुर्ग भर है जो घटनाओं को देखता भर रहता है।
बिडेन का चुना जाना चीनी नैटवर्क की जीत और भारत के लिए पहला झटका था।
3)अफगानिस्तान में सैन्य वापसी की योजना यद्यपि ट्रंप की थी परंतु बिडेन को देख तालिबान का हौसला जाग गया और वे काबुल में घुस गए।
यह भारत के लिए दूसरा झटका था जब उसकी पाकिस्तान के विखंडन की योजना लगभग पूरी होते होते रह गई।
4)बिडेन के चुनाव व ट्रंप की हार के बाद पुतिन ने भी पीटर महान के काल से रूसियों की वर्षों पुरानी राष्ट्रीय आकांक्षा, गर्म समुद्र तक पहुंचने को पूरा करने का सुअवसर देखा और यूक्रेन एक मूर्ख कॉमेडियन की नाटो में शामिल होने की बेवकूफ महत्वाकांक्षा का शिकार बन गया।
यहाँ से बिसात फिर नये सिरे से बिछाई गई और इस बार बिसात में मुख्य हथियार हैं-
तेल और गेंहूं
इस बारे में वैश्विक स्थिति समझ लें-
विश्व में अमेरिका, सऊदी अरब सहित अरब देश, रूस दुनियाँ के सबसे बड़े खनिज तेल उत्पादक हैं जबकि हाल ही में रूस पर बैन लगने से पूर्व अरब देश व रूस खनिज तेल व गैस के सबसे बड़े निर्यातक भी थे।
गेहूँ व चावल का बड़ा अजीब विरोधाभास है क्योंकि गेंहू चावल उत्पादन में चीन व भारत सबसे बड़े उत्पादक राष्ट्र हैं लेकिन अपनी विशाल जनसंख्या के कारण वे इसके सबसे बड़े निर्यातक नहीं हैं।
गेंहूं के सबसे बड़े निर्यातक क्रमशः रूस, कनाडा अमेरिका, फ्रांस, यूक्रेन व ऑस्ट्रेलिया हैं।
अब हुआ ये है कि अमेरिका ने रूस पर बैन लगाने के बाद यूरोप को तेल व गैस की सप्लाई न केवल खाड़ी देशों से सुनिश्चित की है बल्कि अपने सुरक्षित भंडारों तक से लेकर आपूर्ति बढ़ाई है व बड़े तेल निर्यातक के रूप में उभरा है। (हालांकि यूरोप के लिए न तो सस्ती है और न सहजता से उपलब्ध जबकि उधर रूस से सीधे पाइपलाइन से आ रही थी।)
लेकिन गेंहूं का क्या?
यूक्रेन बर्बाद सा है।
रूस में फसल बहुत अच्छी हुई है पर उससे आयात बैन है।
अमेरिका में फसल कमजोर हुई है।
ऑस्ट्रेलिया में गेंहूं उत्पादन बहुत गिर चुका है।
तो रूस व यूक्रेन के कुल गेंहूं निर्यात के 24% को कौन पूरा करेगा? यूरोप व अरब जगत की खाद्य सुरक्षा का क्या??
जाहिर है भारत अपने संरक्षित भंडार के बाद सरप्लस गेंहूं से कुछ हद तक यह सुरक्षा मुहैया करा ही रहा था विशेषतः अरब देशों को।
अब यहीं आता है राजनीति का स्याह व घिनौना पक्ष।
रूस को क्या चाहिए?
कैश और गुड्स!
रूस के पास बेचने को क्या है?
तेल, गेंहूं व युद्ध सामग्री!
तेल कौन खरीद रहा है?
भारत व चीन।
गेंहूं कौन खरीदेगा?
पूरा_खेल_यहीं_है
गेंहूं चावल तो भारत खरीदेगा नहीं रूस से क्योंकि उसके पास भारत की आबादी को डेढ़ साल तक खिलाने लायक भंडारों के अतिरिक्त भी सरप्लस है।
अरब देशों को गेंहू कौन दे रहा था?
भारत।
लेकिन फिर अनाज…अनाज… चिल्लाते हुये भी तुर्की व मिस्र ने भारत का गेंहूं लौटा क्यों दिया है?
कुछ समझ आया?
चीन गेंहूं कहाँ से खरीद रहा है?
चीन गेंहूं कहाँ बेचेगा??
चीन अरब देशों को गेंहूं कैसे बेचेगा जबकि भारत का गेंहूं पहले से वहां जा रहा है।
अब रूस को अपना गेंहूँ बेचना ही है और आवश्यक गुड्स खरीदने ही हैं वरना आर्थिक स्थिति बदतर हो जाएगी।
उधर चीन में प्रॉडक्शन व सप्लाई की वैश्विक चेन गड़बड़ा चुकी है जिसका प्रमाण शी जिन पिंग द्वारा चीनी प्रांतों के बीच अंतरराज्यीय व्यापार को बढ़ाने के जोर से पता लगता है।
ऐसी स्थिति में रूस व चीन की स्थिति लंगड़े व अंधे की दोस्ती है।
चीन रूस का तेल व गेंहूं खरीदेगा, नकदी एवं गुड्स का भुगतान करेगा और चीन तेल स्वयं रखेगा और इस रूसी गेंहूं को अरब देशों को बेचकर मुनाफा कमाएगा।
पूरे खेल की पटकथा चीन ने लिखी और फंडिंग द्वारा भारत के इस्लामिक संस्थानों की सहायता से इसे अंजाम दिया गया। प्रमाण के तौर पर अभी हाल ही में ई डी द्वारा पीएफआई के चीनी लेनदेन का खुलासा पढ़ लीजिये।
नुपूर शर्मा तो बस एक मोहरा भर हैं।
खेल तो गांधी परिवार खेल रहा है जो घरेलू राजनैतिक स्थिति की पल-पल की खबर चीन को देता है और अपना भ्रष्ट इकोसिस्टम इस्तेमाल करने के लिये उपलब्ध कराता है।
अब समझ आया कि किसके दम पर तुर्की व मिस्र ने भारतीय गेंहूं को लौटाने की हिम्मत दिखाई है।
इस पूरे प्रकरण में अमेरिकी थिंक टैंक बिडेन के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ है।
चूंकि वह और कनाडा यूरोप के अतिरिक्त अरब देशों को संपूर्ण खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं है अतः वह इसे ‘उद्दंड’ हो चुके भारत को सबक सिखाना मानकर संतुष्ट है जबकि वह चाहकर भी अरब देशों को यह करने से रोक नहीं सकता क्योंकि रूसी गेंहूं व चीनी गुड्स चीन के माध्यम से उन्हें अधिक सस्ते मिल जाएंगे और शायद रूसी गेंहूं चीन के ठप्पे के साथ अब तक उतरने भी लगा हो।
रूस की इस योजना पर मौन सहमति मूर्खता की हद तक पहुंचे भावुक भारतीयों के लिए एक राजनैतिक सबक है कि वैश्विक राजनीति में भरोसेमंद दोस्त जैसी भावुक मूर्खताओं से नहीं बल्कि राष्ट्रीय हितों द्वारा संचालित होता। रूस अगर पूरी तरह चीन के साथ नहीं जा रहा तो उसका एकमात्र कारण भारत द्वारा रूसी हथियारों के ऑर्डर्स का लोभ है।
भारत भी इस स्थिति में रूस, चीन व पाकिस्तान सहित अरब देशों का त्रिकोणीय गठबंधन बनने नहीं दे सकता क्योंकि तब हम हथियारों व तेल के लिए पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर हो जाएंगे और यूक्रेन के मामले में अमेरिकी व यूरोपियन पलटी सभी ने देखी हुई है।
ज्ञात हो कि भारतीय शस्त्रागार में अस्सी प्रतिशत सैन्य साजोसामान रूसी है और भारत की स्ट्रेटजिक तेल भंडारण क्षमता दस से बारह दिन की है।
ऐसे में भारत रूस की पर्दे के पीछे की गतिविधियां जानते हुए भी अच्छे संबंध रखने को विवश भी है जो अमेरिकी चरित्र को देखते हुए उचित भी है।
संपूर्ण अमेरिकी इतिहास में इस समय अमेरिकी साख व विश्वसनीयता सर्वाधिक गिरी हुई है और यही कारण है कि जापान व ताईवान, यहाँ तक कि फिलीपींस तक उसपर भरोसा नहीं कर पा रहा है।
भारत शस्त्र निर्माण में आत्मनिर्भरता और तेल आपूर्ति सुरक्षा की गारंटी लिखित में मिलने तक क्वाड में सैनिक सहायता गारंटी देने तक नहीं जाएगा।
वर्तमान में ग्रेट गेम का पलड़ा थोड़ा सा… बस थोड़ा सा चीन के पक्ष में झुका हुआ है और इसके लिए केवल और केवल एक आदमी जिम्मेदार है और वह है जो बिडेन।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है वह इस समय आंतरिक रूप से विक्षुब्ध है जिसके लिए कहीं न कहीं मोदीजी के तथाकथित लोकतांत्रिक मूल्य जिम्मेदार हैं जो राष्ट्रहित में कठोर निर्णय लेने से रोकते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण है समय जो तेजी से निकल रहा है।
मोदीजी आंतरिक स्टैबिलिटी चाहते हैं अतः शोर करने वालों पर नहीं बल्कि उनपर कठोर होते हैं जो उसका प्रतिउत्तर दे रहे हैं।
लेकिन मेरा अनुमान ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि अगर चीन ताईवान पर हमला करता है तो उसी पल भारत में चालीस करोड़ ‘जा न व र’ सड़कों पर तांडव मचाने निकल आएंगे और तब भागवत जी जैसों द्वारा हतोत्साहित किया जा चुका हिंदू इनका सामना नहीं कर पायेगा।
इसलिये सबसे पहले तीस करोड़ के इस अराजक प शु ओं के समूह को खामोश कराने की जरूरत है, और प शु ओं पर हंटर बरसाने की जरूरत है न कि उनसे लड़ रहे हिंदुओं पर।
बाकी मोदीजी के पास अधिक सूचनाएं है और जो कर रहे हैं राष्ट्रहित में ही होगा।

Related Articles

Leave a Comment